संकट में जीवनधारा

हिमालयी धाराओं का सूखना पर्वतीय और मैदानी इलाकों के करोड़ों लोगों के लिए खतरे की घंटी है
संपूर्ण भारत में 50 लाख धाराएं हैं जिनमें से 30 लाख अकेले भारतीय हिमालय क्षेत्र में हैं। 30 लाख में से आधी बारहमासी धाराएं सूख चुकी हैं (कनिका बहुगुणा / सीएसई)
संपूर्ण भारत में 50 लाख धाराएं हैं जिनमें से 30 लाख अकेले भारतीय हिमालय क्षेत्र में हैं। 30 लाख में से आधी बारहमासी धाराएं सूख चुकी हैं (कनिका बहुगुणा / सीएसई)
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संतोष सिंह नगरकोटी अल्मोडा जिले के बसौली गांव में एक होटल और किराने की दुकान चलाते हैं। गांव में पर्यटकों की आवाजाही से उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी है लेकिन उन्हें एक चिंता भी खाए जा रही है। दरअसल उनके घर के पास ही बिंसर नदी बहती है जिसमें पानी दिनोंदिन कम होता जा रहा है। गर्मी में उन्होंने पानी का संकट झेला है। उन्हें डर है कि अब ठंड में भी इस संकट से जूझना होगा क्योंकि सर्दियों में बारिश न होने से नदी का जलस्तर घटने लगा है। चिंतित संतोष बताते हैं, “करीब 10 साल पहले नदी का बहाव इतना तेज था कि ऊंचाई पर बने पुल भी अक्सर बह जाते थे। अब गर्मियों में 5-6 इंच पानी ही रहता है। इतने कम पानी में मछलियां भी नहीं मिलतीं।” वह बताते हैं कि अल्मोडा जिले में ही ताकुला के पास भगवान शिव के गणनाथ मंदिर में कभी 24 घंटे धारा का पानी गिरता था जो अब कम होता जा रहा है। गर्मियों में तो पानी आना बंद ही हो गया है। संतोष की चिंता बेवजह नहीं है। दरअसल, अल्मोडा में पिछले 150 सालों में 360 में से 300 धाराएं सूख चुकी हैं।

उत्तराखंड में जल संकट किस हद तक गंभीर हो चुका है, इसकी झलक अल्मोडा के ही खरक गांव निवासी 70 वर्षीय धर्मानंद मिश्रा के अनुभवों से भी मिलती है। धर्मानंद 1980 के दशक को याद करते हुए बताते हैं, “1985 में हम परिवार के साथ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए जम्मू गए थे। उन दिनों मंदिर के पास 4 बड़े-बड़े पाइपों से बड़ी मात्रा में धारा का पानी गिरता रहता था। पानी इतना ठंडा होता था कि दो मिनट पानी के नीचे खड़ा होना मुश्किल था। जब हम 20 साल बाद 2005 में दोबारा वैष्णो देवी गए तो इन पानी के पाइपों की जगह पक्के स्नानघर बन चुके थे और इनमें पानी नाममात्र का ही था।” धर्मानंद बताते हैं, “1970-80 के दशक में हमारे गांव में नौला (प्राकृतिक जल स्रोत के मानव निर्मित छोटे कुएं) भर जाता था। इस पानी से रोजमर्रा की जरूरतें पूरी होती थीं लेकिन अब ये नौला पूरी तरह सूख चुके हैं। पानी की कमी के कारण लोगों ने खेती करना बंद कर दिया है और मैदानी इलाकों में पलायन कर गए हैं।”

