पश्चिमी राजस्थानी के जिले स्वभाव से सूखे और रेगिस्तानी होते हैं, लेकिन मॉनसून 2023 के पहले दो महीनों मई-जून में इन जिलों में जबरदस्त बारिश हुई। पश्चिमी राजस्थान के कुल दस जिलों में राज्य में होने वाली कुल वर्षा से डेढ़ गुना अधिक बरसात हुई। यह बीते 100 सालों में सर्वाधिक वर्षा का रिकॉर्ड है, जिसने ग्रामीणों के लिए वर्षा जल संचय की संभावनाओं के असीम द्वार खोल दिए हैं। ग्रामीणों ने इस वर्षा जल को कितना सहेजा यह जानने के लिए अनिल अश्विनी शर्मा ने राज्य के चार जिलों के 8 गांव का दौरा किया और देखा कि कैसे ये जिले अप्रत्याशित वर्षा की चुनौतियों को अवसर में बदल रहे हैं। पहली कड़ी में ब्यावर जिले के सेंदरा गांव , दूसरी कड़ी में गांव बर , तीसरी कड़ी में गांव रुपावास गांव चौथी कड़ी में पाकिस्तान से सटे चंदनिया गांव की जमीनी रिपोर्ट पढ़ चुके हैं। आज पढ़ें एक और गांव की कहानी
भारत-पाकिस्तान की बाड़मेर अंतरराष्ट्रीय सीमा से केवल सात किलोमीटर दूर बसे जैसिंधर गांव में पानी संजोने की कहानी पाकिस्तान के हिस्से से आए शरणार्थियों ने 1965 के बाद लिखी (भारत-पाक के बीच 1965 के युद्ध के बाद बड़ी संख्या में शरणार्थियों ने गांव में शरण ली)। एक बारगी इस गांव के कच्चे और पक्के घरों में बने वर्षा जल संचयन की विधियों को देखें तो महसूस होगा कि यहीं से शहरी इलाकों में बनी ग्रीन बिल्डिंग की कल्पना की गई होगी। तभी तो इस बार की बारिश का परिणाम है कि मवेशियों को भी पारंपरिक वर्षा जल संचय के लिए बने टांकों से पानी पिलाया जा रहा है।
मई-जून की भारी बारिश ने गांव के अधिकांश घरों में बने पारंपरिक वर्षा जल संचयन के साधनों ने हालात इतने बदल दिए हैं कि अब मवेशियों को भी यह पानी अगले छह माह तक मिलेगा। इन दिनों यहां ग्रामीण अपनी छप्परों से लगी पाइप लाइनों को साफ करते आसानी से नजर आ जाएंगे। गांव के श्रवण कुमार टांके पर खड़े होकर पाइप लाइन को ठीक करते हुए बोले, “यह केवल एक प्लास्टिक या टीन का पाइप ही नहीं है, यह हमारी जीवन की नली है, जब भी यह टूटेगी हमारा जीवन खत्म।”
अधिकांश बारिश का पानी छतों या छप्परों में पाइप लाइन डाल कर घरों में बने पारंपरिक 550 टांकों और मनरेगा के माध्यम से बने 298 टांकों में एकत्रित किया गया है। इनकी सैकड़ों सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी देखभाल की जा रही है। यही कारण है कि गांव के समृद्ध लोग अपने पक्के मकान के साथ ही कच्चे मकान को भी सुरक्षित रखे हुए हैं ताकि उसमें बनाए गए उनके पुरखों के टांकों में पानी सुरक्षित रख सकें। ऐसे ही एक मकान के मालिक कपिल शर्मा ने डाउन टू अर्थ से कहा, “मेरे घर में दो टांके हैं। एक पक्के में और दूसरा कच्चे मकान में, इनमें बारिश का ही पानी एकत्र हुआ है। यह पानी पीने के लिए 14 माह तक आसानी से चलेगा।” पुराने टांकों की क्षमता 10 हजार लीटर है और नए टांकों की क्षमता 7,500 लीटर है।
गांव में कई ग्रामीण हैं जो गरीब हैं, पाइप नहीं लगवा सकते। ऐसे लोगों की छतों से टूटे-फूटे टीन की जंग लगी चद्दर को ही नाली का आकार देते हुए रबड़ की पाइप से जोड़तोड़ कर सीधे टांके से जोड़ा गया है। इस प्रकार से जल संचय करने वाले जितेंद्र कुमार ने कहा, “हमने कबाड़ से जुगाड़ कर यह पाइप तैयार किया है जो कि छत से बारिश के पानी को सीधे हमारे टांके में डाल रहा है।” यह सही है कि सभी के पास इतने साधन नहीं हैं कि वो अपनी छतों या छप्पर से निकलने वाले पानी के लिए बाजार में बिकने वाले महंगे पाइप खरीदें। ऐसे घरों की संख्या गांव में 30 है। ऐसे लोग कबाड़ से जुगाड़ को ही अपना कर बारिश के पानी को टांके में संजो रहे हैं।
