तिब्बत के नीचे महाद्वीपीय प्लेटें कहां टकराती हैं तथा क्या हो सकता है असर

वैज्ञानिकों 225 गर्म झरनों या हॉट स्प्रिंग्स से भू-रासायनिक आंकड़ों का उपयोग करते हुए सतह के नीचे होने वाली प्रक्रियाओं का पता लगाया है।
फोटो : स्टैनफोर्ड स्कूल ऑफ अर्थ, दक्षिणी तिब्बत के मांगरा इलाके में 10 एकड़ में  फैले भू-तापीय क्षेत्र में फैले दर्जन में से एक का चित्र जिसमें पानी लगातार उबल रहा है
फोटो : स्टैनफोर्ड स्कूल ऑफ अर्थ, दक्षिणी तिब्बत के मांगरा इलाके में 10 एकड़ में फैले भू-तापीय क्षेत्र में फैले दर्जन में से एक का चित्र जिसमें पानी लगातार उबल रहा है
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भारतीय और एशियाई महाद्वीपीय पहाड़ो के निर्माण करने वाली प्लेटें दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे ऊंची भूगर्भीय संरचनाओं में से एक हैं। ये प्लेटें हिमालय पर्वत और तिब्बती पठार के निर्माण करने के लिए अतीत में आपस में टकराई और इनका टकराना आज भी जारी है।

इन संरचनाओं के महत्व के बावजूद, जो वायुमंडलीय प्रसार और मौसमी मानसून के माध्यम से वैश्विक जलवायु को प्रभावित करते हैं। विशेषज्ञों ने एक दूसरे के विपरीत सिद्धांतों का प्रस्ताव दिया है कि कैसे सतह के नीचे टेक्टोनिक प्लेटों ने विशाल संरचना तैयार की। अब वैज्ञानिकों 225 गर्म झरनों या हॉट स्प्रिंग्स से भू-रासायनिक आंकड़ों का उपयोग करते हुए सतह के नीचे होने वाली प्रक्रियाओं का पता लगाया है। वैज्ञानिकों ने इसी आधार पर भारतीय और एशियाई महाद्वीपीय प्लेटों के बीच की सीमा का मानचित्रण किया है।

अध्ययनकर्ता साइमन क्लेम्परर ने कहा, भू-वैज्ञानिकों के बीच एक प्रमुख बहस यह है कि महाद्वीपीय टकराव समुद्री टकराव की होता है या नहीं। क्योंकि इसके बारे में बहुत कम जानकारी है, यही कारण है कि हमने चीजों को मापने के लिए भू-रसायन को पूरी तरह से अलग तरीके से लिया। क्लेम्परर स्टैनफोर्ड स्कूल ऑफ अर्थ, एनर्जी एंड एनवायरनमेंटल साइंसेज (स्टैनफोर्ड अर्थ) में भू-भौतिकी के प्रोफेसर हैं।

क्लेम्परर ने अपने सिद्धांत को सिद्ध करने हेतु नमूने एकत्र किए। इसके लिए उन्होंने तिब्बत और भारत में एक दशक से अधिक का समय बिताया। उन्होंने बताया कि सतह पर बुदबुदाती रसायनों का उपयोग यह समझने के लिए किया जा सकता है कि पहाड़ के 50 मील नीचे क्या हो रहा है। उन्होंने और उनके सहयोगियों ने पश्चिमी अमेरिका और कनाडा से मैक्सिको की दूरी के बारे में पहाड़ों और पठारों में सैकड़ों मील के दूरस्थ भू-तापीय झरनों का पता लगाया।

अध्ययनकर्ताओं ने निर्धारित किया कि प्रत्येक महाद्वीपीय प्लेट से कौन से स्प्रिंग्स उत्पन्न हुए इसके लिए उन्होंने हीलियम गैस का उपयोग किया। इसका उपयोग इसलिए किया गया क्योंकि हीलियम अन्य रसायनों के साथ प्रतिक्रिया नहीं करती है। एशियन प्लेट में हीलियम आइसोटोप के संकेत तब सामने आए जब गैस गर्म मेंटल से आई थी। जबकि एक अलग संकेत ने ज्यादा ठंडी भारतीय प्लेट की जानकारी दी।

शोध से पता चलता है कि ठंडी प्लेट केवल दक्षिण में, हिमालय के नीचे पाई जाती है, जबकि आगे उत्तर में, भारत अब इसके ऊपर तिब्बत को नहीं छू रहा है। यह तिब्बत से गर्म मेंटल की एक कील द्वारा अलग किया गया है। परिणाम बताते हैं कि एक पुराना सिद्धांत भारतीय प्लेट तिब्बत के नीचे सपाट है, अब यह मान्य नहीं है।

क्लेम्पर ने बताया कि यह आश्चर्यजनक है कि अब हमारे पास यह उल्लेखनीय रूप से अच्छी तरह से परिभाषित सीमा है जो एक प्लेट की सीमा के ऊपर की सतह पर कुछ किलोमीटर चौड़ी है जो कि 100 किलोमीटर गहरी है।

