धरती पर इंसानों के भूतकाल, वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं पर डाउन टू अर्थ की एक खास सीरीज में अब तक आप पढ़ चुके हैं। मानव विकास की कहानी, आदिम से अब तक , मनुष्य की नौंवी प्रजाति हैं हम, यह है मानव विलुप्ति का ब्लूप्रिंट, “मानव विलुप्ति की नहीं पतन की संभावना” , क्या होगा मनुष्य का भविष्य, भविष्य में कितना बदल जाएगा मनुष्य का शरीर । अब पढ़ें, आगे-
विज्ञान और तकनीक के बढ़ते दखल से मनुष्य के जीवन में काफी बदलाव आया है। हम लगातार नई तकनीकें ईजाद कर रहे हैं। खासकर कृत्रिम बुद्धिमता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) की खोज ने तो मानव जीवन को जैसे एक नए दौर में पहुंचा दिया है। विज्ञान के बूते जहां हम लाखों साल पहले के अपने भूतकाल के बारे में जान पा रहे हैं, वहीं हम भविष्य के बारे में भी बहुत सी बातों की भविष्यवाणी कर पा रहे हैं। विज्ञान के बूते ही इंसान ने ऐसी मशीनें-तकनीकें बना दी हैं, जो इंसान की ही तरह काम करते हैं और अब तो इंसान की तरह सोचने भी लगे हैं।
लेकिन विज्ञान और तकनीक के बीच रह रहे नौंवी प्रजाति के मनुष्य यानी होमोसेपियंस का भविष्य क्या होगा? क्या यह विज्ञान और तकनीक ही मनुष्य की विलुप्ति का कारण बन जाएगी? या ‘जो पैदा हुआ है, उसे खत्म होना ही है’ क्या मनुष्य प्रकृति के इस नियम को झुठला देगा। डाउन टू अर्थ के इस वार्षिक विशेषांक के इस अध्याय में विज्ञान एवं तकनीक का मनुष्य के भविष्य पर पड़ने वाले असर के बारे में विश्लेषण करेंगे।
शुरुआत चौथी औद्योगिक क्रांति से करते हैं। आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस (एआई) के इस दौर को चौथी औद्योगिक क्रांति का नाम दिया गया है और मनुष्य के लिए यह दौर बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसी एआई के बल पर इंसान ने अपने जैसी बुद्धि वाली मशीनें या तकनीकें बना दी हैं। बल्कि कई मामलों में तो यह कृत्रिम दिमाग इंसानी दिमाग को भी पीछे छोड़ रहा है। वर्ष 1956 में हनोवर, न्यू हैम्पशायर स्थित डार्टमाउथ कालेज में चल रहे एक सम्मेलन में सबसे पहले आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस शब्द गढ़ा गया। परंतु तब तक इस शब्द को लेकर बहुत ज्यादा स्पष्टता नहीं थी। हालांकि इससे पहले अमेरिका में 1954 में जॉर्ज डीवॉल नाम के वैज्ञानिक ने सबसे पहला इंडस्ट्रियल रोबोट डिजाइन किया, जिसका नाम यूनिमेट रखा गया, जो इंसानों की तरह काम कर लेता था। 1959 में जनरल मोटर्स ने न्यू जर्सी के ट्रेंटॉन में एक डाइकास्टिग प्लांट में इसे इंस्टॉल किया गया। यूनिमेट ने 1961 से काम करना शुरू कर दिया।
इसके बाद कई देशों की सरकारों ने एआई पर शोध को लेकर रुचि दिखानी शुरू की। खासकर जापान ने इस दिशा में काफी प्रयास शुरू किए। लेकिन वांछित सफलता न मिलते देख कुछ देशों ने सरकारी फंडिंग से हाथ खींचने शुरू किए। बावजूद इसके कुछ संस्थान शोध में जुटे हुए थे। एआई के क्षेत्र में निर्णायक मोड़ तब आया, जब 1997 में आईबीएम के डीप ब्लू कंप्यूटर ने रूसी ग्रैंडमास्टर गैरी कास्परोव को हराया तो पूरी दुनिया चौंक गई। इसके बाद तो जैसे एआई क्षेत्र में रिसर्च करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। सरकारें भी फंडिंग करने लगी। इसके बाद लगातार एक से एक नई रिसर्च सामने आई। कई कंपनियों ने अपने-अपने रोबोट बनाने शुरू किए और कारखानों में रोबोट का इस्तेमाल बढ़ने लगा। जब कंप्यूटर अपनी कृत्रिम बुद्धि के बल पर एक के बाद एक पेशेवर इंसानों को हराने लगा तो इंसानों को हराने लगा तो वैज्ञानिकों की चिंता भी बढ़ने लगी। उनमें यह बहस छिड़ गई कि क्या एक दिन यही एआई हमारे विनाश या विलुप्ति का कारण तो नहीं बन जाएगा?