धर्मानंद और संतोष जिस संकट का जिक्र कर रहे हैं, उस पर जुलाई 2018 में प्रकाशित नीति आयोग की रिपोर्ट भी गंभीरता से रोशनी डालती है। हिमालय और पानी संरक्षण पर काम करने वाली विभिन्न संस्थाओं के सहयोग से प्रकाशित “रिपोर्ट ऑफ वर्किंग ग्रुप 1 इनवेंट्री एंड रिवाइवल ऑफ स्प्रिंग्स इन द हिमालयाज फॉर वाटर सिक्योरिटी” के अनुसार, संपूर्ण भारत में 50 लाख धाराएं हैं जिनमें से 30 लाख अकेले भारतीय हिमालय क्षेत्र (आईएचआर) में हैं। 30 लाख में से आधी बारहमासी धाराएं सूख चुकी हैं अथवा मौसमी धाराओं में तब्दील हो चुकी हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमालय क्षेत्र में छोटी रिहाइश को पानी उपलब्ध कराने वाली कम प्रवाह वाली करीब 60 प्रतिशत धाराएं पिछले कुछ दशकों में पूरी तरह सूख चुकी हैं। सिक्किम की धाराओं में पानी 50 प्रतिशत कम हो गया है। यह ऐसे राज्य के लिए बेहद चिंताजनक है जो पीने के पानी के लिए धाराओं पर पूरी तरह आश्रित है।

नीति आयोग की रिपोर्ट इसलिए भी चिंता में डालती है क्योंकि धारा सूखने का व्यापक असर पड़ रहा है। आईएचआर 2,500 किलोमीटर लंबे और 250 से 300 किमी़ चौड़े क्षेत्र में फैला है और इसमें 60,000 गांव हैं। इस क्षेत्र में 5 करोड़ लोग रहते हैं। जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा इसके दायरे में हैं। असम और पश्चिम बंगाल भी आंशिक रूप से इसके तहत आते हैं। यहां की करीब 60 प्रतिशत आबादी जल संबंधी जरूरतों के लिए धाराओं पर निर्भर है। अधिकांश उत्तराखंड में धारा आधारित पानी की ही आपूर्ति होती है जबकि मेघालय के सभी गांवों में पेयजल, सिंचाई और पशुओं के लिए धारा का पानी प्रयुक्त होता है। ऐसे में धाराओं को सूखना पहाड़ों में जीवन पर संकट के तौर पर देखा जा रहा है।

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, धाराओं के सूखने से केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि जंगल और वन्यजीव भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। वन्यजीवों के लिए गड्ढों में मौजूद पानी का आधार प्राकृतिक धाराएं हैं। राष्ट्रीय उद्यानों और जंगलों में इन धाराओं के सूखने का मतलब है वन्यजीवों के लिए पानी का संकट। धारा का सूखना एक पक्षीय मसला नहीं है। मौजूदा धाराओं में पानी की गुणवत्ता भी चिंता का विषय है। रिपोर्ट के अनुसार, सूक्ष्मजीव, सल्फेट, नाइट्रेट, फ्लोराइड, आर्सेनिक और आयरन प्रदूषण धाराओं में बढ़ रहा है। सेप्टिक टैंकों, घरों के गंदे पानी, पशुओं और चारे से कोलिफॉर्म बैक्टीरिया धाराओं के स्रोत एक्वफर (पहाड़ों में भूमिगत जल भंडार) में पहुंच रहा है। इसी तरह नाइट्रेट भी सेप्टिक टैंक, घर के गंदे पानी, कृषि उर्वरकों और पशुओं के माध्यम से धाराओं तक जा रहा है।



क्यों बिगड़े हालात

पहाड़ों में धाराओं का संकट मुख्य रूप से अप्रत्याशित बारिश, भूकंप और पर्यावरण को पहुंची क्षति के कारण मंडराया है। पर्यावरण का क्षरण भू-उपयोग में परिवर्तन और विकास की तथाकथित गतिविधियों का मिलाजुला नतीजा है जिसने पहाड़ों में जल के स्रोत एक्वफर को प्रभावित किया है। नीति आयोग की रिपोर्ट के मुख्य लेखक एवं एडवांस्ड सेंटर फॉर वाटर रिसोर्सेस डिवेलपमेंट एंड मैनेजमेंट (एक्वाडेम) के कार्यकारी निदेशक हिमांशु कुलकर्णी इन तमाम कारणों में जलवायु परिवर्तन और तापमान में वृद्धि को भी जोड़ते हुए बताते हैं कि पिछले 100 सालों के दौरान हिमालय क्षेत्र में बारिश कम हुई है। सर्दियों में होने वाली बारिश तो खत्म ही हो गई है।

