क्या जमीन पर गिरा उठाकर खाना ठीक है? या फिर आप भी उन लोगों में से हैं जिन्हें हरदम हर तरह के जीवों से बीमारियों का डर सताता रहता है। लंबे समय से लोगों को यही बात समझाई गई है कि नीचे गिरी खाने की चीज को उठाना वैज्ञानिक रूप से सही है, बशर्ते वह फर्श पर पांच सेकंड से ज्यादा न पड़ी रही हो। लेकिन अब एक नए अध्ययन ने इस नियम पर यह कहते हुए सवाल खड़े कर दिए हैं कि अगर खाद्य पदार्थ में नमी है, जैसे बटर टोस्ट, तो हानिकारण जीवाणु एक सेकंड से भी कम समय में इसमें प्रवेश कर सकते हैं।
रटगर्स विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डोनाल्ड स्काफनर द्वारा किए इस अध्ययन में हालांकि इस बात की पड़ताल नहीं की गई है कि क्या वाकई जमीन पर गिरा खाना लोगों को बीमार कर सकता है। साफ-सफाई को लेकर लापरवाह कई लोग इस तरह का जोखिम उठा लेते हैं, जिससे बीमारी हो भी सकती है और नहीं भी। बहरहाल, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि गिरे हुए खाने को फेंक देना ज्यादा सुरक्षित है। यह बात ज्यादातर वयस्कों पर लागू होती है लेकिन क्या बच्चों को भी इसका पालन करना चाहिए? मजे की बात है कि ऐसा नहीं है। अगर आप साफ-सफाई के इस सिद्धांत का समर्थन करते हैं कि पश्चिमी देशों में ज्यादा साफ-सफाई की वजह से मनुष्य के आसपास सूक्ष्मजीवों की मौजूदगी घटी और इससे संक्रामक बीमारियों में कमी आई, तब यह भी मानना पड़ेगा कि एलर्जी जैसी शहरों में होने वाली बीमारियों में वृद्धि का कारण भी संभवत: यही साफ-सफाई है।
पहली बार 1989 में एक ब्रिटिश विशेषज्ञ (Epidemiologist) डेविड स्ट्रेचन ने यह अवधारणा प्रस्तुत की थी, जिसके पीछे मूल विचार काफी सरल है। नवजात शिशुओं में रोगों से लड़ने की क्षमता काफी कम होती है। इसलिए बाहरी दुनिया के खतरों से इनके प्रतिरक्षी तंत्र को बचाए रखने के लिए नवजात शिशुओं को जीवाणुओं के संपर्क में लाया जाना जरूरी है। इस मत का समर्थन करने वाले लोगों का दावा है कि इससे शिशुओं में रोगों से लड़ने की क्षमता मजबूत होती है, लेकिन कैसे? उन्हें मालूम नहीं। हाल में ऐसे मत सामने आए हैं जिनके अनुसार, शरीर में रोगों से लड़ने वाले दो तरह के अंगरक्षक होते हैं। अगर इनमें से एक ढंग से प्रशिक्षित न हो तो दूसरे अत्यधिक संवेदनशील हो जाते हैं और एलर्जी या रिएक्शन का कारण बनते हैं।
शुरू में यह अवधारणा सामान्य समझ के विपरीत प्रतीत हुई थी, लेकिन पिछले दो दशक में हुए अध्ययनों ने इसे वैधता दिलाने में मदद की है। विशेषज्ञ साबित कर चुके हैं कि जिन बच्चों का पालन-पोषण गांव-देहात यानी अपेक्षाकृत कम साफ-सुथरे माहौल में होता है, उनमें एलर्जी का खतरा शहरी बच्चों के मुकाबले कम रहता है। एक अध्ययन जिसका अक्सर जिक्र होता है, उसमें पाया गया कि अपेक्षाकृत गंदे पूर्वी जर्मनी में पले-बढ़े बच्चों में एलर्जी और दमा जैसी बीमारियों का खतरा साफ-सुथरे पश्चिमी जर्मनी में पले बच्चों से कम होता है। शोधकर्ता ऐसा ही संबंध विकासशील और विकसित देशों के बीच भी स्थापित कर चुके हैं। पिछले दो वर्षों में विशेषज्ञ इस अवधारणा को और अधिक स्पष्ट कर चुके हैं।
म्यूनिख के तकनीकी विश्वविद्यालय द्वारा चूहों पर किए एक शोध के अनुसार, अगर हानिरहित जीवाणुओं को आंतों में फैलने दिया जाए तो यह एलर्जी पैदा करने वाले कारकों के प्रति शरीर के रिएक्शन में कमी ला सकता है। इसी तरह फ्रांस में पाश्चर इंस्टीट्यूट का अध्ययन दिखाता है कि कैसे सूक्ष्मजीव प्रतिरोधक क्षमता को सकारात्मक ढ़ग से प्रभावित करते हैं। इस अवधारण पर अभी शोध जारी हैं, लेकिन इस तरफ लोगों का ध्यान खिंचने लगा है। टीकाकरण और एंटीबायोटिक दवाओं से बचने की बढ़ती इच्छा इस अवधारणा के बढ़ते समर्थन का संकेत है।
कई माताएं, जो किन्हीं कारणों से सामान्य ढंग से प्रसव नहीं कर पाती हैं, वे भी अपने शिशुओं को योनिक द्रव्य में नहलाना चाहती हैं। एक नई किताब ‘Let Them Eat Dirt’ बच्चों के लालन-पालन में अत्यधिक साफ-सफाई की सनक के खिलाफ तर्क देती है। बच्चों को किस हद से गंदगी से दूर रखना है और कितनी साफ-सफाई जरूरी है, इसे लेकर माता-पिता भी असमंजस में हैं। क्योंकि टीके और एंटीबायोटिक्स को नकारना जोखिम भरा साबित हो सकता है, फिर भी बच्चों को कम से कम धूल-मिट्टी में खेलने की छूट तो दी ही जा सकती है। कुल मिलाकर रोगों से लड़ने की क्षमता का जितना संबंध पोषक आहार, अच्छी नींद और बाकी चीजों से है, उतना ही संबंध सूक्ष्मजीवों से भी है। लेकिन यहां भी संतुलन बनाए रखना सबसे जरूरी है।
लेखक जाने-माने विज्ञान लेखक हैं।