चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव से पहली बार भारतीय लैंडर विक्रम और रोवर प्रज्ञान ने जो जानकारियां धरती पर भेजी हैं, वह इंसान के चंद्रमा पर बस्ती बसाने या किसी दूसरे ग्रह पर जाने के लिए उसे एक स्टॉपेज की तरह बनाने के स्वप्न को साकार कर सकती है। लेकिन हम यह सब कुछ क्यों कर रहे हैं और क्या यह वाकई इतना आसान है?
डाउन टू अर्थ के एक अंक(1-15 मई, 2019) को दिए गए एक साक्षात्कार में पहली बार अंतरिक्ष यात्रा करने वाले भारतवंशी राकेश शर्मा ने कहा कि अतीत में हमने पृथ्वी पर मौजूद सीमित संसाधनों का बुरी तरह दोहन किया, अब हम रहने लायक नए विकल्प की तलाश के लिए मजबूर हैं। जैसा कि हमारे पास मानव जीनोम का कोई बैक-अप नहीं है। यदि क्षुद्रग्रहों के टकराने की कोई प्रलयकारी घटना घटती है तो पूरी सभ्यता का सफाया हो सकता है।
यही कुछ कारण हैं जो भविष्य में अंतरिक्ष की खोज की गतिविधि को और बढ़ा सकते हैं। राकेश शर्मा आगे कहते हैं कि जब शुरुआती समय में सोवियत और अमेरिका के बीच चंद्रमा पर जाने की होड़ थी तो वह एक विचारात्मक लड़ाई थी। दोनों देशों ने यह साबित किया कि वह चंद्रमा की सतह से मिट्टी लेकर लौटने में सक्षम है, हालांकि इससे ज्यादा कुछ नहीं। क्योंकि तकनीक पर्याप्त नहीं थी। यही कारण है कि कोई भी चंद्रमा पर वापस नहीं गया। हालांकि, अब आधुनिक तकनीक है जिसके कारण नई संभावनाएं खोजी जा रही हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी के बाहर चंद्रमा या अन्य ग्रह में रहने की पहली शर्त यह है कि वहां लोगों को चरम स्थितियों से बचाया जा सके। चंद्रमा या अन्य ग्रहों पर एक बेहद पतला वातावरण है जो नुकसानदेह ब्रह्मांडीय विकिरण, उल्का पिंडों और सौर ज्वालाओं का भयंकर खतरा पैदा करता है। चंद्रमा पर अत्यंत सघन धूल की आंधियों का आना सामान्य बात है। तापमान बदलाव में बड़ा अंतर होना भी एक बड़ी चुनौती है। हालांकि, तापमान के इस अंतर को वैज्ञानिक एक सकारात्मक सूचना मानते हैं।
भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो के मुताबिक चंद्रयान-3 ने पहले चरण में पता लगाया है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव में सतह पर और करीब 4 इंच सतह के नीचे तापमान में बड़ा भारी अंतर है। सतह पर तापमान 60 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया जबकि सतह से 3 इंच नीचे जाते-जाते तापमान -10 सेल्सियस तक रिकॉर्ड किया गया। वहीं, अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के मुताबिक चंद्रमा के भूमध्यीय क्षेत्र में दिन का तापमान 120 सेल्सियस और रात का तापमान -130 सेल्सियस तक पहुंच जाता है। इस तापमान अंतर के क्या मायने हैं?
नासा वैज्ञानिकों का मानना है कि इससे यह साबित होता है कि चंद्रमा की मिट्टी जिसे लूनर रेगोलिथ कहते हैं वह एक अच्छी ताप रोधी सामग्री है। इसका अर्थ हुआ कि इस तरह की मिट्टी से स्पेस कॉलोनी बनाई जा सकती है जो ताप-ठंड और कई तरह के विकिरणों से बचा सकती है। वहीं, लंदन आधारित आर्किटेक्चिरल फर्म फोस्टर+पार्टनर्स ने एक ऐसे अत्याधुनिक मानव आवास को डिजाइन किया है जो चंद्रमा और मंगल दोनों जगह काम कर सकता है।
हालांकि पृथ्वी से इस पूरे मॉड्यूल को भेजना बहुत ही खर्चीला है। यह संस्था निर्माण के उपकरण रोबोट के रूप में भेजना चाहती है जो बहुत सारे काम जैसे खुदाई, परिवहन, मेल्टिंग और 3 डी प्रिंटिंग को अंजाम दे सके। यह अत्याधुनिक मशीनें चंद्रमा की सतह से नरम मिट्टी और पत्थर की खुदाई (रेगोलिथ) का इस्तेमाल सुरक्षित कॉलोनी को तैयार करने के लिए कर सकती है।
