मनोविकारों का विज्ञान: प्रतिस्पर्धा के लिए कड़ी मेहनत करने का मतलब ईर्ष्यालु होना नहीं
ईर्ष्या से दूर रहने की सलाह दुनिया के लगभग सभी धर्मों में दी जाती है, लेकिन वैज्ञानिक का मत थोड़ा अलग है। आइए जानते हैं कि एंड्रयू ओसवाल्ड का क्या मत है। यूके के वारविक विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र और व्यवहार विज्ञान के प्रोफेसर ओसवाल्ड ने आर्थिक सफलता और खुशहाली में ईर्ष्या की भूमिका को जांचा है। उनसे डाउन टू अर्थ की साइंस रिपोर्टर रोहिणी कृष्णमूर्ति ने बात की
क्या इंसानों में ईर्ष्या की भावना जन्मजात होती है?
हां, मुझे लगता है कि ईर्ष्या इंसानों का स्वाभाविक गुण है। हम उच्च आर्थिक और सामाजिक स्थिति चाहते हैं। हमारे चारों ओर इंसानी दुनिया में तुलना होती रहती है और इस बात पर आसानी से भरोसा किया जा सकता है कि इंसानों में ईर्ष्या की भावना जन्मजात होती है। कोई इस बात की परिकल्पना भी कर सकता है कि ईर्ष्या पशु जगत से आई है, जहां विभिन्न प्रकार के पशुओं को साथी बनाने से लेकर संसाधनों को हासिल करने तक, हर चीज के लिए स्थिति में ऊंची रैंकिंग पाने का संघर्ष करना पड़ता है।
मैं इसे बहुत स्वाभाविक गुण तो मानूंगा, लेकिन इंसानों की यह भावना सबसे ज्यादा प्रशंसा योग्य नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारी तरह ही चिम्पांजी और ओरंगउटान से लेकर दूसरे बहुत से जानवरों में भी ईर्ष्या की भावना पाई जाती है।
मुझे लगता है कि ईर्ष्या इंसानों की बुनियादी भावना है, इसलिए इस पर अध्ययन किया जाना जरूरी है। और, इसका नीतिगत प्रभाव भी है। ब्रिटिश दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल ने कहा था कि किसी राष्ट्र को खुशहाल बनाने के लिए ईर्ष्या को कम किया जाना चाहिए। अधिकतर लोग मानते हैं कि ईर्ष्या लोगों को भीतर से खा जाती है, उन्हें खोखला कर देती है। यह बर्बाद कर देने वाली भावना है। और, हमारे पास जो सबूत मौजूद हैं, वे इस सामान्य समझ से मेल खाते हैं। इसके फायदे तो बहुत ज्यादा नहीं हैं, लेकिन इसकी बड़ी कीमत जरूर चुकानी पड़ती है।
इस बारे में मेरा अपना नजरिया है कि आधुनिक दुनिया में ऐसी कई संस्थाएं हैं, जो ईर्ष्या को और बढ़ाती हैं। ऐसी संस्थाएं और हालात आप भारत में देख सकते हैं और मैं अपने देश में। यह समाज के लिए एक बड़ी समस्या है। बेहतर होगा अगर हम ऐसी संस्थाएं बनाएं, जो ईर्ष्या और दूसरों से तुलना की आदत को कम करें।
आपका शोध आधुनिक समाज में विज्ञापन और सोशल मीडिया जैसी ऐसी संस्थाओं के विकास के बारे में बात करता है, जो लोगों को किसी न किसी चीज की कमी महसूस कराती हैं और उन्हें दूसरों से ईर्ष्या करने पर मजबूर करती हैं। आप कब से इस प्रवृत्ति को देख रहे हैं?
मैंने अपने शोध में प्रमाण के तौर पर ऐसे दस्तावेज दिए हैं, जिनसे साबित होता है कि विज्ञापन में बढ़ोतरी के बाद खुशियों में गिरावट आई है। पूरी दुनिया में विज्ञापन उद्योग का उद्देश्य यही है कि आपको हमेशा कमियां महसूस कराई जाएं। विज्ञापन देने वाले लोगों को झटपट खुश करने का व्यवसाय नहीं कर रहे हैं, अगर हम सब खुश और संतुष्ट तो तो वे सारी चीजें नहीं खरीद रहे होते, जो वे हमें बेचना चाहते हैं। इसलिए मैं विज्ञापन को एक बुरी चीज मानता हूं और मुझे लगता है कि हमें किसी भी ऐसी चीज के विज्ञापन पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए जिसकी कीमत उदाहरण के तौर पर 10 डॉलर से ज्यादा हो। मुझे नहीं लगता कि मक्खन या अंगूर जैसे उत्पादों पर विज्ञापन का ज्यादा असर पड़ता है। लेकिन, कारों और फैशन की बात हो, तो विज्ञापन बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं। मेरी राय में शायद इन चीजों का सामाजिक मूल्य भी है।
ईर्ष्या और विज्ञापन के बारे में ऐसे तर्क भी दिए जाते हैं कि ये बाजार को बढ़ावा दे सकते हैं। इसके बारे में आपकी क्या राय है?