स्टीफन हॉकिंग जैसे वैज्ञानिक ने जब यह बात कही तो पूरी दुनिया का ध्यान इस ओर गया। स्टीफन भौतिक विज्ञानी के साथ-साथ ब्रह्मण्ड विज्ञानी भी थे। वह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में सैद्धांतिक ब्रह्मांड विज्ञान केंद्र के शोध निदेशक थे। उन्होंने बीबीसी को दिए अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि आने वाले सालों में रोबोट तकनीक एक स्वाचालित सभ्यता बन जाएगी और मनुष्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेगी। पूरी तरह विकसित आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस मानव जाति की विनाश कथा लिख सकती है। प्रोफेसर हॉकिंग ने कहा था, “कृत्रिम बुद्धिमता एक दिन अपना नियंत्रण अपने हाथ में ले लेगा और फिर खुद को नए सिरे से तैयार करेगा, जो हमेशा बहुत तेजी से बढ़ता जाएगा। चूंकि इंसान का जैविक विकास धीमी गति से होता है, इसलिए वह प्रतियोगिता नहीं कर पाएगा और पिछड़ जाएगा।” उन्होंने चेताया था कि एआई को विकसित करने के साथ-साथ हमें इससे जुड़े खतरों के बारे में भी लगातार सचेत रहना होगा।
अक्टूबर 2016 में साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित एक शोध “स्टिफलिंग आर्टिफिशएल इंटेलीजेंस: ह्यूमन पेरिल्स” में िलखा गया कि अक्टूबर 2015 में, “अल्फागो” नामक एक सॉफ्टवेयर ने एक पेशेवर “गो” खिलाड़ी को हराया तो यह जीत गैरी कास्पारोव पर जीत से भी बड़ी जीत थी और अल्फागो की जीत को एआई की क्षमताओं का सबसे महत्वपूर्ण प्रदर्शन मान लिया गया, क्योंकि चीन का कार्डबोर्ड गेम “गो” एक बेहद पेचीदी रणनीति वाला खेल है। “गो” मानव जाति द्वारा आविष्कार किए गए सबसे जटिल रणनीति खेलों में से एक है। ऐसे मिथक हैं जो इंगित करते हैं कि प्राचीन राजाओं ने युद्ध के मैदान में अपनी सेनाओं के बीच शांति से संघर्ष को सुलझाने के लिए “गो” खेला था। लेकिन उस खेल के महारथी को जब कंप्यूटर ने हराया तो इससे यह कहा जाने लगा कि एआई उन चीजों में हमसे आगे निकलने लगा है, जिसमें सफलता रणनीति और गणना पर निर्भर है। इस अध्ययन में लेखकों ने एआई के इस्तेमाल को लेकर एक कानून बनाने की वकालत की है, ताकि हमें ‘दुष्ट रोबोट’ के हाथों विलुप्त होने से बचने में मदद मिल सके।
एआई के बढ़ते प्रभाव के कारण वर्तमान में जहां नौकरियां जाने का खतरा बढ़ता जा रहा है, वहीं यह भी कयास लगाया जा रहा है कि कृत्रिम बुद्धिमता का इस्तेमाल सीमित नहीं किया गया तो इसका गलत इस्तेमाल भी हो सकता है। खासकर आपराधिक गतिविधियों में इसका इस्तेमाल होने से इंसान के लिए ही खतरा बन जाएगा। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग के प्रोफेसर एवं जेम्स मार्टिन 21वीं सेंचुरी स्कूल के प्राध्यापक निक बॉस्ट्रॉम अपने एक पेपर में लिखते हैं कि एआई से जुड़ी एक तकनीकी विलक्षणता का विचार पहली बार 1965 में सांख्यिकीविद् आईजे गुड द्वारा स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया था। गुड ने कहा था कि एक ऐसी अल्ट्रा-इंटेलिजेंट मशीन जो किसी भी व्यक्ति की सभी बौद्धिक गतिविधियों को पार कर देगी और अपनी जैसी बौद्धिक क्षमता वाली और भी मशीनों को डिजाइन कर सकेगी, तब निस्संदेह एक ‘बौद्धिक विस्फोट’ होगा और मनुष्य की बुद्धि बहुत पीछे छूट जाएगी। इसी पेपर में निक बॉस्ट्राम ने गणितज्ञ और विज्ञान कथा लेखक वर्नर विंग का जिक्र करते हुए कहा है कि उन्होंने अपने 1993 के लेख ‘द कमिंग टेक्नोलॉजिकल सिंगुलैरिटी’ में गुड की भविष्यवाणी पर सहमति जताते हुए कहा कि आने वाले वर्षों में हमारे पास अलौकिक बुद्धि पैदा करने के तकनीकी साधन होंगे। इसके तुरंत बाद मानव युग समाप्त हो जाएगा।
हालांकि विश्व की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसाफ्ट के शोध विभाग के प्रमुख एरिक हॉर्विट्ज इन आशंकाओं को खारिज कर चुके हैं। हॉर्विट्ज ने कहा था कि चिंता जताई जा रही है कि आगे चलकर हम एआई से अपना नियंत्रण खो देंगे, लेकिन मेरा बुनियादी रूप से मानना है कि ऐसा नहीं होने वाला है। मुझे लगता है कि हम एआई से मुकाबले को लेकर बहुत अधिक सक्रिय हो जाएंगे और अंत में हम एआई से असाधारण फायदे लेने में सक्षम होंगे। यहां तक कि विज्ञान से लेकर शिक्षा और अर्थशास्त्र जैसे क्षेत्रों में भी एआई का फायदा लेंगे। माइक्रोसाफ्ट की रिसर्च लैब में ही कार्टाना को बनाया गया था। इसके जरिए आप अपने माइक्रोसाफ्ट फोन को बोल कर किसी काम को करने का निर्देश दे सकते हैं। कार्टाना एक वर्चुअल असिस्टेंट के तौर पर काम करता है। यहां यह दिलचस्प बात है कि माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स विभिन्न मंचों पर एआई के भविष्य के खतरों को लेकर अपनी चिंता जगजाहिर कर चुके हैं।
साइबोर्ग बन जाएगा मानव
मान लीजिए कि अगर हॉर्विट्ज की बात सही रहती है तो फिर मनुष्य का भविष्य कैसे रहेगा? कई वैज्ञानिकों ने संभावना जताई है कि मनुष्य “साइबोर्ग” बन जाएगा। आखिर यह साइबोर्ग क्या है? साइबोर्ग से आशय ऐसे इंसानों से है, जिनके शरीर के अंदर कई तरह की मशीनों के साथ-साथ ब्रेन चिप भी लगी होंगी। जिनकी मदद से इंसान की शारीरिक और मानसिक ताकत कई गुना अधिक बढ़ जाएगी। टेस्ला और स्पेसएक्स कंपनियों के संस्थापक एलन मस्क का भी कहना है कि आने वाले भविष्य में एआई से इंसानों को होने वाले खतरे से निपटने में साइबोर्ग बहुत कारगर सिद्ध होगा। बल्कि इंसानों को अपना भविष्य बचाने के लिए साइबोर्ग बनना पड़ेगा। यही वजह है कि मस्क की निजी कंपनी ‘न्यूरालिंक’ साइबोर्ग जैसी प्रौद्योगिकी को मजबूत करने के लिए पिछले कई सालों से विभिन्न खोजों को अंजाम दे रही है। ह्यूमन कंप्यूटर इंटरफेस कंपनी न्यूरालिंक से कंप्यूटर विज्ञानियों के साथ-साथ मानव विज्ञानी भी जुड़े हुए हैं। ये वैज्ञानिक एक खास तरह की चिप बना रहे हैं, जो कि सीधे मनुष्य के मस्तिष्क के न्यूरल नेटवर्क से जुड़े होंगे। अभी बंदरों पर यह प्रयोग चल रहा है।