बारिश के स्वरूप में बदलाव और धाराओं के बीच प्रत्यक्ष संबंध का उदाहरण देते हुए उत्तराखंड के स्थानीय पत्रकार शैलेन्द्र गौडियाल बताते हैं, “उत्तरकाशी में तीन-चार साल पहले 25-30 प्राकृतिक झरने थे। सड़कों या हाइवे से गुजरते समय उन्हें पार करना पड़ता था लेकिन अब ये दिखाई नहीं देते। वह बताते हैं कि पहले ठंड की बारिश नवंबर से शुरू हो जाती थी लेकिन अब यह बारिश फरवरी से अप्रैल के बीच हो रही है। इस पानी से भूमि रीचार्ज नहीं हो पाती।” शैलेंद्र एक अन्य उदाहरण देते हैं, “तीन साल पहले तक गंगोत्री से 20 किलोमीटर दूर चांगथांग में बर्फबारी से एक विशाल हिमखंड बन जाता था जो गंगोत्री हाइवे को अवरुद्ध कर देता था।

बीआरओ (बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन) को यह हिमखंड काटकर सड़क बनानी पड़ती थी। पिछले तीन साल में यह हिमखंड गायब हो चुका है।” अब उत्तरकाशी के अधिकांश गांवों में जलस्रोत सूख चुके हैं। उत्तरकाशी में तीन प्रमुख नदियों- भागीरथी, यमुना और टोंस के बहने के बावजूद जलापूर्ति पंपिंग योजनाओं और ट्यूबवेल के भरोसे हो गई है। जून-जुलाई में तो टैंकरों से पानी की सप्लाई करनी पड़ रही है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के बंजार गांव निवासी एवं हिमालय नीति अभियान के राष्ट्रीय संयोजक गुमान सिंह स्पष्ट रूप से मानते हैं कि धारा के सूखने का मुख्य कारण वनों की अंधाधुंध कटाई है। हिमाचल प्रदेश समेत पूरे पहाड़ी इलाकों में विकास योजनाओं के नाम पर बन रही सड़कें, बांध, टाउनशिप और सुरंगें जलस्रोत समाप्त कर रही हैं। डायनामाइट से होने वाले धमाकों से पहाड़ दरक रहे हैं और पहाड़ में मौजूद धाराएं खत्म हो रही हैं।

हिमालयन एनवायरमेंटल स्टडीज एंड कंजरवेशन ऑर्गनाइजेशन (हेस्को) के संस्थापक और पर्यावरणविद अनिल जोशी बताते हैं कि धाराएं इसलिए भी सूख रही हैं क्योंकि हमारे निर्माण वैज्ञानिक नहीं हैं। इन अवैज्ञानिक निर्माण की वजह से एक्वफर (जलीय पर्त) हिल जाते हैं और धाराएं बाधित हो जाती हैं। वहीं, एनविरोनिक्स ट्रस्ट में भूवैज्ञानिक श्रीधर रामामूर्ति के अनुसार, हमने धाराओं के स्रोत और डिस्चार्ज क्षेत्र को बाधित कर दिया है। धाराएं धीरे-धीरे पानी रिलीज करती हैं जो निर्माण गतिविधियों के कारण नहीं हो पा रहा है। पहाड़ों में शिमला और मसूरी जैसे घनी आबादी वाले शहरों के कारण जमीन के अंदर पानी नहीं जा रहा है, उल्टा ऐसे शहर धाराओं को प्रदूषित करने में अपना योगदान दे रहे हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल निवासी पर्यावरणविद रमेश बौड़ाई इस संकट की वजह चीड़ के पेड़ों को मानते हैं।

