बूंद-बूंद बचत, भाग सात: मधासर गांव में क्यों दोगुना हुए घी का भाव

सूखे चारे खाने वाले महीने की तुलना में हरे चारे वाले टाइम में गाय का घी महंगा हो जाता है
मधासर गांव में खेतों में बने टांके के पास अतिरिक्त पानी को रोकने लिए नाली बनाने वाले रामाराम काम के बीच आराम करते हुए (फोटो: अनिल अश्विनी शर्मा)
मधासर गांव में खेतों में बने टांके के पास अतिरिक्त पानी को रोकने लिए नाली बनाने वाले रामाराम काम के बीच आराम करते हुए (फोटो: अनिल अश्विनी शर्मा)
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पश्चिमी राजस्थानी के जिले स्वभाव से सूखे और रेगिस्तानी होते हैं, लेकिन मॉनसून 2023 के पहले दो महीनों मई-जून में इन जिलों में जबरदस्त बारिश हुई। पश्चिमी राजस्थान के कुल दस जिलों में राज्य में होने वाली कुल वर्षा से डेढ़ गुना अधिक बरसात हुई। यह बीते 100 सालों में सर्वाधिक वर्षा का रिकॉर्ड है, जिसने ग्रामीणों के लिए वर्षा जल संचय की संभावनाओं के असीम द्वार खोल दिए हैं। ग्रामीणों ने इस वर्षा जल को कितना सहेजा यह जानने के लिए अनिल अश्विनी शर्मा ने राज्य के चार जिलों के 8 गांव का दौरा किया और देखा कि कैसे ये जिले अप्रत्याशित वर्षा की चुनौतियों को अवसर में बदल रहे हैं। अब तक आप ब्यावर जिले के सेंदरा गांव गांव बर  , गांव रुपावास गांव  पाकिस्तान से सटे चंदनियाजैसिंधर और रामसर की रिपोर्ट पढ़ चुके हैं। आज पढ़ें एक और गांव की रिपोर्ट - 

बाड़मेर राष्ट्रीय राजमार्ग से भारत-पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा की ओर बढ़ते हुए अचानक जब सड़क से दाईं तरफ नजर पड़ती है तो दूर तलक तक फैले रेतीले टीलों के बीच एक विशालकाय उथला तालाब दिख पड़ता है। तालाब पर एक बारगी नजर पड़ी तो दर्जनों बकरी और भेड़ों के बीच एक बुजुर्ग खेतों में बने पानी के टांके के भर जाने के बाद निकल रहे पानी के लिए नाली बना रहे हैं। ये हैं गांव के बुजुर्ग रामाराम और चूंकि उनकी बकरियां व भेड़ आसपास ही चर रही हैं तो उनके पास समय है, इसलिए समय का उपयोग करते हुए अपने खेत में बने टांके से ओवरफ्लो होने वाले पानी को जमीन के नीचे जाने के लिए लाठी से ही खोदकर (चूंकि यहां की मिट्टी बहुत ढीली होती है तो लकड़ी आदि से आसानी से खुद जाती है) छोटी नाली बना रहे हैं। वह बोले, “इससे अधिक क्षेत्र में पानी फैलेगा और अधिक से अधिक हरा चारा पैदा होगा।”

इस इलाके में बारिश के चारे का महत्व बहुत है। पिछले जून-जुलाई से इलाके में घी का भाव दोगुना हो चुका है। मई की बारिश के पूर्व तक यहां घी का भाव 800 रुपए प्रति किलो था लेकिन अब यह बढ़ कर 1600 रुपए प्रति किलो हो गया है। मई-जून में सामान्य से दो गुना अधिक बारिश (सामान्य वर्षा 78.8 मिमी और इस बार हुई 148.1 मिमी) के कारण इलाके में बड़ी मात्रा में हरा चारा पैदा हुआ है। इसके कारण दूध की मात्रा तो 10 से 12 प्रतिशत ही बढ़ी लेकिन इस इलाके में हरे चारे के समय निकले दूध से बने घी का भाव दोगुना हो गया है। यह स्थिति 10 साल बाद आई है। बारिश खत्म होते ही घी का भाव अपनी पूर्व स्थिति में आ जाएगा।

इस संबंध में गांव में परचून की दुकान चलाने वाले अनिल कुमार ने यहां चारे से बढ़े घी के भाव का गणित कुछ यूं समझाया। उन्होंने बताया, “यहां चारे की तीन श्रेणी होती हैं और इसके अनुसार ही यहां घी का भाव तय होता है। पहला सूखा चारे के समय तैयार घी का भाव 500 से 600, सिंचाई से तैयार चारे की कीमत 800 से 900 और बारिश से तैयार चारे की कीमत 1600 रुपए प्रति किलो होती है।”

ध्यान रहे कि इस गांव में मवेशियों की संख्या तो अन्य गांवों की ही तरह हैं लेकिन उन मवेशियों में गायों की संख्या अधिक है। गांव में 12 हजार मवेशी हैं और इनमें 8,500 केवल गाय हैं।