लेकिन क्या साइबोर्ग कभी नहीं मरेंगे? इसको लेकर अभी बहुत ज्यादा स्पष्टता नहीं है। बल्कि दुनिया के सबसे पहले पूर्ण साइबोर्ग की मृत्यु के बाद यह सवाल जोर-शोर से उठने लगा है। ब्रिटेन के वैज्ञानिक पीटर स्कॉट-मोर्गन को पहला पूर्ण साइबोर्ग कहा जाता है। 2017 में जब पीटर को मोटर न्यूरोन बीमारी के बारे में पता चला तो उन्होंने बीमारी से मरने की बजाय साइबोर्ग बनने का फैसला लिया। उन्हें बताया गया कि इस बीमारी से वह अधिक से अधिक दो साल जीवित रह पाएंगे। लेकिन उन्होंने मरने की बजाय खुद को रोबोट बनाने का फैसला लिया। उनके लिए एम अवतार सिस्टम तैयार किया गया। शरीर को एक खास व्हीलचेयर से जोड़ दिया गया। जो उन्हें खड़ा भी कर सकती थी और लेटा भी सकती थी। आंख की पुतलियों की जगह कंप्यूटर विजन लगाया गया। कृत्रिम मांसपेशियां लगाई गई। गले में वायस बॉक्स निकालकर लेरिन्क्स लगाया और उनकी पूर्व रिकार्डेड आवाज से ही बोली तैयार की गई थी। इस तरह से वह पूरी तरह से एक डिजिटल शरीर बन गए थे। और उन्होंने खुद का नाम पीटर 2.0 घोषित कर दिया। इस तरह वह लगभग पांच साल जिए और 15 जून 2022 को 64 साल की उम्र में उनके निधन की घोषणा की। हालांकि एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पीटर की मौत के ठीक तीन महीने बाद द स्कॉट मॉर्गन फाउंडेशन ने एक टि्वट कर जानकारी दी कि पीटर की मुहिम को जारी रखा जाए। ऐसे में यह देखना अभी शेष है कि यह फाउंडेशन इसे आगे कैसे जारी रखता है।
बेशक पीटर पूर्ण साइबोर्ग थे, लेकिन 1997 में फिलिप कैनेडी नाम के एक वैज्ञानिक और चिकित्सक ने वियतनाम के एक व्यक्ति को दुनिया का पहला मानव साइबोर्ग बनाया था। जॉनी रे नामक इस व्यक्ति को स्ट्रोक की वजह से पूरी शरीर काम नहीं कर पा रहा था। कैनेडी ने रे के मस्तिष्क के हिस्से के पास एक इम्प्लांट (जिसे “न्यूरोट्रॉफिक इलेक्ट्रोड” नाम दिया गया) लगाया, ताकि रे अपने शरीर में कुछ गति वापस कर सके। सर्जरी सफलतापूर्वक हुई, लेकिन 2002 में जॉनी रे की मृत्यु हो गई। ऐसे में अब तक जो संकेत मिले हैं, उससे तो यही लगता है कि साइबोर्ग बनके मौत को टाला जा सकता है, लेकिन कितने सालों तक इस पर रिसर्च का काम जारी है। संभवतया मस्क जैसे अरबपति इस दिशा में जल्द ही कोई चमत्कारिक खोज लेकर सामने आएंगे, लेकिन यह तो माना ही जा रहा है कि यह तकनीक इतनी महंगी होगी कि सब लोग साइबोर्ग नहीं बन पाएंगे, इसलिए कुछ बड़े पैसे वाले लोग ही साइबोर्ग की दुनिया में प्रवेश कर पाएंगे।
अमर हो जाएगा इंसान?