उनके अनुसार “चीड़ पर व्यापक सर्वे होना चाहिए। इनके स्थान पर ओक के पेड़ों लगाना और बढ़ावा देना चाहिए क्योंकि ये पेड़ तीन चौथाई पानी का भंडारण कर सकते हैं और भूमि में नमी बनाए रखते हैं। ये पेड़ जमीन में पानी भी छोड़ते हैं।” उनका कहना है कि चीड़ के पेड़ वनों में आग फैला रहे हैं और इस आग से जलस्रोतों को नुकसान पहुंच रहा है। इन्हें हटाए बिना जंगलों का बचना संभव नहीं है और जब जंगल ही सुरक्षित नहीं रहेंगे तो धाराओं का बचना भी नामुमकिन है।



असर

हिमालयी धाराओं और भूमिगत जल पर डॉक्टरेट करने वाले एवं नीति आयोग की रिपोर्ट में ड्राफ्टिंग समिति के सदस्य रहे एसके बरतारिया बताते हैं कि निचले हिमालय से निकलने वाली नदियों में ग्लेशियर का योगदान नहीं होता। ये नदियां धाराओं के पानी से जिंदा रहती हैं। धाराओं के सूखने और पानी कम होने से नदियों पर असर पड़ना निश्चित है। उनका कहना है कि गंगा में मुरादाबाद तक हिमालय के ग्लेशियर का योगदान लगभग 29 प्रतिशत होता है। शेष जल भूमिगत है। तमाम नदियां कम बारिश के दौर में भूमिगत जल से ही समृद्ध होती हैं।

एसके बरतारिया ने धाराओं के सूखने और नदियों के प्रवाह के संदर्भ में केएस वल्दिया के साथ शोध किया था जो 1991 में माउंटेन रिसर्च एंड डेवलपमेंट में प्रकाशित हुआ। उनका अध्ययन बताता है कि उत्तराखंड में निचले हिमालय में बहने वाली गौला नदी में भूमि के उपयोग में बदलाव, मिट्टी के कटाव और वनों की कटाई की वजह से 1951-60 से 1961-70 के बीच पानी 29.2 प्रतिशत कम हो गया। 1971 और 1981 के बीच इस नदी में 38.5 प्रतिशत पानी घट गया। कैचमेंट क्षेत्र के 40 प्रतिशत गांवों में यह स्थिति थी। यह स्थिति तब थी जब बारिश में अब की तरह ज्यादा बदलाव नहीं आया था। अब तो स्थिति और खराब है। वह बताते हैं कि गौला नदी की ही तरह उत्तराखंड में बहने वाली कोसी नदी में भी धाराओं के सूखने से पानी कम हुआ है।

पहाड़ों में धाराओं के सूखने का सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ता है। जोशी धाराओं के सूखने को महिलाओं के लिए बड़ी त्रासदी के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार, इन महिलाओं पर पहले से चूल्हा चौका के लिए लकड़ी लाने की जिम्मेदारी है। इसमें उनका काफी श्रम और समय नष्ट हो जाता है। अब पानी भी उन्हें 2-3 किलोमीटर दूर से ढोना पड़ रहा है। इसके अलावा कृषि भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है। पहाड़ों में एक तो खेती योग्य भूमि ही 12.5 प्रतिशत है, दूसरा इसमें से 11 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है। ध्यान देने वाली बात यह है कि 64 प्रतिशत सिंचित भूमि को जल प्राकृतिक धाराओं से मिलता है। धाराओं पर खेती की निर्भरता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि हिमालयी राज्यों में 23.9 प्रतिशत सिंचाई योजनाओं का आधार धाराएं हैं। उत्तराखंड में 64.7 प्रतिशत, मिजोरम में 23.3 प्रतिशत, सिक्किम में 2 प्रतिशत और मेघालय में 3 प्रतिशत सिंचाई योजनाएं धाराओं पर टिकी हैं। धाराएं सूखेंगी तो इन सिंचाई योजनाओं का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाएगा।