विज्ञापनदाता अक्सर कहते हैं कि विज्ञापन बहुत अच्छे हैं, क्योंकि वे उपभोक्ताओं को दिखाते हैं कि उनकी कार, फैशन जैकेट और ऐसी ही दूसरी चीजें कितनी बेहतर हैं। आमतौर पर मैं इन बातों पर भरोसा नहीं करता। आधुनिक चीजों के नाम पर जिन उत्पादों का प्रचार किया जाता है, वे दूसरी कार कंपनियों और ब्रांड्स के उत्पादों से ज्यादा अलग नहीं लगती हैं। मुझे लगता है कि विज्ञापनदाता उपभोक्ताओं को उनके काम की कोई जानकारी दे रहे हैं, बल्कि समाज में स्टेटस बनाए रखने की रेस को बढ़ावा दे रहे हैं।
ऐसे तर्क दिए जाते हैं कि ईर्ष्या से प्रेरित प्रतिस्पर्धा लोगों को कड़ी मेहनत करने या जीवन में बड़ी चीजें हासिल करने के लिए प्रेरित कर सकती है।
हां, इस सिद्धांत पर गहराई से सोचा जा सकता है। यह एक वैज्ञानिक संभावना है कि ईर्ष्या की भावना लोगों को कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरित करती है, इसलिए इसकी अहमियत है। लेकिन, हमारे डेटा में इस बात के कोई सबूत नहीं मिलते। हम लंबे समय से करीब 20,000 वयस्क व्यक्तियों की निगरानी कर रहे हैं और जीवन के विभिन्न पड़ावों पर उनकी ईर्ष्या के स्तर को माप रहे हैं। फिर हम यह माप सकते हैं कि उनकी आय बढ़ती है या नहीं। इसके बाद हम ईर्ष्यालु लोगों की तुलना गैर-ईर्ष्यालु लोगों से कर सकते हैं।
हम पाते हैं कि बहुत ज्यादा ईर्ष्या से इस बात का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि इससे भविष्य में आर्थिक तौर पर सफलता मिलेगी या नहीं, लेकिन यह मेंटल हेल्थ के बहुत ज्यादा खराब होने का प्रमुख संकेत जरूर है।
मैं इसे एक वैज्ञानिक संभावना के तौर पर भी देखता हूं कि कोशिशों को बढ़ावा देने के लिहाज से ईर्ष्या की भूमिका काफी अहम हो सकती है। लेकिन, हमारे डेटा में इसके लिए कोई सबूत नहीं है। मैं ऐसे किसी वास्तविक प्रमाण के बारे में भी नहीं जानता। मैं हमेशा से ही सबूतों को स्वीकार करने के मामले में खुले विचारों वाला रहा हूं, लेकिन अब तक मुझे ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिल सका है।
ईर्ष्या की तरह प्रतिस्पर्धा भी एक स्वाभाविक मानव भावना है। काम के दौरान मैं जिंदगी भर अपने सहकर्मियों को देखता रहा हूं। वे जमकर मेहनत करते हैं और मैं भी कड़ी मेहनत करता हूं। एक रिसर्चर के तौर पर मैं भी इस प्रतिस्पर्धा का हिस्सा हूं। मैं दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में रहा हूं और मैंने बहुत से प्रतिभाशाली लोगों को देखा है। प्रतिस्पर्धा से अवगत होने और कड़ी मेहनत करने का मतलब ईर्ष्यालु होना नहीं है।
आपको क्यों लगता है कि ईर्ष्या की भावना फायदेमंद नहीं है?
मुझे इस पर संदेह है। दरअसल, ईर्ष्या निराशा के साथ आने वाली एक तरह “अवशिष्ट भावना” है, जो किसी घटना या अनुभव के बाद बची और अनसुलझी रह जाती है। मुझे ऐसा लगता है कि ईर्ष्या असफलता का सामना करने के बाद आती है और फिर यह गुस्से या नाराजगी की ओर ले जाती है।
इसलिए शायद ईर्ष्या का जन्म जब तक होता है, तब तक इस बात के लिए बहुत देर हो चुकी होती है कि वह प्रेरक बन सके। प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने वाली ये भावनाएं हर चीज की शुरुआत में जरूरी होती हैं, क्योंकि वे आपको ज्यादा मेहनत करने के लिए प्रेरित करती हैं। लेकिन, ईर्ष्या ऐसी भावना है, जो सब कुछ खत्म होने के बाद बची रह जाती है। यह सिर्फ ईर्ष्यालु व्यक्ति की खुशियां ही नहीं कम करती, बल्कि उसके व्यवहार को भी बुरा बनाती है, जो उसके आसपास के दूसरे लोगों की खुशियों को कम कर देती है।
क्या ईर्ष्या नफरत को बढ़ावा देती है?
