मनोविकारों का विज्ञान: ईर्ष्या का कोई महत्व हो तो यह बुरी चीज नहीं है
इलस्ट्रेशन: योगेंद्र आनंद

मनोविकारों का विज्ञान: ईर्ष्या का कोई महत्व हो तो यह बुरी चीज नहीं है

ईर्ष्या की भावना व्यक्तियों में उच्च सामाजिक पद पाने की मौलिक इच्छा जगाती है
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लगभग हर धर्म में घमंड, लालच, वासना, ईर्ष्या, लोभ, क्रोध और आलस्य को मनोविकार माना गया है और सीधे तौर पर इंसानों को इन विकारों से दूर करने का उपदेश दिया जाता है, लेकिन इन मनोविकारों के पीछे वैज्ञानिक अध्ययन क्या कहते हैं। यही जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने दुनिया के कुछ श्रेष्ठ वैज्ञानिकों से बात की, जिसे डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका के जनवरी 2025 के अंक में प्रकाशित किया गया। अब वैज्ञानिकों के इन साक्षात्कारों को सिलसिलेवार डाउन टू अर्थ हिंदी की वेबसाइट पर प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक आप दो विकारों घमंड व लालच के बारे में वैज्ञानिकों के विचार जान चुके हैं। आज जानते हैं कि ईर्ष्या के बारे में वैज्ञानिक क्या कहते हैं? इस बारे में डाउन टू अर्थ की साइंस रिपोर्टर रोहिणी कृष्णमूर्ति ने जेन्स लैंग से बात की, जो के हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर लैंग का कार्यक्षेत्र भावनाओं और व्यक्तित्व के साथ उनके संबंधों पर केंद्रित है। लैंग ईर्ष्या और उसके दो महत्वपूर्ण रूपों दया और दुर्भावना का भी अध्ययन करते हैं

Q

क्या ईर्ष्या की भावना सामाजिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक है?

A

ईर्ष्यालु होना समाज में बुरा माना जाता है। इसे घोर पाप माना जाता है। शायद यह सबसे आम भावना है, लेकिन ज्यादातर लोग इसे अनुभव करने से इनकार करते हैं। और, कोई व्यक्ति यह स्वीकार कर ले कि उसने कभी ईर्ष्या का अनुभव किया है, तो उसका अपमान किया जाता है। यह बहुत दिलचस्प स्थिति है। जब समाज में एक व्यक्ति की तुलना दूसरे व्यक्ति से की जाती है, तब ईर्ष्या का जन्म होता है। इसलिए इस ईर्ष्या की भावना का अध्ययन करने, उसकी जांच करने की बात समझ आती है।

यह समाज में ऊंचा पद हासिल करने की लोगों की इच्छा को भी दिखाती है। ये दोनों प्रक्रियाएं इंसानों की मौलिक मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएं हैं। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि लोग खुद ही अपनी तुलना दूसरों से करते हैं। अगर आप यह कहना चाहते हैं कि आप स्मार्ट या अच्छे हैं, तो इसके लिए अपनी तुलना किसी दूसरे समुदाय, समूह, संस्कृति के व्यक्तियों या फिर किसी दूसरे संबंधित समूह से करते हैं, फिर खुद को बेहतर दिखाते हैं।

Q

ईर्ष्या की भावना बहुत आम है, तो क्या इससे मनुष्य को कोई लाभ हुआ है?

A

आमतौर पर अधिकतर लोग ईर्ष्या का जिक्र बुराई के तौर पर करते हैं। खासकर, ईसाई संस्कृति में इसे सात घोर पापों में से एक माना गया है। लोगों में यह सोच बहुत गहराई से समाई है कि उनके मन में ईर्ष्या की भावना नहीं आनी चाहिए। लेकिन, मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम ईर्ष्या के बारे में ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचने से बचते हैं। हम भावनाओं को एक ऐसी चीज के रूप में देखते हैं, जो हालात से निपटने में लोगों की मदद करती है। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि ईर्ष्या तब उत्पन्न होती है, जब कम रैंक वालों की तुलना ऊंची रैंक वाले व्यक्ति से की जाती है। ईर्ष्या ही व्यक्तियों में समाज में ऊंचा पद पाने की मौलिक इच्छा को जन्म देती है। इसके परिणामस्वरूप लोग ऐसी प्रतिक्रियाएं करते हैं, जिससे उन्हें उस अंतर को कम करने में मदद मिलती है। कार्यात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो ईर्ष्या का एक निश्चित मूल्य है।