हिमालयी धाराओं के सूखने का प्रभाव केवल पहाड़ी राज्यों या लोगों तक ही सीमित नहीं है। पहाड़ों से निकलने वाली धाराएं सदानीरा गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु और यमुना जैसी नदियों के जल को समृद्ध करती हैं। ये नदियां भारत के बड़े भूभाग को उपजाऊ बनाती हैं और जल संबंधी जरूरतें पूरी करती हैं। हिमालय, पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट, अरावली और अन्य पर्वत श्रृंखलाओं में करीब 20 करोड़ लोग धाराओं पर निर्भर हैं। यानी देश की करीब 15 प्रतिशत आबादी का जनजीवन प्रत्यक्ष रूप से धाराओं पर टिका है। ऐसे में अगर धाराएं सूखेंगी तो भारत का बड़ा हिस्सा प्रभावित होगा। यह भी गौर करने वाली बात है कि भारत में नदियों के आसपास पूरी संस्कृति पल्लवित होती है। धाराओं के सूखने से इस संस्कृति को भी नुकसान पहुंचता है।

देहरादून स्थित पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट (पीएसआई) के निदेशक देवाशीष सेन बताते हैं, “धाराएं सूखने पर पहाड़ों के साथ ही मैदानी इलाकों के भी जीवनयापन पर असर पड़ेगा। धाराएं व्यापक पारिस्थितिक सेवाएं प्रदान करती हैं। चाहे वह नमी को बरकरार रखना हो अथवा नदियों या सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराना। इनके सूखने का असर व्यापक और गहरा होगा।”

उम्मीद जगाती पहल
 

देशभर में धाराओं को बचाने की पहल के उत्साहवर्धक नतीजे सामने आए हैं। सिक्किम के धारा विकास कार्यक्रम को कई राज्यों में अपनाया जा रहा है

  1. सिक्किम में रूरल मैनेजमेंट एंड डेवलपमेंट डिपार्टमेंट (आरएमडीडी) ने 4-5 वर्ष में 700 धाराओं का पुनर्जीवित करके दिखाया है। सरकार को इस काम में समुदाय और सामाजिक संगठनों को भरपूर सहयोग मिला। चरणबद्ध वैज्ञानिक तरीकों से स्प्रिंशेड मैनेजमेंट के कार्यक्रम को धारा विकास नाम दिया गया। मनरेगा की मदद से धारा विकास के जरिए 900 मिलियन लीटर पानी एक रुपए प्रति लीटर की लागत से सालाना रिचार्ज किया गया। 
  2. इलीयूथ्रियन क्रिश्चन सोसाइटी ने टाटा ट्रस्ट के सहयोग से स्प्रिंगशेड मैनेजमेंट का पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया। इससे नागालैंड के दो जिलों मोकेकचंग और ट्यूनसंग के 10 स्थानों में जल की स्थिति में सुधार हुआ। इस काम से धाराओं की डिस्चार्ज क्षमता में सुधार हुआ।
  3. मेघालय सरकार ने मेघालय बेसिन डेवलपमेंट अथॉरिटी (एमबीडीए) के सहयोग से 60,000 धाराओं की मैपिंग का काम शुरू किया और 11 जिलों में 5,000 धाराओं में धारा जल प्रबंधन योजना शुरू की है। मृदा एवं जल संरक्षण विभाग, जल संसाधन विभाग और स्वयंसेवक धाराओं को बचाने के लिए क्षमता विकास के प्रयास कर रहे हैं।
  4. पश्चिम बंगाल के ग्रामीण विकास विभाग ने 4 पहाड़ी जिलों में 50 धाराओं के लिए पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है। इस काम में पंचायती राज संस्था, ग्रामीण विकास विभाग, प्रसारी एनजीओ और एक्वाडेम का सहयोग कर रहे हैं। शुरुआती नतीजे बताते हैं कि जमीनी स्तर पर धाराओं के प्रति लोगों में समझ बनी है।

