भारत ने आर्टेमिस संधि पर अन्य कई दशों के साथ मिलकर हस्ताक्षर किए हैं। यह संधि बाध्यकारी है या फिर देशों को नए तरह के प्रयोगों के लिए प्रेरित करेगी। दरअसल ग्रहीय संसाधनों पर केंद्रित इस संधि में अभी बहुत कुछ शुरुआती दौर में है। यह भी चिंता है कि विकसित और बड़े देश क्या इस संधि का अनुपालन करेंगे? वहीं, दूसरे ग्रहों पर मौजूद कीमती खनिजों की खोज और उन पर दावा कैसे किया जाएगा और उन्हें बाजार तक उत्पाद के तौर पर कैसे लाया जाएगा? संधि करने वाले देशों के बीच यह पक्ष अभी धुंधला है। इन तमाम अनसुलझे सवालों को जानने के लिए रोहिणी कृष्णमूर्ति ने बाहरी अंतरिक्ष की अंतरराष्ट्रीय कानून विशेषज्ञ डॉ. रंजना कौल से बातचीत की: -
क्या आर्टेमिस संधि से भारत की स्थिति में बदलाव आएगा ?
आर्टेमिस संधि हमारे चंद्रमा और अंतरिक्ष कार्यक्रम पर कोई प्रभाव नहीं डालेगा। मैं मान रही हूं कि भारत द्वारा आर्टेमिस संधि में शामिल होने का फैसला सावधानीपूर्वक विचार करने व पूरे मामले की जियो पॉलिटिक्स को ध्यान में रखते हुए लिया गया होगा, यानी भारत के लिए इस बहुपक्षीय प्रयास में शामिल होना फायदेमंद है, जो भविष्य में व्यावसायिक उद्देश्यों और अन्य नागरिक उद्देश्यों के लिए ग्रह के संसाधन की निकासी का कार्य करेगा। अभी तो शुरुआती दिन हैं। आर्टेमिस संधि पर भारत समेत 28 देशों ने हस्ताक्षर किये हैं और नासा के मुताबिक चंद्रमा और मंगल ग्रह पर अंतरिक्ष खोज के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की ओर यह पहला कदम है। हस्ताक्षर करने वाले हर मुल्क के साथ कानूनी तौर पर गैर बाध्यतामूलक समझौता है और यह एक संधि है।
इसके दस्तावेज में सबकुछ सरल लहजे में बताया गया है। इसरो व नासा के बीच भविष्य में किस तरह का सहयोग होगा, ये देखने वाली बात होगी। लेकिन, इस वक्त हम समझौते पर ही केंद्रित रहें। अतः आर्टेमिस संधि नागरिक अंतरिक्ष संसाधन की खोज के लिए है। संधि में महत्वपूर्ण पहलू हैं। अंतरिक्ष संसाधन, जिसे ग्रहीय संसाधन कहा जाता है यानी वे संसाधन जो वर्तमान मामले में चंद्रमा पर हैं और गैर-संघर्ष गतिविधि उस क्षेत्र के चारों ओर सुरक्षा क्षेत्र स्थापित कर रही है, जहां अंतरिक्ष खनन होगा। आसान भाषा में कहें तो यह अंतरिक्ष खनन के बारे में है और खास तौर पर यह उक्त अंतरिक्ष खनन की व्यावसायिक संभावनाओं के बारे में है। हमे समझना होगा कि आर्टेमिस संधि और आर्टेमिस कार्यक्रम किसी खालीपन के चलते नहीं आया है। पृथ्वी के बाहर मानव प्रजातियों का प्रयास साल 1959 से चल रहा है, जब यूएसएसआर (रूस) ने पहला चंद्र मिशन लॉन्च किया था। यह चंद्रमा पर क्रैश कर गया था जिसे हार्ड लैंडिंग कहा जाता है।
भविष्य की अंतरिक्ष खोज कैसी दिखेगी?