इसलिए अगर ईर्ष्या का कोई मूल्य, कोई महत्व है, तो यह बुरी चीज नहीं है, सही है न? लेकिन, इस बारे में दार्शनिकों का दृष्टिकोण एकदम अलग है। वे पूछते हैं कि क्या यह समाज के लिए अच्छी है। ईर्ष्यालु लोग अपनी निम्न श्रेणी की वजह से पैदा हुए हालात से निपटने के लिए जो भी करते हैं, उससे समाज के दूसरों को नुकसान हो सकता है। उदाहरण के तौर पर ईर्ष्या आपको ऐसे काम करने के लिए प्रेरित कर सकती है, जो अक्सर समाज के लिए नुकसानदेह होते ही हैं, आपको भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इस अर्थ में ईर्ष्या को मूल्यवान नहीं माना जा सकता। इसका मतलब है कि ईर्ष्या को एक हद तक सही ठहराया जा सकता है। लोगों को इसे महसूस करने से बचना नहीं चाहिए क्योंकि यह उन्हें महत्वपूर्ण परिस्थितियों से निपटने में मदद करती है। लेकिन, यह नहीं भूलना चाहिए कि ईर्ष्या कुछ ऐसी प्रतिक्रियाओं की वजह भी बन सकती है, जिन्हें कम से कम नैतिक आधार पर तो महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है।

इस बात के सबूत पहले से ही मौजूद हूं कि जब लोग दूसरों की शारीरिक विशेषताओं को देखकर उनसे खुद की तुलना करते हैं और उनके जैसी बनावट, रंग-रूप चाहते हैं, तो ईर्ष्या उन्हें डाइट पिल्स लेने और ऐसी न्यूट्रिशनल डाइट अपनाने के लिए प्रेरित कर सकती है, जो उनके लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है। हालांकि, किसी भी भावना के लिए यह गारंटी के साथ नहीं कहा जा सकता कि वह हमेशा समाज को बेहतर ही बनाएगी। उदाहरण के लिए, मनोविज्ञान में अक्सर यह तर्क किया जाता है कि लोगों को अतीत में कुछ ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, जो उनके व्यक्तिगत आवश्यकताओं और इच्छाओं से संबंधित थीं। इस निष्कर्ष का समर्थन करने वाले बहुत सारे सबूत मौजूद हैं कि लोगों में उच्च स्तर की सामाजिक रैंक पाने की मौलिक इच्छा होती है। इसकी वजह आसानी से समझी जा सकती है, क्योंकि किसी भी पदानुक्रम में ऊंचे स्थान पर होने के कई लाभ होते हैं। आपको भौतिक लाभ और सामाजिक समर्थन जैसे कई मूल्यवान संसाधन मिलते हैं। इसके साथ ही बेहतर स्वास्थ्य और लंबी उम्र जैसी कई फायदे भी मिलते हैं।

यह बहुत ही विश्वसनीय प्रक्रिया है, जो आपके जीन को आगे बढ़ाने में मदद कर सकती है। लेकिन फिर, इन विकासवादी व्याख्याओं को तैयार कर पाना हमेशा मुश्किल होता है। मेरा मतलब है कि इस कहानी को आसानी से समझा जा सकता है, लेकिन मैं समय में पीछे जाकर यह जांच नहीं कर सकता कि क्या यह सच में काम करता है। हमारे पास केवल इस बात के सबूत हैं कि उच्च सामाजिक रैंक के संकेत ईर्ष्यालु प्रतिक्रियाओं को बढ़ाते हैं, ताकि लोग समाज में ऊंची स्थिति हासिल कर सकें।

Q

इंसानों की सफलता की एक बड़ी वजह उनमें सहयोग की भावना थी। ऐसे में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने वाली ईर्ष्या का इससे क्या संबंध है?