(स्रोत: नीति आयोग की रिपोर्ट)

तत्काल उपाय जरूरी

जानकार बताते हैं कि अगर धारा सूखने की समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया तो पहाड़ में लाखों लोगों की जिंदगी संकट में पड़ जाएगी। हालांकि यह काम मुश्किल जरूर लेकिन असंभव नहीं। जोशी बताते हैं, “सूखी धाराओं में पानी फिर से आ सकता है। हमने खुद 64 धाराओं को पुनर्जीवित करके दिखाया है। बस जरूरत है कि उसके कैचमेंट क्षेत्र की पहचान की जाए। वाटरशेड और स्प्रिंगशेड कार्यक्रम चलाकर सूख चुकी धाराओं में पानी आ सकता है।” नीति आयोग की रिपोर्ट में धाराओं के बचाने के लिए स्प्रिंगशेड कार्यक्रमों के अलावा कई अन्य महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं। मसलन, धाराओं की मैपिंग, क्षमता विकास और इनवेंट्री के अलावा स्प्रिंगशेड मैनेजमेंट के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम पर जोर दिया गया है। राष्ट्रीय और राज्य सरकार की नीतियों में इस कार्यक्रम को अपनाने को कहा गया है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को इस कार्यक्रम से जोड़ा जा सकता है। रिपोर्ट में शुरुआती चार सालों के लिए अल्पकालीन एक्शन, 5 से 8 साल तक के लिए मध्य कालीन एक्शन और 8 साल के बाद दीर्घकालीन उपाय प्रस्तावित किए गए हैं। जानकार बिना देरी इन उपायों पर गौर करने की सलाह देते हैं।

सेन बताते हैं कि सरकार को धाराओं की बचाने के काम को एक मिशन के रूप में लेना चाहिए, तभी धाराओं के सूखने के संकट का समाधान हो सकता है। हिमांशु कुलकर्णी के अनुसार, “धाराओं को बचाने और पुनर्जीवित करने के लिए एक्वफर और धाराओं की मैपिंग बहुत जरूरी है। सिक्किम में यह काम फील्ड लेवल पर किया गया है। इसमें लोगों का सहयोग मिला और एक्वफर के विज्ञान को सरल भाषा में बताने के सकारात्मक नतीजे निकले।” कुलकर्णी को उम्मीद है कि नीति आयोग की रिपोर्ट के बाद संपूर्ण हिमालय क्षेत्र में धाराओं की इनवेंट्री होगी और उनकी मैपिंग की दिशा में काम होगा। वह बताते हैं कि धाराओं को बचाने का काम दीर्घकालीन है और इस पर बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत है।

“30 लाख धाराओं के लिए बड़े कार्यक्रम की जरूरत”
 

नीति आयोग की रिपोर्ट के मुख्य लेखक व एडवांस्ड सेंटर फॉर वाटर रिसोर्सेस डिवेलपमेंट एंड मैनेजमेंट के कार्यकारी निदेशक हिमांशु कुलकर्णी ने डाउन टू अर्थ से बात की

धाराओं की समस्या पर आपका ध्यान कब गया?

1980 के दशक में भारत भूजल निकालने में दुनिया में सबसे अग्रणीय देश बन गया था। 1980 में हमें इस विषय पर चर्चा करनी चाहिए थी लेकिन चर्चा नहीं हुई। पर्यावरणवादियों व विकासवादियों ने इस मुद्दे पर शुरू से ध्यान नहीं दिया। भले ही लोगों ने कुओं और धाराओं पर लिखा पर उसके पीछे के विज्ञान को लोकविज्ञान में परिवर्तित करने पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। भूजल विज्ञान की शुरू से अनदेखी की गई। धाराओं के सूखने के संकट पर पर तो किसी का ध्यान ही नहीं था। चिराग और पीएसआई जैसी संस्थाओं ने जब हमसे संपर्क किया और हमसे धाराओं पर काम करने का आग्रह किया तो हमारा ध्यान इस संकट की तरफ गया।  

हिमालय में काम के दौरान आपके क्या अनुभव रहे?