मैं सोचती हूं कि भविष्य में हमारे सौरमंडल की निर्बाध खोज जारी रहेगी। यह देशों की महत्वाकांक्षा, वित्तीय संसाधन, निजी क्षेत्र, अत्याधुनिक तकनीकी और नए प्लेटफॉर्म को विकसित करने पर निर्भर होगी। आर्टेमिस संधि के नजरिए से बात करें तो भारत की भूमिका क्या रहेगी यह एक बड़ा सवाल है। अब देश चंद्रमा के संसाधनों की पहचान करने में लगे हुए हैं। अगले चरण में यह पता लगाएंगे के लिए ये संसाधन कितनी मात्रा में मौजूद हैं।
पृथ्वी पर हम खनन करने से पहले सर्वे और पूर्वेक्षण करते हैं। आप पहले उस जगह के पास ड्रिलिंग करते हैं जहां आपको लगता है कि खनिज का पर्याप्त भंडार होगा। इसके बाद आप आर्थिक पहलू को देखते हैं कि क्या इस पर इतना खर्च करना ठीक रहेगा या आर्थिक रूप से यह व्यवहार्य है? इन सबके अलावा हम उस संसाधन को पृथ्वी पर लाएंगे कैसे और बाजार में बेचने के लिए उन्हें उत्पाद में कैसे तब्दील करेंगे? हमें फायदा कितना ही होगा? इसके अलावा और भी कई सवाल हैं।
भारत की इसमें क्या भूमिका रहेगी? विकसित हो रहे पारिस्थितिकी तंत्र, नियामक पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति भारत का दृष्टिकोण क्या होगा ताकि सभी देश इस तक पहुंच सकें।
बाह्य अंतरिक्ष संधि पेशा, उपयोग या किसी अन्य माध्यम से संप्रभुता का दावा करते हुए अंतरिक्ष के राष्ट्रीय उपयोग की अनुमति नहीं देता है। ऐसे में कोई देश, मान लीजिए कि भारत ही संसाधन कैसे निकाल सकता है? यहां दो समूह हैं। एक समूह उन देशों का है, जो आर्टेमिस संधि पर हस्ताक्षर कर्ता हैं और दूसरा समूह रूस और चीन का है, जो अपना अलग ही समझौता बना रहे हैं। इसका क्या अर्थ है?
अंतरिक्ष खोज अपने समय के दो शक्तिशाली देशों ने व्यक्तिगत तौर पर शुरू की थी। इसी तरह हमने भी अंतरिक्ष पर अपनी यात्रा शुरू की थी। हम खुद ही सबकुछ कर रहे थे। वक्त गुजरने के साथ बाह्य अंतरिक्ष संधि (1967 में हस्ताक्षर) अंतरराष्ट्रीय सहयोग और परस्पर समझ को प्रोत्साहित करता है। सच तो यह है कि आर्टेमिस संधि के कुछ महीनों के बाद ही रूस और चीन ने चंद्रमा पर शोध करने की इच्छा जाहिर कर दी। वे चंद्रमा का बेस तैयार करने के लिए एक साथ आए। अब सवाल है कि वे इस पर आगे कैसे बढ़ेंगे। हां, यह बात तो सच है कि दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। अगर हम भारत की स्थिति की बात करें, तो सवाल है कि इन दोनों देशों के बीच भारत क्या करेगा? अमेरिका के साथ अपना गहरा काम है। रूस के साथ हमेशा से ही कामकाज और सहयोगात्मक संबंध रहा है। एक समय तो ऐसा भी था जब भारत और चीन के द्वारा मिलकर अंतरिक्ष संबंधी कार्य करने की कोशिश हुई, मगर हमारी सीमाओं की जिओपाॅलिटिक्स के चलते यह कोशिश धरातल पर नहीं उतर सकी।
बाह्य अंतरिक्ष संधि राष्ट्रीय विनियोग को रोकता है। अतः जब तब देश यह तय नहीं करते हैं कि वे कितना खनन करेंगे तब तक खनिज का खनन कैसे होगा?