कभी-कभी हमें बहुत ज्यादा ईर्ष्या दिखाई देती है, जो नफरत जैसी लग सकती है। लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा होना स्वाभाविक नहीं होगा। हमारे डेटा के मुताबिक सिर्फ 1 फीसदी लोगों ने ही खुद को बहुत ज्यादा ईर्ष्यालु मानते हैं। हम सबसे पूछते हैं, “क्या आप खुद को एक ईर्ष्यालु व्यक्ति मानते हैं?” इसके जवाब के तौर पर उन्हें एक से सात तक नंबर देने के लिए कहा गया। इसमें सात नंबर सबसे ज्यादा ईर्ष्यालु होने का संकेत है। आधे से ज्यादा लोग खुद को एक या दो नंबर देते हैं। लेकिन, 1 प्रतिशत लोग खुद को “बेहद ईर्ष्यालु” व्यक्ति की श्रेणी में रखते हैं।
हालांकि, इसके बाद भी मुझे उम्मीद है कि इनमें से अधिकतर लोग अपनी ईर्ष्या के कारण किसी से नफरत नहीं करते। सामान्य तौर पर मुझे लगता है कि ईर्ष्या को नफरत से जोड़ना एकदम चरम स्तर की बात है। हम जानते हैं कि यह दुनिया ईर्ष्या से भरी हुई है। लेकिन, गनीमत है कि ईर्ष्या से जुड़ी नफरत बहुत ज्यादा नहीं है। अफसोस की बात है कि जब हम 2024 में दुनिया को देखते हैं, तो जमीन, धर्म, जातीय भेदभाव और ऐसी ही दूसरी चीजों से जुड़ी बहुत ज्यादा नफरत दिखाई देती है। लेकिन, आम धारणा के विपरीत इसकी वजह ईर्ष्या नहीं है।
अगर ईर्ष्या का कोई लाभ ही नहीं है, तो फिर आखिर इसका अस्तित्व ही क्यों है?
यह एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक सवाल है और मुझे इसका जवाब नहीं पता। लेकिन, मुझे अब तक इस बात का भी कोई सबूत नहीं मिला है कि ईर्ष्या का कोई सकारात्मक पक्ष भी है। हमने खुले दिमाग से यह प्रोजेक्ट शुरू किया था। हमारे भीतर कोई पूर्वाग्रह नहीं था। हम यह भी नहीं जानते थे कि आखिर नतीजे कैसे आएंगे।
चूंकि मेरी पीएचडी अर्थशास्त्र में है और मुझे मिले प्रशिक्षण की वजह से मैं थोड़ा कठोर स्वभाव वाला भी था, इसलिए मुझे लगा कि ईर्ष्या का कोई अच्छा पक्ष जरूर होगा। खासतौर पर जब मैं इसके बारे में सोचता था, तो लगता था कि यह कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरित करती होगी। लेकिन, अब मैं ईर्ष्या की अहमियत को लेकर काफी निराश हूं। मुझे इसके समर्थन में कोई सबूत नहीं मिले।
ईर्ष्या और लोगों व समाज पर इसके प्रभाव से जुड़ी समझ में और किस तरह की खामियां हैं?
मैं यही कहना चाहूंगा कि ईर्ष्या के बारे में हमारी समझ में अभी भी कई वैज्ञानिक खामियां हैं। मुझे सच में उम्मीद है कि ये खामियां मेरी जिंदगी में ही दूर हो जाएंगी।
शायद सबसे बुनियादी सवाल यह है- क्या कारण है कि कुछ लोग बहुत ईर्ष्यालु होते हैं और कुछ नहीं? क्या उनके बचपन में कोई बड़ी घटना घटित हुई थी? क्या ईर्ष्या के लिए अलग-अलग आनुवंशिक कारण होते हैं? क्या उनके साथ दफ्तर में ऐसी कोई बात हुई थी? क्या उन्होंने अपने माता-पिता में कुछ ऐसा देखा? क्या इसका कोई संबंध उस संस्कृति और धर्म से है, जिसमें वे पले-बढ़े? ये मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगते हैं।
मैं बर्ट्रेंड रसेल की बात को फिर से दोहराना चाहूंगा। अगर ईर्ष्या पूरे समाज को बड़े पैमाने पर मानसिक तौर पर नुकसान पहुंचाती है, तो हमें इसे कम करने के बारे में सोचना होगा। ईर्ष्या का समाधान खोजने से पहले हमें उसके कारणों को समझना होगा कि आखिर इसका जन्म कैसे हुआ। बिना इस बात को पूरी तरह से समझे हम बदलाव नहीं ला सकते।