दस साल बाद इस गांव के टांके ओवरफ्लो हो रहे हैं। इस अतिरिक्त पानी को ग्रामीण किस प्रकार से सहेजने में लगे हुए हैं इसका एक उदाहरण रामाराम ने पेश किया है। उनको अपने खेत में बने टांके के पास नाली बनाने का सौभाग्य लगभग दस साल बाद मिला है। उनका यह टांका 14 फुट गहरा और 13 फुट चौड़ा है। इसकी क्षमता 12,500 लीटर की है। यह पानी अगले नौ माह तक चलेगा। इसमें पानी मई की पहली बारिश में ही भर गया था, लेकिन रामाराम तब से रोज ही यहां आते हैं और चेक करते हैं कि उनकी बनाई नाली सुरक्षित है कि नहीं। चूंकि रेगिस्तानी इलाके में हवाएं बहुत तेज चलती हैं और उनका यह खेत ऐसे ही रेतीले इलाके में बना हुआ है जिसके कारण कभी-कभी तो यह नाली एक ही तेज हवा के आने पर समतल हो जाती है। यह स्थिति अकेले उनके ही खेत की नहीं है बल्कि गांव के 820 परिवारों के खेतों में बने 550 टांकों की है।

गांव की जनसंख्या 4,500 है। गांव के घरों में बने टांकों की संख्या 475 है। इनमें 150 टांके पारंपरिक हैं जबकि शेष आधुनिक मिस्त्री द्वारा बनावाए गए हैं। जबकि गांव के खेतों में बने टांकों की कुल संख्या 550 है और इनमें 455 मनरेगा के माध्यम से ही बनाए गए हैं। इसके अलावा गांव में 7 पारंपरिक नाड़ी भी बनी हुई हैं लेकिन उसका उपयोग केवल बारिश के पानी को अधिक से अधिक जमीन के नीचे जाने के लिए किया जाता है। गांव में किसानों के पास 546 हेक्टेयर के खेत हैं। इस बार इन खेतों में बने टांके इतने भर गए हैं कि पानी बाहर आ रहा है। गांव के किसान इस बात से खुश हैं कि दस साल बाद वे एक साल में दो फसल ले पाएंगे। क्योंकि टांकों से आने वाले सीजन में सिंचाई संभव होगी।

पिछले कुछ दशकों से इस इलाके में जो भी बारिश होती है वह एक ही दिन में या कुछ घंटो के अंदर ही हो जाती है। ऐसा पहले नहीं होता था। लेकिन नई परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए अधिकांश ग्रामीणों ने अपने खेतों के पास से लेकर अपने घरों के आसपास भी पानी को रोकने के लिए अतिरिक्त साधन तैयार किए हुए हैं। गांव में नाड़ियों (छोटी तलैया) की संख्या 155 से अधिक है। गांव के चंदनाराम ने कहा, “इससे होता ये है कि जैसे ही तेज बारिश होती है तो टांके तो तेजी से भर जाते हैं और फिर बहते हुए पानी को कैसे रोकें, इसके लिए ही छोटी-छोटी नाड़ी बना ली जाती हैं।” इस संबंध में काजरी के वरिष्ठ वैज्ञानिक बीआर कुरी ने बताया, “जिले में जून में यहां 400 मिली मीटर बारिश रिकॉर्ड की गई जबकि जून में औसत बारिश का रिकॉर्ड 50 से 60 मिलीमीटर ही है। ऐसे में इस इलाके के अधिकांश छोटे किसान अतिरिक्त बारिश को अपने खेतों के कोने में इसी प्रकार से तमाम पारंपरिक साधन बनाकर एकत्र कर लेते हैं।” इस प्रकार कि प्रक्रिया अपनाने पर किसानों को दो प्रकार से लाभ होता है, पहला तो यह कि खेतों में बोई फसल भी पानी में डूबने से बच जाती है और दूसरा कि इससे अगले सीजन के लिए भी पानी किसान के पास बचा रहता है। भले वह जमीन के नीचे ही क्यों न हो।

गांव में अतिवृष्टि से 1.19 करोड़ लीटर पानी मिला। जबकि पानी का उपभोग 7.30 करोड़ लीटर है। गांव के लोग बारिश के पानी का उपभोग आगामी 4 माह तक पेयजल-सिंचाई के लिए कर सकेंगे। गांव में खेती के लिए 11 हजार हेक्टेयर के खेत हैं।

खेतों में बाजरा की फसल दिख रही है। गांव के ही किसान राहूराराम ने कहा, “इस बार मैंने अपने खेतों में बाजरा बोया है और उम्मीद है कि यदि कुछ और पानी बरसा तो मेरे एक बीघे के खेत में 15 क्विंटल बाजरा हो जाएगा, नहीं बरसा तो गिरी से गिरी हालत में पांच क्विंटल तो हो ही जाएगा।”

हालांकि भयंकर सूखे के कारण इस इलाके के किसान दो साल के अंतर से खेती कर पाते हैं। कारण कि एक साल तो जैसे-तैसे बीज लाकर सूखे खेतों में बो दिया जाता लेकिन जब बारिश ही नहीं होगी तो वह बीज बेकार हो जाता है। किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे हर बार खेतों में ऐसे ही बीज खरीद कर बोते रहें और बारिश नहीं होने की स्थिति में बीज नष्ट होते रहें। गांव के मेहराराम ने कहा, “हम एक दशक के बाद इस बारिश के कारण साल में दो फसल लेने की स्थिति में हैं।”

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