प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उत्कृष्टता के मिथक
हाल ही में एक प्रमुख समाचार पत्र ने पेटेंट पर एक वैचारिक लेख प्रकाशित किया था जिसमें एक चौंकाने वाले प्रस्ताव की सिफारिश की गई थी। लेखक का कहना था कि भारत में पेटेंट का संस्कृत भाषा में भी पंजीकरण कराया जाना चाहिए। ध्यान रहे कि वर्तमान में यह केवल हिंदी एवं अंग्रेजी में होता है। लेखक ने दावा किया कि इससे भारत की तकनीकी प्रगति तो सुरक्षित रहेगी ही और साथ ही हमारी सांस्कृतिक विरासत की भी पुष्टि होगी। इतिहास में संस्कृत की भूमिका के बारे में उत्साहित होकर वह लिखते हैं कि जटिल ज्ञान प्रणालियों को स्पष्टता और संक्षिप्तता के साथ संस्कृत में संहिताबद्ध किया गया था क्योंकि इसकी “व्याख्यात्मकता की अनूठी विशेषता ने एक ही वाक्यांश को कई अर्थ रखने की क्षमता दी।” यह एक जटिल प्रक्रिया की भ्रामक और सरल समझ है। बौद्धिक संपदा अधिकारों पर पेटेंट एवं अन्य दावों के लिए हमें सटीक और विस्तृत विवरण की आवश्यकता होती है। एक वाक्यांश और कभी-कभी एक शब्द भी अगर गलत तरीके से लिखा या छोड़ा गया हो तो इससे नुकसानदेह मुकदमों के अलावा कंपनियों के संचालन में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
अगर लेखक एक आम व्यक्ति होता तो ये गलतफहमियां (जिनकी संख्या बहुत है) को माफ किया जा सकता था। लेकिन जब लेखक ही भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) दिल्ली में विजिटिंग प्रोफेसर हो तो कोई क्या कह सकता है? क्या संस्कृत में जटिल रासायनिक प्रतिक्रियाओं के लिए शब्दावली और प्रतीक हैं? उदाहरण के लिए एक नई दवा बनाने में जिनकी आवश्यकता होगी? या एक नए अणु का वर्णन करने के लिए भाषा? या स्ट्रिंग सिद्धांत? मुझे नहीं पता क्योंकि मैं उन 24,821 भारतीयों में से नहीं हूं जिन्हें संस्कृत बोलने वालों के रूप में सूचीबद्ध किया गया है (2011 की जनगणना के अनुसार)। जाहिर है यह भारतीय आबादी का 0.002 प्रतिशत है। हालांकि यह एक अप्रासंगिक विवरण है। जब लोकसभा अध्यक्ष, सदस्यों के विरोध के बावजूद, संसदीय कार्यवाही के लिए संस्कृत अनुवाद की व्यवस्था को मंजूरी दे सकते हैं तो एक आईआईटी प्रोफेसर पेटेंट फाइलिंग को संस्कृत में करने की मांग क्यों नहीं कर सकता? वास्तव में शिक्षाविद द्वारा दिए गए आकर्षक कारणों में से एक यह है, “कल्पना कीजिए कि अदालत में इस बात पर बहस हो रही है कि संस्कृत के श्लोक में पवन टरबाइन है या छत के पंखे का वर्णन है, यह ज्ञानवर्धक और मनोरंजक दोनों हो सकता है।”
सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति जुनून और धार्मिक पौराणिक कथाओं को भारत के अतीत के वैज्ञानिक कौशल के साथ घालमेल देना। ये सारे आज देश में जो कुछ भी गलत है उसके लक्षण हैं। इस प्रकार अब हमारे पास भारतीय ज्ञान प्रणाली (आईकेएस) नामक कुछ है जिसे भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार द्वारा शैक्षणिक संस्थानों और विशेष रूप से आईआईटी पर थोपा जा रहा है ताकि भारत के “बुनियादी मूल्यों” को वापस लाया जा सके जो आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण से प्रभावित हुए थे। यह आईआईटी, दिल्ली में आईकेएस पर आयोजित एक सेमिनार से पता चलता है। इस विचारधारा के एक अग्रणी चिंतक के अनुसार, “19वीं शताब्दी के मध्य से औद्योगिकीकरण ने उन सांस्कृतिक और सामाजिक संरचनाओं को बाधित कर दिया था जिन्होंने पीढ़ियों से हमारे समुदायों को एकजुट बनाए रखने में मदद की थी।”
इसके फलस्वरूप हमारे पास देश के प्रमुख तकनीकी संस्थानों, आईआईटी के निदेशकों के रूप में शिक्षाविदों की एक नई नस्ल भी है जो राजनीतिक नेतृत्व द्वारा चुने गए लोग हैं और जो गौशालाओं (मवेशी बचाव केंद्र) और भूत भगाने के लिए सुर्खियों में रहते हैं। यदि आईआईटी मद्रास के निदेशक गोमूत्र की प्रशंसा करते हैं और इसके कथित जीवाणुरोधी और कवकरोधी गुणों के कारण अनेक रोगों को ठीक करने की क्षमता का बखान करते हैं तो वहीं दूसरी ओर आईआईटी मंडी के प्रमुख अपने छात्रों को मांसाहार के खिलाफ चेता रहे हैं और उनका कहना है कि मांसाहार के कारण ही 2023 में उत्तराखंड को विनाशकारी भूस्खलन का सामना करना पड़ा।