क्या इंसान अमर हो जाएगा? यानी कि क्या चिकित्सा विज्ञान इतनी तरक्की कर लेगा कि मनुष्य की कभी मौत ही नहीं होगी? अभी सुनने में यह बेहद अजीब लगता है, लेकिन इसके पीछे कई वैज्ञानिक तर्क भी दिए जा रहे हैं। जैसे कि हमारा चिकित्सा विज्ञान निरंतर अपने शोध और अनुभव के बूते एक से लाइलाज बीमारियों का इलाज ढूंढ़ कर मौत को लगातार पीछे धकेल रहा है। वैसे तो यह प्रक्रिया बहुत पहले ही शुरू हो गई थी। जैसे-जैसे हमारे आहार में अनाज और डेयरी को शामिल किया गया, हमने स्टार्च और दूध को पचाने में मदद करने के लिए जीन विकसित किए। जब शहरों में बीमारियां फैलने लगी तो चिकित्सा विज्ञानियों ने रोग प्रतिरोधक क्षमता के उपाय तैयार किए। पिछली दो शताब्दियों में बेहतर पोषण, दवा और स्वच्छता ने अधिकांश विकसित देशों में युवा मृत्यु दर को एक फीसदी से भी कम कर दिया, जबकि जीवन प्रत्याशा दुनिया भर में 70 साल और विकसित देशों में 80 साल तक बढ़ गई, लेकिन क्या हमारा चिकित्सा विज्ञान इतनी तरक्की कर सकता है कि मनुष्य की मौत ही न हो। इसको लेकर वैज्ञानिक अलग-अलग बातें करते हैं।
मृत्यु के तीन मुख्य कारण हैं: उम्र बढ़ना, बीमारी और चोट। अगर उम्र की बात करें तो एक लंबी उम्र के बाद मनुष्य बूढ़ा होकर मर जाता है, लेकिन अगर मनुष्य को अनिश्चित काल तक जीना है तो उसे अपने शरीर की उम्र को बढ़ने से रोकना होगा। दुनिया में कई ऐसे जीव हैं, जिनकी उम्र नहीं होती। क्या ऐसा ही मनुष्य के साथ संभव है? वैज्ञानिकों ने इस दिशा में खोज शुरू की। हाइड्रा ऐसा ही जीव है, जिसकी मृत्यु नहीं होती। लाइव साइंस नामक एक वेव पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में जलीय जीव हाइड्रा की अधिक आयु के कारणों की खोज करने वाले कैलिफोर्निया के क्लेरमोंट में पोमोना कॉलेज में जीव विज्ञान के प्रोफेसर डैनियल मार्टिनेज कहते हैं कि 0.4 इंच (10 मिलीमीटर) लंबे, हाइड्रा छोटे होते हैं और उनमें अंग नहीं होते हैं, लेकिन यह हमारे लिए असंभव है, क्योंकि हमारे शरीर सुपर कॉम्प्लेक्स हैं। मनुष्य के पास स्टेम सेल होते हैं जो शरीर के कुछ हिस्सों की मरम्मत कर सकते हैं और यहां तक कि उन्हें फिर से विकसित भी कर सकते हैं, जैसे कि यकृत में, लेकिन मानव शरीर लगभग पूरी तरह से इन कोशिकाओं से नहीं बना है, जैसे हाइड्रा हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्यों को नई कोशिकाएं बनाने के अलावा अन्य काम करने के लिए कोशिकाओं की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, हमारी लाल रक्त कोशिकाएं पूरे शरीर में ऑक्सीजन का परिवहन करती हैं। मार्टिनेज कहते हैं कि हम हाइड्रा जैसी अपनी पुरानी कोशिकाओं को त्याग नहीं सकते, क्योंकि हमें उनकी आवश्यकता है। इतना ही नहीं, नवंबर 2017 में प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज नामक पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में एक गणितीय समीकरण के माध्यम से कहा गया कि बहुकोशिकीय जीवों में उम्र बढ़ने को रोकना असंभव है, जिसमें मनुष्य भी शामिल है। अध्ययन के प्रमुख लेखक पॉल नेल्सन कहते हैं, “जैसे-जैसे आपकी उम्र बढ़ती है, आपकी अधिकांश कोशिकाएं सिकुड़ती जाती हैं और काम करना बंद कर देती हैं, और वे बढ़ना भी बंद कर देती हैं।”