2005 से जब हमने हिमालय की धाराओं पर काम शुरू किया तो दो बातें उभरकर सामने आईं। पहला यह कि अकैडमिक संस्थानों ने इस विषय पर काम किया है लेकिन वह अकैडमिक तक ही सीमित था। जब तक विज्ञान को लोगों तक नहीं पहुंचाया जाता तब तक लोगों के मन में परिवर्तन नहीं आता। भूजल का विज्ञान ऐसे पानी पर है जो दिखाई नहीं देता। इसे दिखने योग्य बनाने के लिए कोई काम नहीं हुआ। दूसरा हमने देखा कि धाराओं पर निर्भरता बहुत अधिक है। बहुत से लोगों ने लिखा कि यह निर्भरता 60 प्रतिशत है लेकिन यह आंकड़ा भी कम लगता है। 2006-07 में हमने और लोगों ने समस्या को महसूस किया लेकिन नीतियों में इसे नहीं अपनाया गया।

सूख चुकी धाराओं को पुनर्जीवित करने में मूल चुनौतियां क्या हैं?

पहली चुनौती यह है कि धारा को पुनर्जीवित करने के लिए विज्ञान को विकसित करने की जरूरत है। इस काम में हम लगे हुए हैं। सभी राज्य विभिन्न सहयोगियों के साथ काम कर रहे हैं। दूसरी चुनौती यह है कि धारा को पुनर्जीवित करने के लिए मांग और आपूर्ति पक्ष पर ध्यान देने की जरूरत है। रिचार्ज कार्यक्रम चलाना पड़ता है। धारा विकास से स्प्रिंगशेड मैनेजमेंट उभरकर सामने आया। इस कार्यक्रम में बहुत निवेश करने की जरूरत नहीं थी। लेकिन 30 लाख धाराओं के लिए बहुत बड़े कार्यक्रम की जरूरत है। इस चुनौती से पार पाने के लिए बहुत सी संस्थाओं और राज्य सरकारों ने दिलचस्पी दिखाई है। नीति आयोग की रिपोर्ट को एक्शन एजेंडा में तब्दील करना बड़ी चुनौती है। यह भी सच है कि जब तक लोग पानी के प्रति अपना नजरिया नहीं बदलते, तब तक कुछ नहीं होने वाला। लोगों को जल के प्रति शिक्षित करने के लिए कार्यक्रम बहुत जरूरी है।

धाराओं के सूखने से नदियां किस तरह प्रभावित हुई हैं?

धाराएं जो सतह को पानी दे रही हैं, उसमें कमी आती है तो नदियों पर असर पड़ना स्वाभाविक है। नदी के मूल प्रवाह को धाराओं से पानी मिलता है। नदियों में भूमिगत जल आता है, यह विचार हमारे दिमाग में नहीं आता। अब भी नदी के जल योगदान में धाराओं के योगदान को मान्यता नहीं मिली है।
    
किस राज्य में धाराओं के सूखने का संकट सबसे अधिक है?

धाराएं तो सब जगह सूख रही हैं। हर जगह संकट के अलग-अलग रूप हैं। उत्तराखंड थोड़ा खुला है। वहां एनजीओ ज्यादा संख्या में काम कर रहे हैं। हमने कुछ समय पहले श्रीनगर में एक कार्याशाला आयोजित की थी। उसमें आए सभी लोगों ने उसमें बताया कि धाराएं सूख रही हैं। अब नीति आयोग की रिपोर्ट की वजह से थोड़ी जागरुकता आई है। लेकिन यह रिपोर्ट कार्यक्रम में कैसे बदलती है, यह अलग मुद्दा है।

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