यदि तकनीकी शिक्षा के प्रमुख संस्थान आईआईटी की यह स्थिति है तो कोई केवल कल्पना ही कर सकता है कि विश्वविद्यालयों में क्या हो रहा है। हालांकि ये महानुभाव इस समस्या का एक छोटा सा हिस्सा हैं।
ऑल इंडिया पीपल्स साइंस नेटवर्क (पीएसएन) 40 से अधिक जन विज्ञान संगठनों का एक समूह है जिसका उद्देश्य देश में वैज्ञानिक सोच और तर्कसंगत सोच को बढ़ावा देना है और यह नेटवर्क सरकार की वैचारिक रूप से गढ़ी गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत शिक्षा प्रणाली में गलत धारणाओं को थोपे जाने से निराश हैं। स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों, आईआईटी और अनुसंधान संगठनों जैसे उत्कृष्टता केंद्रों तक। पीएसएन ने चेतावनी दी है कि ये संस्थान ऐसे पाठ्यक्रम लागू कर रहे हैं जो भारत के पारंपरिक ज्ञान के समृद्ध इतिहास को “गलत तरीके से प्रस्तुत, सरलीकृत और विकृत” करते हैं। यही नहीं इसने भारतीय विज्ञान और गणित पर अज्ञानी या छद्म वैज्ञानिक विचारों वाले व्यक्तियों के लिए प्रभाव हासिल करने का द्वार खोल दिया है। नेटवर्क का कहना है कि शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों में “प्रतिगामी आईकेएस-संबंधी विमर्शों” का प्रवेश आम बात हो गई है और यह तर्कसंगत और वैज्ञानिक जांच के लिए लगातार चुनौती पैदा करता है।
भाजपा शासन के तहत अपने अतीत के गौरव के बारे में भारत का अहंकार (जो कि अधिकांशतः काल्पनिक है) ने हमें एक ऐसे देश में बदल दिया है जो प्रतिगामी सोच रखता है। हो सकता है कि हमारे पास चंद्रयान जैसे वैज्ञानिक सफलत के चंद क्षण हों लेकिन बस इतना ही है। यही नहीं, हमारे यहां फैली यह कहानी कि भारत चंद्रमा के अंधेरे हिस्से तक पहुंचने वाला पहला देश था, पूरी तरह सच नहीं है। चीन ने कई साल पहले ऐसा किया था।
चीन 2019 में ही चंद्रमा के दूर के हिस्से पर अंतरिक्ष यान उतारने वाला पहला देश बन गया था जब इसके चांग’ई 4 मिशन ने रोवर यूटू-2 को वॉन कार्मन क्रेटर तक पहुंचाया। हम इस देश में ऐसे तथ्यों को मान्यता नहीं देते हैं क्योंकि यह हमारी उन उपलब्धियों की चमक को कम कर देता है जिसे मीडिया द्वारा हद से ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है।
सच तो यह है कि वैज्ञानिक उपलब्धियों के मामले में भारत दुनिया में अप्रासंगिक हो गया है। आखिरी बार कब हमने 6जी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, 350 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ने वाली बुलेट ट्रेन, सोडियम बैटरी या भविष्य के विमानन मॉडल जैसी कोई अग्रणी तकनीक पेश की थी जिसने दुनिया को चौंका दिया हो? चीन इतनी शानदार नियमितता के साथ अत्याधुनिक तकनीक लेकर आता है कि कोई भी उसकी श्रेष्ठता पर सवाल नहीं उठाता।
जनवरी में विमानन विशेषज्ञ चीन के “बुलेट इन दी स्काई” की क्षमता से दंग रह गए थे, यह एक भविष्य के अल्ट्रा-फास्ट विमान का प्रोटोटाइप है जो मैक 4 यानी ध्वनि की गति से चार गुना तेज गति से उड़ान भरता है। इसका अनावरण 20 जनवरी को चेंगदू में किया गया।
चीन की अभूतपूर्व सफलता इसकी दूरदर्शी शिक्षा प्रणाली के फलस्वरूप है। वहां विश्वविद्यालय नवाचार के केंद्र हैं जहां से दृढ़ निश्चयी युवा निकलते हैं और जिनमें से कई आगे की इंजीनियरिंग अवधारणाओं पर डॉक्टरेट प्राप्त करते हैं। इस प्रणाली में नवीन वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान विश्वविद्यालय प्रयोगशालाओं में अर्जित किया जाता है। फिर वाणिज्यिक उत्पादों के विकास के लिए ऊपर से नीचे तक लागू किया जाता है। और हां चीनी भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों पर गर्व करते हैं। वे इसके बारे में ज्यादा बात नहीं करते लेकिन इसे कभी भुलाया भी नहीं जाता। उनके हाइपरसोनिक जेट का सांस्कृतिक महत्व है। इसे क्वांटियान्हो कहा जाता है, जिसका अर्थ है उड़ता हुआ बंदर। यह नाम सुन वुकोंग को दिया गया है जो चीनी साहित्य और पौराणिक कथाओं के सबसे प्रसिद्ध व्यक्तियों में से एक हैं। विमानन विशेषज्ञों ने कहा है कि दी सोरिंग मंकी एयरोस्पेस प्रौद्योगिकी में एक महत्वपूर्ण छलांग है।
हम भारतीयों के पास ऐसा आसमान में सूराख करने वाला विचार कब आया था?