तो क्या दूसरे ग्रह पर चले जाएंगे हम
अगर हम अमर नहीं होंगे तो क्या हम यानी मनुष्य दूसरे ग्रह पर चले जाएंगे। वैज्ञानिक लगातार इस बात की खोज कर रहे हैं कि क्या दूसरे ग्रहों पर भी मनुष्य का जीवन संभव है। चांद तक पहुंचने की बात तो हम लंबे समय से कर रहे हैं, लेकिन अब चांद के अलावा मंगल पर भी जीवन की तलाश की जा रही है। वैज्ञानिक अध्ययनों में बताया जाता है कि मंगल के वायुमंडल में 96 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड है और धरती की तरह ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन न होने के कारण वहां तापमान बहुत कम है। वहां के वायुमंडल में 78 प्रतिशत ऑक्सीजन है, इसलिए यदि इंसान को शुद्ध ऑक्सीजन चाहिए तो उसे मंगल की ओर जाना होगा। लेकिन अगर इंसानों को मंगल पर रहना है तो वहां का तापमान बढ़ाना होगा। वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने कहा था कि पृथ्वी वासियों को सुरक्षित बने रहने के लिए किसी दूसरे ग्रह पर अपना डेरा डालना होगा।
अमेरिकी अंतरिक्ष नासा का सबसे आधुनिकतम रोवर पर्सिवियरेंस मंगल ग्रह में जीवन ढूंढ़ने का काम कर रहा है। 19 सितंबर 2022 को खबर आई कि रोवर ने मंगल पर चट्टान के नमूनों का एक विविध सेट इकट्ठा किया है जिसे वह जल्द ही सतह पर जमा कर देगा, बाद के मिशनों द्वारा पृथ्वी पर ले जाने का इंतजाम किया जाएगा। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि मंगल का प्राचीन इतिहास अब “अद्भुत” रॉक नमूनों में दर्ज है, जिन्हें अगले कुछ महीनों में “डिपो” में रखा जाएगा। मुंबई स्थित इंडियन एस्ट्रोबायोलॉजी रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख वैज्ञानिक पुष्कर गणेश वैद्य ने पिछले दिनों डाउन टू अर्थ से कहा था कि सूक्ष्म जीव चट्टानों के जरिए एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर जा सकते हैं।
इस प्रक्रिया को ट्रांसपर्मिया कहते हैं। ऐसा कुछ पर्सिवियरेंस रोवर के जरिए खोजा जाता है तो यह एक अच्छी खबर होगी, क्योंकि इससे एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर जीवन के जाने की अवधारणा की पुष्टि होगी। इसका यह भी मतलब होगा कि दूसरे सौर ग्रहों पर जीवन की संभावना है। एलन मस्क तो 2016 में ही मंगल ग्रह पर इंसानों का शहर बसाने की अपनी योजना दुनिया के सामने रख चुके हैं। मस्क के अलावा दुनिया के कई अमीर लोग भी अंतरिक्ष में पर्यटन शुरू करने की दिलचस्पी दिखा चुके हैं। लेकिन मस्क स्पेस स्टेशन और उसके आगे मंगल तक पहुंचने का सपना देख रहे हैं। हालांकि यहां भी यही सवाल उठता है कि यदि पृथ्वी पर विपदा आई तो कितने लोग मंगल, चांद या किसी ओर ग्रह तक पहुंच पाएंगे?