राष्ट्रीय विनियोग पर प्रतिबंध को लेकर बाह्य अंतरिक्ष संधि के अनुच्छेद 2 में स्पष्ट लिखा गया है। ऐसे में सवाल यह बनता है कि क्या अंतरराष्ट्रीय कानून में ऐसा कोई समाधान है, जिसके जरिए क्षेत्र के गैर विनियोग में अंतर स्पष्ट करने के लिए इस निर्देश की पुनर्व्याख्या या इसे और विकसित किया जा सकता है यानी कि कोई भी सूचना देकर यह नहीं कह सकता है कि चंद्रमा और इस पर मौजूद संसाधन पर मेरा ही अधिकार है?
क्या संसाधनों को निकालना अनुच्छेद 2 का उल्लंघन होगा? क्या आप इसे अनुच्छेद 1 के संदर्भ में देखती हैं जो बाह्य अंतरिक्ष, चंद्रमा और अन्य आकाशीय अंगों की खोज और इस्तेमाल की इजाजत देता है?
आर्टेमिस संधि के संदर्भ में अमेरिका ने नतीजा निकाला है कि खनिज संसाधनों का दोहन अनुच्छेद-1 के अंतर्गत एक इस्तेमाल है और यह चंद्रमा या उसके किसी भी हिस्से पर दावा करने का प्रस्ताव नहीं करता है। यह उनकी व्याख्या है और उसी के अनुसार आर्टेमिस समझौता तैयार किया गया है।
जब 28 देशों ने इस पर हस्ताक्षर किये हैं, तो इसका मतलब यह है कि अमेरिका ने जो पुनर्व्याख्या या नई व्याख्या की है, उस पर ये सभी देश सहमत हैं। तो अब सवाल यह उठता है कि आप यह कैसे पता लगा सकते हैं कि अलग-अलग देशों के रूप में चीन और रूस का अंतरिक्ष संसाधनों के विषय पर क्या नजरिया है? इन अत्यंत महत्वपूर्ण पहलुओं पर अपना शोध करना भारत की जिम्मेदारी है और केवल उसी के आधार पर, हमारे पास स्पष्टता होगी। भारत, चांद पर पहुंचने वाले चार देशों में एक है। भारत जो रास्ता चुनता है उस पर दुनिया की नजर रहेगी । अतः हमें बहुत सावधानी से सब कुछ करना होगा। हमें यह भी याद रखना होगा कि पृथ्वी की तरह चंद्रमा पर भी खनिज भंडार नवीकरणीय नहीं हैं। इसलिए बहुत चीजों पर विचार करने की जरूरत है और हमें भविष्य पर छोड़ना होगा क्योंकि ये शुरुआती दिन हैं।
क्या खनन को आप भविष्य में किसी प्रकार की संधि पर हस्ताक्षर होता हुआ देखती हैं?
यह संभव है। मैं भी ऐसी ही उम्मीद कर रही हूं। जब मैं यह कहती हूं कि मुझे उम्मीद है तो ऐसा इसलिए कह पाती हूं क्योंकि कानूनी पहलुओं को लेकर यूएन कमेटी ऑन पीस की बाह्य अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण इस्तेमाल को लेकर वर्किंग ग्रुप स्थापित किया गया है, उसने सिफारिश की है कि देशों के नये कानूनी प्रपत्र के साथ आने या बाह्य अंतरिक्ष में नई तरह की गतिविधि के सही व क्षमतापूर्ण प्रबंधन के लिए अंतरराष्ट्रीय रूपरेखा के लिए वह खुला है।
यह वक्त इन विषयों पर विचार करने का वक्त है। इस वक्त हमारे पास काफी समय है। मैं बस इतना कह सकती हूं कि हम पर इसे ठीक करने का दायित्व है। प्रारूप सही, साफ और स्पष्ट होना चाहिए। हमें इसे सही करना होगा।