चंद्रयान-1 के बाद चंद्रयान 3 ने इस संकेत को और मजबूत किया है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव में सतह के नीचे पानी बर्फ के रूप में मौजूद है। चंद्रमा के सतह पर सल्फर का होना पानी होने का एक और सबूत है। इसरो के मुताबिक पहली बार इन-सीटू यानी मौके पर ही प्रयोग और माप करने वाले उपकरण ने यह पूरी तरह साबित कर दिया है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव में सल्फर मौजूद है। इससे पहले भी 1970 में नासा के वैज्ञानिकों ने सल्फर की पुष्टि की थी। हालांकि, प्रज्ञान रोवर ने पहली बार सतह पर ही सल्फर की पुष्टि की है। इसरो के वैज्ञानिकों के मुताबिक सल्फर यह संकेत देता है कि वहां पानी ठोस रूप में मौजूद है। इस सल्फर से प्रोटीन भी बनाया जा सकता है।
इन सबके अलावा सल्फर आमतौर पर ज्वालामुखियों से आते हैं जो हमारी इस जानकारी में इजाफा कर सकते हैं कि यह चंद्रमा कैसे बना और विकसित हुआ। सल्फर एक अच्छा उर्वरक भी है। यदि भविष्य में चंद्रमा पर बस्ती बसाई जाती है तो वहां पौधों को पनपने के लिए भी यह कारगर हो सकता है।
अब जब चांद पर पानी के होने की पुष्टि के बार-बार संकेत मिल रहे हैं तो उन्हें इसका इस्तेमाल करना आसान नहीं होगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक शुरुआती चरण में चंद्रमा या मंगल पर पहुंचने वालों को पानी और ऑक्सीजन के लिए एडवांस्ड क्लोज्ड लूप सिस्टम और सैबेटिएर रिएक्टर पर निर्भर रहना होगा। यह सिस्टम अभी इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में काम कर रहा है। इस सिस्टम के तहत पानी को दो तत्वों में तोड़ा जाता है।
ऑक्सीजन को निकालकर स्पेस में अंतरिक्ष यात्रियों के लिए सप्लाई किया जाता है। वहीं, अतंरिक्ष यात्रियों के जरिए छोड़े गए कार्बनडाइ ऑक्साइड से हाइड्रोजन का रिएक्शन होकर पानी बन जाता है। इस सिस्टम के जरिए मीथेन सहउत्पाद के तौर पर उत्सर्जित होता है। हालांकि, वैज्ञानिकों का कहना है कि वह इसका इस्तेमाल रॉकेट प्रोपेलैंट में कर सकते हैं। नासा के हालिया मंगल अभियान पर्सिवरेंस में इस तरह की कोशिश सफल हुई है। नासा के रोवर पर्सिवरेंस ने मंगल ग्रह पर ऑक्सीजन पैदा कर लिया है। उसके यंत्र मॉक्सी ने 122 ग्राम ऑक्सीजन जेनरेट की है जिससे एक कुत्ता करीब 10 घंटे तक सांस ले सकता है।
चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव में सतह पर ऑक्सीजन भी मौजूद है। यह वातावरण में नहीं बल्कि चट्टानों में है। दशकों से चंद्रमा के नमूनों से ऑक्सीजन निकालने की प्रक्रिया चल रही है। संयुक्त राज्य अमेरिका में यूनिवर्सिटी ऑफ ओकलाहोमा के एक अध्ययन पेपर “ऑक्सीजन ऑन द मून” में संयुक्त तौर पर वैज्ञानिकों ने बताया है कि चंद्रमा पर ऑक्सीजन का उत्पादन तकनीकी और आर्थिक दोनों दृष्टि से अनुकूल है।
चंद्रमा या मंगल जैसे ग्रह पर बसने के लिए मलमूत्र के उपयोगी संसाधन में बदलने की भी एक अहम भूमिका हो सकती है। इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में यूरिन के जरिए पानी को अलग करके पीने लायक बनाया जाता है। नासा इसके लिए ब्राइन प्रोसेसर एसेंबली का इस्तेमाल करता है।
चंद्रयान-3 की यह खोज भी बहुत अहम है कि चंद्रमा की सतह पर प्लाज्मा का ऐसा वातावरण है जो रेडियो संचार को बहुत कम बाधित कर सकता है। यानी निर्बाध संचार की भी संभावना है।
अंतरिक्षयात्री राकेश शर्मा डाउन टू अर्थ को दिए गए साक्षात्कार में आगाह करते हैं कि हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पृथ्वी एक ऐसा अकेला ग्रह है जहां जीवन है उसे बर्बाद करके हम किसी दूसरी जगह आबाद नहीं हो सकते। हमें अपनी पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान पहले करना होगा। पूर्व में किए गए समझौतों का सम्मान करना होगा।
नासा के प्लेनेटरी साइंटिस्ट क्रिस्टोफर पी मैके मंगल ग्रह के बारे में एक कथन में कहते हैं जो चंद्रमा पर भी सटीक बैठता है। मैके के मुताबिक, “हम यह जान गए हैं कि मंगल पर कैसे जाएं, अब जरूरत है कि हम यह सीखें कि हम वहां रहे कैसें। यह पृथ्वी के लिए भी मददगार होगा।”