खेतों में 850 टांके बने हुए हैं। इनमें मनरेगा से 250 और बचे 600 टांके निजी हैं। बारिश ने इन टांकों को भर दिया है। अधिकांश किसानों ने बाजरा बोया हुआ है लेकिन सभी को उम्मीद है कि इस बार दूसरी फसल भी ले पाएंगे। क्योंकि टांकों में पानी तो है ही साथ ही इस बार बारिश के समय अधिकांश किसानों ने अपने-अपने खेतों के समानांतर छोटी-छोटी दो-दो फुट की मेड़ें बना दीं थीं, जिसके कारण अधिकांश पानी जमीन के नीचे चला गया है। यहां के किसानों की सबसे पहली कोशिश यह होती है कि हर हाल में पानी जमीन के नीचे जाए। इस इलाके में धूप इतनी तेज हाेती है कि पानी ऊपर रहा तो भाप बन जाएगा। ऐसे में अच्छा है कि पानी को जमीन के नीचे ही पहुंचा दो।
गांव में इस बार की भारी बारिश से एक दशक के बाद 2.17 करोड़ लीटर जल संचय हुआ है। गांव वालोंं का कहना है कि यह पानी हमारे लिए अगले 12 माह तक निर्बाध रूप से चलेगा। वहीं सिंचाई के लिए भी पानी खेतों के टांकों में एकत्रित हुआ है, उसका अगले 10 माह तक उपयोग किया जा सकता है। जिले में बारिश (सामान्य वर्षा 115.2 मिमी और इस बार हुई 340.6 मिमी) मई के मध्य में सामान्य से तीन गुना अधिक हुई, ऐसे में गांव के घरों के टांके तो पहली बारिश में भर गए थे। जबकि खेत ढलान पर बने हुए हैं, इसलिए थोड़ा मुश्किल हुआ।
हालांकि ग्रामीणों ने इसकी तैयारी की हुई थी लेकिन बारिश का बहाव इतना तेज था कि जहां-जहां ग्रामीण ने कच्ची मेड़ें बांधी हुई थीं, वह बह गई और पानी दूसरी ओर चला गया लेकिन ग्रामीणों ने शीघ्र ही फिर से कच्ची मेड़ें बांधने में सफल हुए। गांव चूंकि एक टीले पर बसा हुआ है। ऐसे में यहां घर और आंगन भी ऊपर-नीचे बने हुए हैं। लेकिन इन घरों में बने टांके में अतिरिक्त पानी को संजोने के लिए हर घर के आसपास छोटी-छोटी नाड़ियां बना दी गईं हैं (क्षमता 4 से 5 हजार लीटर है)। जब छतों और छप्परों से निकले पानी से टांका भर जाता है और ओवर फ्लो होने लगता है, तब अतिरिक्त पानी इन नाड़ियों में एकत्र होता है। इससे टांके के पास ही पानी जमीन के नीचे चला जाता है। इस संबंध में गांव के लाइनमैन श्रवण िसंह ने कहा, “हम सब पानी को ऊपर भी संजोते हैं और धरती के नीचे भी संजोते हैं।”
खेतों में बने टांकों में अतिरिक्त पानी रोकने के लिए बड़े-बड़े आगोर (कैचमेंट एरिया) तैयार किए गए हैं और बारिश के समय इन आगोर को लगातार स्वच्छ रखना ग्रामीणों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है। लेकिन यहां के ग्रामीण इस बार की भारी बारिश के दौरान ही जब भी बारिश कुछ समय के लिए रुक जाती थी, तभी टांके के आगोर के घेरे को और बड़ा करने की कोशिश में जुट जाते थे।
घरों में बने टांकों की संख्या कुल 550 है और इनमें 298 मनरेगा से बने हैं। इस प्रकार से कुल संरचनाओं की संख्या 1,520 है। इसके अलावा घरों में बने टांकों के पास बनी कुल 120 छोटी नाड़ी हैं। इन सभी जलसंचय वाली संरचनाओं में ग्रामीण बूंद-बूंद पानी को सहेज लेना चाहता है।