क्या आप जानते हैं कि दांत किसी व्यक्ति के शरीर में मौजूद एंटीबॉडीज को सैकड़ों वर्षों तक संरक्षित कर सकते हैं। बात हैरान करने वाली है, लेकिन सच है। नॉटिंघम विश्वविद्यालय और यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के वैज्ञानिकों द्वारा किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि दांत, सदियों तक एंटीबॉडी को सुरक्षित रख सकते हैं। इसकी मदद से वैज्ञानिक को संक्रामक रोगों के इतिहास की जांच करने में मदद मिलेगी।
इस अध्ययन के नतीजे ओपन एक्सेस जर्नल आई साइंस में प्रकाशित हुए हैं। बता दें कि एंटीबॉडीज वो प्रोटीन होते हैं जो शरीर को वायरस और बैक्टीरिया जैसे संक्रामक जीवों को रोकने में मदद करते हैं, इन्हें इम्युनोग्लोबुलिन भी कहा जाता है।
शरीर द्वारा उत्पन्न यह प्रोटीन, एंटीजन नामक बाहरी हानिकारक तत्वों से लड़ने में मदद करते हैं। जैसे ही किसी व्यक्ति के शरीर में एंटीजन प्रवेश करते हैं वैसे ही शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली प्राकृतिक रूप से एंटीबॉडीज उत्पन्न करने के लिए ट्रिगर करती है।
इनका काम रोगाणुओं को पहचानना होता है ताकि प्रतिरक्षा प्रणाली उन पर हमला कर सके और उन्हें शरीर से दूर कर सके। यह एंटीबॉडीज एंटीजन के साथ जुड़ जाते हैं या उन्हें बांध देते हैं, साथ ही यह एंटीजन को निष्क्रिय भी करते हैं।
आईसाइंस में प्रकाशित इस नए अध्ययन में वैज्ञानिकों को करीब 800 साल पुराने मध्ययुगीन इंसानी दांतों से लिए नमूनों में एंटीबॉडी स्थिर अवस्था में मिले हैं। इनमें से अभी भी वायरल प्रोटीन की पहचान की जा सकती है।
क्या कुछ निकलकर आया अध्ययन में सामने
वैज्ञानिकों के अनुसार यह सफलता इंसानों के शरीर में एंटीबॉडी प्रतिक्रियाओं के ऐतिहासिक विकास को समझने में मददगार हो सकती है। पुरातन जीवों की कोशिकाओं में मौजूद प्रोटीन के इस अध्ययन को पैलियोप्रोटिओमिक्स के रूप में जाना जाता है।
इससे पहले भी पैलियोप्रोटिओमिक्स करीब 17 लाख वर्ष पुराने गैंडे के दांतों और 65 लाख वर्ष से अधिक पुराने शुतुरमुर्ग के अंडे के छिलके में संरक्षित प्रोटीन की पहचान करने में प्रभावी साबित हुई है। रिसर्च में वैज्ञानिकों को इस बात के भी प्रारंभिक संकेत मिले हैं कि एंटीबॉडीज मध्ययुगीन इंसानी दांतों की तरह ही करीब 40,000 वर्ष पुराने मैमथ की हड्डियों में स्थिर अवस्था में संरक्षित है।
नॉटिंघम से जुड़े शोधकर्ताओं के दल ने पहले भी इस पद्धति का उपयोग चेशायर से पाई गए प्राचीन इंसानी हड्डियों और दांतों से निकाले गए रोग-संबंधी प्रोटीन का अध्ययन करने के लिए किया था। इसकी मदद से पगेट नामक बीमारी के अद्वितीय प्राचीन संस्करण की पहचान करने में मदद मिली थी। पगेट हड्डियों से जुड़ी एक क्रोनिक डिजीज है। इसके चलते हड्डियां बड़ी और सामान्य से कमजोर हो जाती हैं।
इस बारे में प्रोफेसर लेफील्ड ने प्रेस विज्ञप्ति में समझाया है कि, "वैज्ञानिक खोजों में हम अप्रत्याशित की उम्मीद करते हैं, लेकिन प्राचीन मानव कंकालों के अवशेषों में मौजूद कार्यात्मक एंटीबॉडीज को ढूंढना वास्तव में आश्चर्यजनक है। कुछ प्राचीन प्रोटीन पहले से ही स्थिर होने के लिए जाने जाते हैं, लेकिन वे ज्यादातर कोलेजन और केराटिन जैसे संरचनात्मक प्रोटीन हैं जो अपेक्षाकृत रूप से अप्रतिक्रियाशील होते हैं।"
वहीं अध्ययन से जुड़े अन्य शोधकर्ता प्रोफेसर रहमान का कहना है कि, “यह एंटीबॉडीज अलग हैं, क्योंकि हम इस बात की जांच कर सकते हैं कि क्या यह एंटीबॉडीज सदियों बाद भी वायरस या बैक्टीरिया को पहचानने का अपना काम बखूबी कर सकते हैं।“
उनका आगे कहना है कि, "इस मामले में, हमने पाया कि मध्ययुगीन दांतों से लिए एंटीबॉडी अभी भी एपस्टीन-बार वायरस की पहचान करने में सक्षम थे।" बता दें कि यह वायरस हर्पीस वायरस परिवार का सदस्य है, जिसे मानव हर्पीसवायरस 4 के रूप में भी जाना जाता है। यह वायरस ग्रंथि ज्वर नामक बीमारी की वजह बनता है। इसकी मदद से भविष्य में यह जांच की जा सकती है कि प्राचीन नमूनों में मिले एंटीबॉडीज 'ब्लैक डेथ' जैसी उस समय में मौजूद बीमारियों पर कैसे प्रतिक्रिया करते हैं।