दुर्लभ खोज: भारतीय वैज्ञानिकों ने जैसलमेर में खोजी जुरासिक युग की हाइबोडॉन्ट शार्क की नई प्रजाति

स्ट्रोफोडसजैसलमेरेंसिस प्रजाति की यह शार्क करीब 6.5 करोड़ साल पहले क्रेटेशियस युग के अंत में पूरी तरह विलुप्त हो गई थी
राजस्थान के जैसलमेर से मिले हाइबोडॉन्ट शार्क के टूटे हुए दांत, फोटो: प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो
राजस्थान के जैसलमेर से मिले हाइबोडॉन्ट शार्क के टूटे हुए दांत, फोटो: प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो
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भारतीय वैज्ञानिकों ने राजस्थान के जैसलमेर में हाइबोडॉन्ट शार्क की नई प्रजाति के अवशेषों को खोज निकाला है। शार्क की यह प्रजाति जुरासिक काल से सम्बन्ध रखती हैं जो 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व  ही विलुप्त हो चुकी हैं। अपनी इस खोज के दौरान वैज्ञानिकों को इन शार्कों के दांतों की जानकारी मिली है।

अपनी इस खोज के बारे में जानकारी देते हुए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पेलियोन्टोलॉजी डिवीजन के वरिष्ठ भूविज्ञानी श्री कृष्ण कुमार ने जानकारी दी है कि इस क्षेत्र की जुरासिक युग की चट्टानों में पहली बार हाईबोडॉन्ट शार्क के अवशेषों की सूचना मिली थी। जुरासिक काल की यह चट्टानें करीब 16 से 16.8 करोड़ वर्ष पुरानी हैं। गौरतलब है कि हाईबोडॉन्ट शार्क, मछलियों की एक विलुप्त प्रजाति है जो ट्राइसिक और प्रारंभिक जुरासिक काल के दौरान समुद्र और नदी दोनों जगहों पर पाई जाती थी। 

हालांकि, इसके बावजूद जुरासिक युग के मध्य से समुद्री वातावरण में इस हाईबोडॉन्ट शार्क का पतन शुरू हो गया था। इस मछली ने कुछ समय तक तो दूसरी समुद्री शार्क की तरह वातावरण को अपनाने की कोशिश की थी, लेकिन इसके बावजूद करीब 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व  क्रेटेशियस युग के अंत में हाइबोडॉन्ट आखिरकार पूरी तरह विलुप्त हो गई थी।

नई स्ट्रोफोडसजैसलमेरेंसिस प्रजाति से सम्बन्ध रखती है यह शार्क

गौरतलब है कि जैसलमेर में मिले शार्क के यह टूटे हुए दांत, अनुसंधान दल द्वारा नामित शार्क की एक नई प्रजाति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसका नाम स्ट्रोफोडसजैसलमेरेंसिस है। भारतीय उपमहाद्वीप से पहली बार इस जीनस स्ट्रोफोडस की पहचान की गई है, जबकि एशिया में यह केवल तीसरा ऐसा मामला है। जब इस विलुप्त प्रजाति की शार्क के दांत मिले हैं।

इससे पहले जापान और थाईलैंड में ऐसी ही प्रजाति के पाए जाने के सबूत सामने आए थे। शार्क की इन नई प्रजातियों को हाल ही में शार्क रेफरेंस डॉट कॉम में भी शामिल किया गया है, जो एक अंतरराष्ट्रीय मंच है। जिसे इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन), स्पीशीज सर्वाइवल कमीशन (एसएससी) और जर्मनी के सहयोग से संचालित किया जाता है।

देखा जाए तो यह खोज जैसलमेर में जुरासिक वर्टीब्रेट जीवाश्मों के अध्ययन में एक मील का पत्थर है, जोकि वर्टीब्रेट जीवाश्मों के क्षेत्र में आगे के शोध के लिए एक नया दरवाजा खोलती है। इस खोज से जुड़ी विस्तृत जानकारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त पैलियोबायोलॉजी के जर्नल हिस्टोरिकल बायोलॉजी के अगस्त अंक में प्रकाशित हुई है। 

वहीं यदि भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) की बात करें तो उसकी स्थापना वर्ष 1851 में की गई थी। जिसे मुख्य रूप से रेलवे के लिए कोयले के भंडारों का पता लगाने के लिए स्थापित किया गया था। हालांकि वर्तमान में जीएसआई न केवल देश में जरुरी भू-विज्ञान से जुड़ी जानकारियां एकत्रित करता है साथ ही इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति प्राप्त है।

इसका मुख्य कार्य राष्ट्रीय स्तर पर भू-वैज्ञानिक जानकारी और खनिज संसाधनों का आंकलन करना है। वर्तमान में यह संस्थान न केवल सर्वेक्षण और मानचित्रण पर निर्भर है साथ ही रिमोट सेंसिंग और उपग्रहों और कंप्यूटर आधारित तकनीकों की मदद से भी भू-वैज्ञानिक जानकारियों और स्थानिक आंकड़ों को एकत्र और विश्लेषित कर रहा है।   

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