कथा उबुंटु

उनका देश जो कभी उबुंटु के नाम से जाना जाता था, अब अग्बोगब्लोशि के नाम से दुनिया के सबसे बड़े इलेक्ट्रॉनिक कूड़ेदान में बदल चुका था।
कथा उबुंटु
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एक यूरोपीय दक्षिण अफ्रीका गया। उसने कुछ स्थानीय जुलू बच्चों को एक खेल खेलने को कहा। उसने एक टोकरी में कुछ मिठाइयां और टाफी लिए और उसे एक पेड़ के पास रख दिए और बच्चों को पेड़ से 100 मीटर दूर खड़ा कर दिया।

फिर उसने कहा कि, जो बच्चा सबसे पहले पहुंचेगा उसे टोकरी की सारी मिठाइयां और टाफी मिलेंगे।

उसने, रेडी-स्टीडी और गो कहा और देखने लगा की कौन सा बच्चा सबसे पहले पेड़ के पास पहुंचता है। पर यह क्या?

उसने देखा कि, सभी ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और एक साथ उस पेड़ की और दौड़ गए। फिर उन्होंने सारी मिठाइयां और टाफी आपस में बराबर-बराबर बांट लिए और मजे ले लेकर खाने लगे।
उस यूरोपीय को कतई अंदेशा नहीं था कि कुछ ऐसा होगा। उसने उन बच्चों से पूछा कि, “तुम लोगों ने ऐसा क्यों किया?”

उनमे से एक बच्चे ने भोलेपन से कहा—उबुंटु!

यूरोपीय ने पूछा, “उबुंटु ये उबुंटु क्या है?

एक बच्ची ने कहा, “हमको यह सिखाया है कि कोई एक व्यक्ति कैसे खुश रह सकता है जब दूसरे सभी दुखी हों। हमारे न्गुनी बांटू भाषा में उबुंटु का मतलब है—मैं हूं क्योंकि, हम हैं।

यूरोपीय ने अपने इस पूरे तजरबे को फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्सअप पर पोस्ट कर दिया। बस फिर क्या था, इस पोस्ट से पूरे यूरोप में खलबली मच गई। अमेरिका, रूस, हत्ता की विघटन के कगार पर खड़े यूरोपियन यूनियन के तमाम अर्थशास्त्रियों, समाजविदों में भी हड़कंप मच गया। सभी सोच में डूब गए थे कि आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि मानवता-भाईचारे और आपसी सौहार्द की जड़ें आज भी दुनिया के किसी हिस्से में इस कदर मजबूती से जमी हों?

कहां हुई भूल! कैसे हुई यह चूक!

आनन-फानन में सात गिरोहों, यानि जी-7 के नेता किसी सीक्रेट, बिल्डरबर्ग होटल में मिले। सभी चिंतामग्न थे कि इसी तरह लोग अगर आपसी भाईचारे की बात करेंगे तो ‘बाजार’ कैसे चलेगा? और काफी चिंतन-मनन के बाद एक पुख्ता प्लान तैयार किया गया।

सबसे पहले होरनांदे कारतेस, कोलंबस और फ्रांसिस्को पिजारो जैसे लुटेरों को दुनिया खोजने के नाम पर देशों को लूटने और कत्लेआम करने के लिए भेजा गया। इन लुटेरों के जहाज पर ‘भाईचारे’ का झंडा लहरा रहा था। तारीख गवाह है कि इन्होंने जिन-जिन देशों को ‘खोजा’, उन देशों की ज्यादातर आबादी खो गई। उनका नमोनिशां हमेशा के लिए इस दुनिया से मिट गया।

अब बारी थी अर्थशास्त्रियों और समाजविदों को भेजने की। सो अब दूसरे जहाज में मिल्टन फ्रीडमान जैसे महान अर्थशास्त्री की अगुआई में शिकागो स्कूल के अर्थशास्त्री उबुन्टु के देश में जा पहुंचे। उन्होंने लोगों को समझाया कि विकास और निजीकरण के बगैर सब बेकार है। और विकास की कुंजी केवल और केवल यूरोप के पास है।

इसी बीच एक तीसरा जहाज भी यूरोप से चल चुका था। इस जहाज पर यूरोप के देशों की सेनाएं थीं और इस जहाज पर ‘लोकतंत्र’ का झंडा लहरा रहा था। यह जहाज जहां भी जाता, एक तरफ तो पश्चिमी लोकतंत्र के पवित्र सन्देश का प्रसार करता और दूसरी तरफ किसी सैनिक तानाशाह को देश के तख्ते पर बैठा देता।

चौथे जहाज पर ‘समता’ का झंडा लगा था, जिसपर यूरोप के उद्योगपति और बैंकर सवार थे। सभी अपने उत्पादों को बेचने के लिए नए बाजार की खोज में निकले थे। साथ ही वह इस बात को लेकर भी परेशान थे कि उनके कारखानों के कचरे का क्या किया जाए?

लॉरेंस समर नामक एक अर्थशास्त्री ने उद्योगपतियों को कहा कि, “दोस्तों मेरा सुझाव है कि दुनिया के गरीब देश हमारे कारखानों के कचरों और हमारे औद्योगिक कबाड़ की जिम्मेदारी लें और हम उनके विकास की”। सर्वसम्मति से समर के इस प्रस्ताव को अपना लिया गया।

कहते हैं कि इसके बाद के दशकों में उबुंटु के देश को यूरोपीय देशों ने अपने कबाड़खाने में बदल दिया था। जहाजों में भर-भरकर यूरोपीय कारखानों के औद्योगिक कचरे और कबाड़, उबुंटु के देश में लाये जाते। इन कचरों और कबाड़ों के चलते धीरे-धीरे वहां की जमीन जहरीली हुई, भूगर्भ का पानी जहरीला हुआ, नदियां विषाक्त हुईं। इसके बाद अकाल पड़े और लोग अपने देश से पलायन करने लगे।

उन बच्चों का क्या हुआ जो कभी एक साथ किसी पेड़ के नीची रखी टाफी और मिठाइयों को लेने दौड़ पड़े थे?

वह गरीब से और गरीब होते चले गए। उनका देश जो कभी उबुंटु के नाम से जाना जाता था अब अग्बोगब्लोशी या दुनिया के सबसे बड़े इलेक्ट्रानिक कूड़ेदान में बदल चुका था। वहां अब बच्चे खेलते नहीं थे, बल्कि यूरोप से आये ई-वेस्ट यानी टूटे हुए कंप्यूटर, स्पीकर, प्रिंटर और मोबाईल फोन को जलाकर उससे निकले धातुओं को बेचते और उससे अपना गुजरा करते थे।

आखिरी बार उन बच्चों को अफ्रीका से यूरोप जाते एक रिफ्यूजियों के जहाज में देखा गया था, जो माल्टा द्वीप के पास उफनती लहरों में डूब गया था।

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