A

मुझे लगता है कि ईर्ष्या मुख्य रूप से प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थितियों में महत्वपूर्ण होती है और प्रतिस्पर्धा से बचने का कोई तरीका नहीं है। कुछ संसाधन सीमित हैं। विकासात्मक दृष्टिकोण से, हर व्यक्ति को वह सब नहीं मिल सकता, जो वह चाहता है।

हम अध्ययन करते हैं कि लोग निचले पायदान पर होने से बनने वाली स्थितियों से कैसे निपटते हैं। हम अक्सर “सकारात्मक ईर्ष्या” और “दुर्भावनापूर्ण ईर्ष्या” की तुलना करते हैं। अगर आपकी तुलना किसी ऐसे व्यक्ति से की जाती है, जो आपसे ऊंची रैंक पर है, तो आप उसकी तरह ऊंची रैंक पाने के लिए और ज्यादा कोशिश कर सकते हैं, जिसे सकारात्मक ईर्ष्या कहते हैं। या फिर, आप ऊंची रैंक वाले व्यक्ति की स्थिति को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर सकते हैं, जिसे दुर्भावनापूर्ण ईर्ष्या कहते हैं।

साक्ष्य बताते हैं कि सकारात्मक ईर्ष्या खासतौर पर ऐसी परिस्थितियों में है, जिनमें समाज में प्रतिष्ठा के आधार पर सोशल रैंक तय की जाती है। इसलिए लोग सम्मान पाने के लिए एक निश्चित सामाजिक रैंक हासिल करने की कोशिश करते हैं। वे दूसरों के साथ अपने कौशल और ज्ञान को साझा करके आंशिक तौर पर प्रभावशाली स्थिति भी पा सकते हैं। इसी तरह, ऊंची रैंक पर मौजूद कुछ लोग यह बताने के लिए तैयार रहते हैं कि आप भी कैसे उनकी तरह सफल हो सकते हैं, ताकि समाजिक मूल्यों को बेहतर बनाया जा सके। इस दृष्टिकोण से इसे सहयोग के रूप में भी समझा जा सकता है।

लेकिन इसके बाद भी कुछ अपवाद होते हैं। कुछ समूह सहयोग कर सकते हैं और ऐसे लक्ष्यों के लिए ईर्ष्यालु प्रतिक्रियाओं को बढ़ावा दे सकते हैं, जो जरूरी नहीं कि सही ही हों। मेरे एक दार्शनिक मित्र इसके लिए एक उदाहरण देते हैं, यदि आप उत्पीड़क यानी यातना देने वाले बहुत सफल व्यक्ति से सकारात्मक तौर पर ईर्ष्या करते हैं और उत्पीड़क इस तरह से काम करता है कि हर कोई दूसरों को प्रताड़ित करने में बहुत अच्छा हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि यह नैतिक रूप से सही भी हो।

इलस्ट्रेशन: योगेंद्र आनंद
Q

सकारात्मक और दुर्भावनापूर्ण, ईर्ष्या के दो रूपों के बीच यह अंतर कब उभरा? कौन सी चीजें सकारात्मक ईर्ष्या या दुर्भावनापूर्ण ईर्ष्या को जन्म देती हैं और क्या एक व्यक्ति दोनों का अनुभव कर सकता है?

A

1990 के दशक से ही ईर्ष्या के विभिन्न रूपों पर चर्चा होती रही है। 2009 में नीदरलैंड से प्रकाशित एक विशेष शोधपत्र में इन दोनों शब्दों का उल्लेख किया गया था। तब से कई शोधपत्रों में इस पर गहन अध्ययन किया जा चुका है।

जहां तक बात है इन दोनों प्रकार की ईर्ष्या में से किसी एक को ज्यादा महसूस करने की, तो भावनाओं पर हुए अधिकतर शोध बताते हैं कि ये इस पर निर्भर करती हैं कि लोग परिस्थितियों का मूल्यांकन कैसे करते हैं। इस सिद्धांत को अप्रेजल थ्योरी या स्वचालित मूल्यांकन कहते हैं। आप इसे इस तरह समझ सकते हैं- लोग हमेशा हालात के बारे में सवाल करते रहते हैं और उन्हें इन सवालों का जिस तरह से जवाब मिलता है, उसी से उन्हें अलग-अलग भावनाएं महसूस होती हैं। साक्ष्य बताते हैं कि सकारात्मक ईर्ष्या मुख्य रूप से तब उत्पन्न होती है, जब लोग अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की तीव्र इच्छा महसूस करते हैं। जबकि, दुर्भावनापूर्ण ईर्ष्या का जन्म तब होता है, जब लोग उच्च सामाजिक स्थिति वाले व्यक्ति को उस पद के लिए अयोग्य मानते हैं। उदाहरण के तौर पर जब कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए समाज में ऊंची रैंक रखता है, क्योंकि वह स्कूल में टीचर का पसंदीदा छात्र था या वह अमीर माता-पिता की संतान है, या फिर उसके पास बस अच्छे जीन हैं, तो मैं अपने इस प्रतिद्वंद्वी को उसकी ऊंची रैंक के काबिल नहीं मानता। अगर लोग अक्सर इसी तरह से मूल्यांकन करते हैं और फैसले लेते हैं, तो वे ईर्ष्या के दोनों रूपों में से किसी एक को महसूस करने की संभावना ज्यादा हो जाती है।

