धरती के इतिहास में बड़े पैमाने पर ज्वालामुखीय घटनाएं हुई, जिनकी वजह से वायुमंडल में बड़ी मात्रा में कार्बन निकली, अक्सर इस तरह की घटनाएं गंभीर पर्यावरणीय बदलाव और बड़े पैमाने पर विलुप्ती से जुड़ी होती हैं।
पेन स्टेट और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के नेतृत्व वाली एक अंतरराष्ट्रीय टीम के अनुसार, ज्वालामुखी द्वारा कितनी मात्रा में और कितनी तेजी से कार्बन छोड़ी गई, इसका अनुमान लगाने की एक नई विधि से जलवायु में बदलाव के बारे में पता लगाया जा सकता है।
नेचर जियोसाइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, प्राचीन ज्वालामुखी संबंधी किसी गतिविधि के कारण चट्टानों के रिकॉर्ड में बचे अतिरिक्त पारे का अनुमान लगाने के लिए एक नई तकनीक विकसित की है। तकनीक बड़े आग की घटनाओं वाले प्रांतों (एलआईपी) से कार्बन उत्सर्जन का अनुमान लगा सकती है। ज्वालामुखीय घटनाएं जो लाखों वर्षों तक चल सकती हैं और मैग्मा का उत्पादन करती हैं जो पृथ्वी की सतह तक पहुंचती है और सैकड़ों मील लंबे लावा प्रवाह का निर्माण करती है।
अध्ययन में कहा गया है कि बड़ी मात्रा में आग लगने की घटनाओं वाले इलाकों को अक्सर मानवजनित जलवायु परिवर्तन के रूप में देखा जाता है। क्योंकि वे भौगोलिक रूप से अपेक्षाकृत तेजी से होते हैं और बहुत अधिक कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। लेकिन इस अध्ययन से हम जिस बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं वह यह है कि आज तक, यह पता लगाना वाकई मुश्किल हो गया है कि इन ज्वालामुखियों द्वारा कितना कार्बन छोड़ा गया था।
शोधकर्ताओं ने शुरुआती जुरासिक काल के दो करोड़ वर्ष के रिकॉर्ड से मुख्य नमूनों का विश्लेषण किया और पाया कि कारू-फेरर बड़े आग की घटनाओं और संबंधित टारसियन ओशनिक एनोक्सिक घटना की चरम गतिविधि के दौरान पारा के स्तर में वृद्धि हुई, जो कि व्यापक पर्यावरणीय अवधि थी। लगभग 18.5 करोड़ वर्ष पहले जलवायु में बदलाव इसके लिए जिम्मेवार माना गया था।
हालांकि, पारे के रिकॉर्ड का उपयोग करके कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन कार्बन-चक्र मॉडल के पूर्वानुमान से काफी कम था, जो कि देखे गए पर्यावरणीय बदलावों का कारण बनने के लिए जरूरी था।
निष्कर्षों से पता चलता है कि ज्वालामुखी ने पृथ्वी प्रणाली प्रतिक्रिया को जन्म देने में सकारात्मक भूमिका निभाई, बढ़ते तापमान के शुरुआती दौर के लिए जलवायु और पर्यावरणीय प्रतिक्रियाएं जिसके कारण तापमान में और अधिक बढ़ोतरी हुई।
वैज्ञानिकों ने शोध में कहा कि ये सकारात्मक प्रतिक्रियाएं इन बड़े कार्बन उत्सर्जन परिदृश्यों के शुरुआती दौर में उत्सर्जन जितनी ही महत्वपूर्ण हो सकती हैं और वर्तमान कार्बन चक्र मॉडल उत्सर्जन की एक निश्चित मात्रा के प्रभावों को कम करके आंक सकते हैं।
इससे हमें पता चलता है कि पृथ्वी प्रणाली की प्रतिक्रियाएं हैं जो ज्वालामुखी द्वारा उत्सर्जित कार्बन के प्रभाव को बढ़ा देती हैं। शोध के परिणामों के आधार पर, ये आंकलन प्रक्रियाएं वास्तव में काफी महत्वपूर्ण हैं लेकिन अच्छी तरह से समझी नहीं गई हैं।
शोध में कहा गया है कि भविष्य के जलवायु अनुमानों पर सकारात्मक और नकारात्मक कार्बन-चक्र के प्रभावों को समझने के लिए एलआईपी कार्बन उत्सर्जन का सटीक अनुमान जरूरी है।
शोध के मुताबिक, ऐतिहासिक जलवायु परिवर्तन और जीवन के इतिहास को समझने के अलावा, यह इस बात के लिए भी प्रासंगिक है कि पृथ्वी की जलवायु को किस तरह समझते हैं और उसकी जांच किस तरह की जाती है कि वायुमंडल में बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने के बाद पर्यावरण का क्या होता है।
शोध में कहा गया है कि एलआईपी से जुड़े कार्बन उत्सर्जन की मात्रा का अनुमान लगाना आंशिक रूप से एक चुनौती रहा है क्योंकि वैज्ञानिकों के पास इसका अधूरा रिकॉर्ड है कि कितना लावा फूटा था। उदाहरण के लिए, कारू-फेरर एलआईपी, पूर्व सुपरकॉन्टिनेंट गोंडवाना पर हुआ था और वह सामग्री अब दक्षिणी गोलार्ध में फैली हुई है, जो आधुनिक दक्षिण अफ्रीका, अंटार्कटिका और तस्मानिया तक फैली हुई है।
शोधकर्ताओं ने इसके बजाय पारे की ओर रुख किया, जो ज्वालामुखी विस्फोट के दौरान गैस के रूप में निकलता लेकिन मानवजनित गतिविधि से पहले पर्यावरण में भारी मात्रा में शायद ही कभी पाया गया था। मुख्य नमूनों में चट्टानों के रसायन विज्ञान को देखकर, वैज्ञानिक यह निर्धारित करने में सक्षम थे कि पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर कितना पारा निकला होगा और ज्वालामुखी के कारण कितना अतिरिक्त मौजूद रहा होगा।
शोधकर्ताओं ने पारे की मात्रा में मापे गए बदलावों को पारे के गैस के रूप में उत्सर्जन की मात्रा में परिवर्तित करने के लिए एक विधि विकसित की। आधुनिक ज्वालामुखियों में पारा गैस उत्सर्जन और कार्बन उत्सर्जन के अनुपात का उपयोग करके अनुमान लगाया कि प्राचीन ज्वालामुखी कितना कार्बन छोड़ रहे थे।
शोध के हवाले से वैज्ञानिकों ने कहा कि लंबे रिकॉर्ड ने पहला स्पष्ट सबूत दिया है, जिसमें कहा गया है कि पिछले 1.5 करोड़ वर्षों की तुलना में इस समय अवधि के दौरान काफी बड़े ज्वालामुखी विस्फोट हुए थे।
शोध के मुताबिक, ब्रिटिश भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा खोदे गए वेल्स में मोच्रास फार्म (ललनबेडर) बोरहोल से बड़ी मात्रा में मौजूदा भू-रासायनिक आंकड़ों, साथ ही बहुत अच्छी तरह से सीमित कालक्रम ने एक अनूठा अवसर प्रदान किया जिसने इस विश्लेषण को सक्षम बनाया। मोच्रास कोर पर पिछले दशकों के काम ने शोधकर्ताओं को लाखों वर्षों में मूल गैस प्रवाह का पुनर्निर्माण करने में सक्षम बनाया, जो कि पैलियो-पर्यावरण अध्ययन के साथ-साथ पृष्ठभूमि स्थिति के लिए एक लक्ष्य भी है।