पशुओं में तीन गुणा बढ़ा एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का खतरा

2000 से लेकर 2018 के बीच भारत और चीन के पशुओं में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का खतरा लगभग तीन गुना बढ़ गया हैं, जो कि इंसानो के लिए भी एक बड़े खतरे की ओर इशारा है
Photo: Vikas Choudhary
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अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस में छपी रिपोर्ट के अनुसार मध्यम और कम आय वाले देशों में पशुओं से प्राप्त होने वाले प्रोटीन की मांग दिनों दिन बढ़ती जा रही है, जिसके चलते पशुधन के लिए एंटीबायोटिक की खपत में भी वृद्धि हो रही है। आंकड़े दर्शाते हैं कि 2000 से लेकर 2018 के बीच मवेशियों में पाए जाने वाले जीवाणु तीन गुना अधिक एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स हो गए हैं, जोकि एक बड़ा खतरा है, क्योंकि यह जीवाणु बड़े आसानी से मनुष्यों के शरीर में भी प्रवेश कर सकते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार भारत और चीन के मवेशियों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स सबसे अधिक पाया गया है, जबकि ब्राजील और केन्या में भी इसके मामले तेजी से बढ़ रहे हैं।

कितनी गंभीर है यह समस्या

आप इस बात की गंभीरता को इस बात से समझ सकते हैं कि दुनिया भर में बेची जाने वाले एंटीबायोटिक्स में से 73 फीसदी का प्रयोग उन जानवरों पर किया जाता है, जिन्हे भोजन के लिए पाला गया है। बाकि बची 27 फीसदी एंटीबायोटिकस को मनुष्यों के लिए दवाई और अन्य जगहों पर प्रयोग किया जाता है। इसके बावजूद जानवरों में बढ़ रहे एंटीबायोटिक्स रेसिस्टेन्स पर मनुष्यों की तुलना में कम गौर किया जाता है, जबकि पशुओं में बढ़ रहा एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स भी इंसानों के लिए समान रूप से हानिकारक है। साल 2000 से लेकर अब तक जहां एशिया में मीट का उत्पादन 68 फीसदी बढ़ गया है, वहीं अफ्रीका में 64 फीसदी और दक्षिण अमेरिका में 40 फीसदी अधिक हो गया है।

दुनिया भर में पायी जाने वाली आधी से अधिक मुर्गियां और सूअर एशिया में ही मिलती हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार 2000 से 2018 के दौरान  विकासशील देशों में पाए जाने वाले चिकन और सूअरों में एंटीबायोटिक दवाओं के अनुपात में प्रतिरोध की दर 50 फीसदी बढ़ गयी है। जहां चिकन में यह अनुपात 0.15 से बढ़कर 0.41 हो गया है, जबकि सूअरों में यह अनुपात 0.13 से बढ़कर 0.34 हो गया है।

ईटीएच जुरिख, प्रिंसटन एनवायरनमेंट इंस्टिट्यूट और फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रुसेल्स के शोधकर्ताओं ने मिलकर माध्यम और कम आय वाले देशों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स को समझने के लिए दुनिया की लगभग 1,000 से भी अधिक प्रकाशित और गैर प्रकाशित रिपोर्टों को जमा किया है । इसके लिए उन्होंने एशेरिकिया कोलाए (ई-कोलाई), काम्प्य्लोबक्टेर, साल्मोनेला, और स्टैफिलोकॉकस ऑरियस बैक्टीरिया पर ध्यान केंद्रित किया है क्योंकि यह बैक्टीरिया जानवरों और इंसानों में गंभीर बीमारी का कारण बनते हैं।

पीईआई के एक वरिष्ठ शोधकर्ता और इस अध्ययन के सह-लेखक रामानन लक्ष्मीनारायण ने बताया कि, "यह वैश्विक स्तर पर जानवरों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स को ट्रैक करने वाला पहला शोध है जिससे पता चलता है कि पिछले 18 वर्षों के दौरान पशुओं में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स नाटकीय रूप से बढ़ रहा है।" उनके अनुसार निश्चित रूप से कई लोगों को अधिक प्रोटीन वाला आहार लेने की जरुरत हैं, लेकिन अगर इसके लिए हमें एंटीबायोटिक दवाओं का सहारा लेना पड़ रहा है, तो हमें अपनी प्राथमिकताओं के बारे में फिर से सोचने की जरुरत है।"

इस शोध के प्रमुख शोधकर्ता थॉमस वैन बोएकेल ने बताया कि विकासशील देशों के लिए मवेशियों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स एक बड़ा खतरा बनता जा रहा है । जबकि उन देशों में मांस के उत्पादन और खपत में बड़ी तेजी से वृद्धि हो रही है, जबकि वहां आज भी पशु चिकित्सा में एंटीबायोटिक्स का प्रयोग नियमों के दायरे में नहीं है। उनके अनुसार यह आंकड़े इस तथ्य की ओर स्पष्ट इशारा है कि जानवरों के इलाज में प्रयुक्त होने वाली एंटीबायोटिक दवाएं अपना असर खोती जा रही हैं, जिनसे जानवरों और इंसानों को इनके खतरे से बचाना कठिन होता जा रहा है।

सीएसई ने भी चेताया था इस खतरे से

गौरतलब है कि अभी कुछ समय पूर्व नई दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने भी अपने अध्ययन में बताया था कि पोल्ट्री इंडस्ट्री में एंटीबायोटिक दवाओं के बड़े पैमाने पर अनियमित उपयोग के कारण भारतीयों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के मामले बढ़ रहे हैं । जानी मानी पर्यावरणविद और सीएसई की डायरेक्टर जनरल सुनीता नारायण ने भी इस बारे में बताया कि एंटीबायोटिक्स का प्रयागो आज मनुष्यों की दवाई तक ही सीमित नहीं है । आज कई जगह इनका धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है उदाहरण के लिए, पोल्ट्री इंडस्ट्री में मुर्गियों पर बड़े पैमाने पर इनका प्रयोग किया जा रहा है, जिससे मुर्गियों का वजन बढ़ सके और उनका जल्दी विकास हो सके । सीएसई लैब द्वारा अध्ययन किये गए, चिकन के 40 फीसदी नमूनों में एंटीबायोटिक दवाओं के अंश पाए गए थे।

सीएसई के शोधकर्ताओं के अनुसार भारत में पोल्ट्री इंडस्ट्री प्रति वर्ष 10 फीसदी की दर से बढ़ रही है। भारत में मांस का जितना भी सेवन किया जाता है, उसका 50 फीसदी मुर्गियों से प्राप्त होता है। भारत को इस समस्या से निपटने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा। इसकी सबसे बड़ी समस्या जानवरों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के उत्पन्न होने और भोजन और पर्यावरण के माध्यम से इंसानों में फैलने की है। जब तक हम जानवरों में एंटीबायोटिक दवाओं का दुरुपयोग करते रहेंगे, तब तक हम एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स की समस्या को हल नहीं कर पाएंगे। इसलिए भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए कि वो पोल्ट्री और अन्य जानवरों में एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुन्द उपयोग को सीमित करने के लिए कड़े नियम बनाये और साथ ही कड़ाई से उनपर अमल भी होना चाहिए।

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