उदाहरण के लिए कुछ लोग जिनमें आत्ममुग्धता का स्तर उच्च होता है, वे दुर्भावनापूर्ण ईर्ष्या का अनुभव ज्यादा करते हैं। वे सोचते हैं कि दूसरे उनकी महानता की सराहना नहीं करते, इसलिए वे दूसरों को नीचा दिखाने की आक्रामक कोशिशें करते हैं। वे मानते हैं कि दूसरों को जो सहूलियतें मिल रही हैं, वे उसके काबिल नहीं हैं। ऐसी सोच उनके भीतर दुर्भावना से भरी ईर्ष्या और बढ़ा देती है।

और जहां तक बात है आपके सवाल के दूसरे हिस्से की, तो मैं किसी भी स्थिति में इन दोनों तरह की ईर्ष्या में से किसी एक को, या दोनों को एकसाथ महसूस कर सकता हूं। यह भी हो सकता है कि इनमें से किसी भी तरह की ईर्ष्या महसूस ही न हो। बहुत हद तक यह संभव है कि कोई व्यक्ति दोनों प्रकार की ईर्ष्या महसूस कर सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि हर बार एक जैसी ही परिस्थिति हो। हर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के आधार पर ईर्ष्या के दोनों प्रकार में से किसी एक को ज्यादा बार महसूस कर सकता है।

लेकिन, यह सब सिर्फ अनुमान भर हैं। इस दावे का समर्थन करने के लिए कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन मुझे व्यक्तिगत रूप से हमेशा लगता है कि यह बिल्कुल संभव है कि ईर्ष्या एक क्रम में पनपती और बढ़ती है। यह बात पूरी तरह से समझ आती है कि अगर आप निचली रैंक पर हैं, तो पहले अपनी स्थिति सुधारने की कोशिश करते हैं। लेकिन, ऐसा करने में असफल रहते हैं, तो धीरे-धीरे आपमें दुर्भावनापूर्ण ईर्ष्या बढ़ सकती है।

Q

ईर्ष्या को लेकर हमारी समझ में क्या खामियां हैं?

A

मेरे दिमाग में दो बड़ी खामियां आती हैं। पहली, सामान्य तौर पर हम जानते हैं कि ईर्ष्या कैसे काम करती है। हमें पता है कि जब लोग अपनी सामाजिक रैंक की तुलना दूसरों से करते हैं, तो वे या तो खुद को सुधारने के लिए और ज्यादा कोशिशें कर सकते हैं, या फिर दूसरों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर सकते हैं। लेकिन, ईर्ष्या महसूस करने वाले व्यक्ति को इसका कोई लाभ भी मिलता है, इस बारे में ज्यादा सबूत नहीं हैं। दूसरी, विभिन्न संस्कृतियों के बीच अंतर को लेकर हमारी समझ बहुत कम है। इसका अंदाजा लगाना बहुत आसान है कि अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग चीजें ईर्ष्या पैदा करेंगी। एक बड़ा दिलचस्प पैटर्न है, कुछ भाषाओं में तो सकारात्मक ईर्ष्या और दुर्भावनापूर्ण ईर्ष्या के लिए अलग-अलग शब्द हैं, जबकि कुछ संस्कृतियों में ऐसा नहीं है।

क्या इससे कोई फर्क पड़ता है? अलग-अलग धार्मिक पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों के बारे में क्या कहेंगे? ईसाई धर्म में ईर्ष्या से जुड़ी भावनाओं को त्यागने की एक लंबी परंपरा रही है, लेकिन शायद दूसरे धर्मों में ऐसा नहीं है। क्या इन सांस्कृतिक भिन्नताओं से यह भविष्यवाणी भी की जा सकती है कि ईर्ष्या कितने तरीकों से जन्म ले सकती है, या क्या वह समाज में और ज्यादा बढ़ेगी? इन सवालों का जवाब खोजने और समझने में हमें अभी लंबा समय लगेगा।

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