एलियंस का होगा कब्जा
जब हम पृथ्वी वासी इस फिराक में हैं कि किसी दूसरे ग्रह में जीवन संभव होने पर वहां रहना शुरू कर दिया जाए तो क्या यह भी संभव नहीं कि किसी दूसरे ग्रह में जीवन हो और वे लोग भी पृथ्वी की तलाश कर रहे हों और जिस दिन उन्हें पृथ्वी मिल जाए तो वे यहां आकर रहने लगे। स्टीफन हॉकिंग तो ऐसी ही संभावना जता कर पूरी दुनिया को डरा भी चुके हैं। हॉकिंग कहते हैं कि यह संभव है कि दूसरे ग्रह में रह रहे जीव जिन्हें हम एलियंस कहते हैं धरती पर आक्रमण कर दें और हमें अपना गुलाम बना लें।
खगोल विज्ञानी और विज्ञान इतिहासकार स्टीवन डिक भी कहते हैं कि अभी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि दूसरे ग्रह के प्राणी हमसे मिल कर क्या प्रतिक्रिया दें। जरूरी नहीं कि वे भी इंसानों की तरह शांतिप्रिय हों या हमसे किसी सहयोग की अपेक्षा करें। ऐसे में हो सकता है कि पृथ्वी पर एलियंस का कब्जा हो जाए। हालांकि अब तक एलियंस को प्रत्यक्ष तौर पर किसी ने नहीं देखा है। दावा जरूर किया गया है, लेकिन पुख्ता साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। नासा के पूर्व वैज्ञानिक जिम ग्रीन ने हाल ही में बीबीसी को दिए अपने इंटरव्यू में कहा था कि अगले कुछ सालों में इंसान की मुलाकात एलियंस से होगी, क्योंकि पिछले साल दिसंबर में नासा ने जेम्स वेब टेलीस्कोप को अंतरिक्ष में लांच किया था, जिसकी मदद से वैज्ञानिक उन ग्रहों और तारों तक पहुंच जाएंगे, जिनके बारे में अब तक बहुत अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। सर्च फॉर एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल इंटेलिजेंस नाम की एक संस्था कई सालों से इस सवाल का जवाब तलाश रही है कि अगर एलियंस हैं तो वे धरतीवासियों से संपर्क क्यों नहीं कर पा रहे हैं। इस संस्था के अब तक के अध्ययन बताते हैं कि ब्रह्मांड में एलियंस नहीं हैं। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय फ्यूचर ऑफ ह्यूमिनिटी इंस्टीट्यूट के तीन शोधकर्ताओं की रिसर्च “डिजॉल्विंग द फर्मी पैराडॉक्स” में कहा गया है कि इंसान ही पूरे ब्रह्मांड में ऐसा प्राणी है, जो जीवित और बुद्धिवान हैं।
ऐसे में, यह तो माना ही जाना चाहिए कि यदि प्राकृतिक कारणों से मनुष्य की विलुप्ति नहीं होती है तो होमोसेपियंस की इस प्रजाति के विकास या विलुप्ति के लिए तकनीक व विज्ञान जिम्मेवार जरूर होंगे, लेकिन मानवता या इंसानियत बरकरार नहीं रह पाएगी और समाज के गरीब तबके को भी तकनीक का पूरा लाभ नहीं मिल पाएगा। या हो सकता है कि उन्हें विलुप्त होने के लिए छोड़ दिया जाएगा।