महाद्वीपीय टकराव के आधार पर शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि समुद्र के स्तर पर दो महाद्वीपों को एक साथ तब तक खींच लिया जब तक कि वे टकरा नहीं गए। जिससे पर्वत निर्माण के लिए सबडक्शन या प्लेटों के टकराने का क्षेत्र बंद हो गया। तिब्बत के नीचे महाद्वीपीय सीमा का यह प्रमाण इस संभावना का परिचय देता है कि महाद्वीपीय क्रस्ट तरल पदार्थ छोड़ रहा है और पिघल रहा है, ठीक उसी तरह जैसे समुद्री सबडक्शन में होता है।

1960 के दशक में, प्लेट टेक्टोनिक्स के सिद्धांत ने यह समझाकर पृथ्वी विज्ञान में क्रांति ला दी कि कैसे भूगर्भिक प्लेटें अलग-अलग और एक-दूसरे के ऊपर चढ़ती हैं, जिससे पहाड़ का निर्माण, ज्वालामुखी विस्फोट और भूकंप आते हैं। लेकिन शोधकर्ता इस बारे में बहुत कम जानते हैं कि प्लेटें जिस तरह से घूमती हैं, वे इस तरह क्यों घूमती हैं।

क्लेम्परर ने कहा कि नए निष्कर्ष प्लेट टेक्टोनिक्स को चलाने वाले तेजी से गर्म होकर ठंडे होने (संवहन) को नियंत्रित करने वाले संभावित प्रभावों के साथ समझ का एक महत्वपूर्ण तत्व को जोड़ते हैं। उन्होंने कहा भले ही यह एक महाद्वीपीय टक्कर है, भारतीय प्लेट के घूमने से संवहन के पैटर्न को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। यह हमारे समझने के तरीके को बदल देता है कि पृथ्वी पर तत्वों और चट्टानों के प्रकारों को कैसे वितरित और पुन: वितरित किया जाता है।

अध्ययन पिछले शोध पर आधारित है जिसमें क्लेम्परर और उनके सहयोगियों ने भूकंपीय आंकड़ों का उपयोग करते हुए हिमालय के टकराव क्षेत्र की छवि बनाई और पाया कि जैसे ही भारतीय टेक्टोनिक प्लेट दक्षिण से घूमती हैं, प्लेट का सबसे मोटा और सबसे मजबूत हिस्सा तिब्बती पठार के नीचे झुक जाता है और भारतीय प्लेट पर वाष्प का कारण बनता है। वाष्प उसी स्थान पर थी जहां गर्म झरनों में हीलियम का प्रवाह होता है।

क्लेम्पर ने कहा हम इन विभिन्न लेंसों के माध्यम से समान प्रक्रियाओं को देख रहे हैं और हमें यह पता लगाना है कि उन्हें एक साथ कैसे रखा जाए।

खनिज की तलाश

जब से स्पेनियों ने सोने की तलाश में दक्षिण अमेरिका पर विजय प्राप्त की है, सभ्यताओं ने एंडीज पर्वत जैसे स्थानों में समृद्ध खनिज भंडार के बारे में जाना है, जो रिंग ऑफ फायर का हिस्सा हैं। दक्षिणी तिब्बत को हाल ही में एक समृद्ध खनिज प्रांत के रूप में भी पहचाना गया है, जिसमें सोना, तांबा, सीसा, जस्ता और अन्य खनिज जमा हैं, जिन्हें महाद्वीपीय टकराव के केवल पुराने मॉडल का उपयोग करके समझाना मुश्किल है।

क्लेम्परर ने कहा ग्रेनाइट में सबसे बड़ा तांबा जमा होता है जो गर्म मेंटल वेज के पिघलने से उत्पन्न होता है। जो कि महाद्वीपीय टकराव में नहीं होना चाहिए यदि यह पुराने मॉडल की तरह दिखता है, लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा हुआ क्योंकि हमारे पास तिब्बत में ये सभी खनिज हैं। हमारा काम हमें महाद्वीपीय टकराव के बड़े पैमाने पर टेक्टोनिक के बारे में बताता है और सुझाव देता है कि हम महाद्वीपीय-टकराव के वातावरण में उसी तरह के खनिज जमा होने की उम्मीद कर सकते हैं जैसे कि समुद्री वातावरण में होता है।

हमारी धरती पर एकमात्र सक्रिय महाद्वीपीय टकराव के रूप में, हिमालय और तिब्बत भी इस बात की एक झलक पेश करते हैं कि कैसे अन्य पर्वत श्रृंखलाएं अतीत में बनी और भविष्य में कैसे बन सकती हैं।

क्लेम्पर ने कहा कि ऑस्ट्रेलिया अभी इंडोनेशियाई ब्लॉक से टकराना शुरू कर रहा है, यही महाद्वीपीय टक्कर होने लगी है। तिब्बत एक उदाहरण है जिसे हल किया जाना है। यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुआ है।

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