वोल्गा से गंगा नहीं, गंगा से वोल्गा की ओर बही इतिहास की धारा!

बताया गया था कि स्तेपी में वोल्गा नदी के किनारे से जो सभ्यता शुरू हुई, वह किस तरह गंगा घाटी तक पहुंची, मगर ताजा शोध ठीक विपरीत बात कर रहा है
Photo: BanaiLal, Hisar, Haryana
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जेनेटिक साइंस ने भारतीय इतिहास को नया नजरिया दिया है। पांच सितंबर को डेक्कन कॉलेज पुणे के इतिहासकारों ने दो महत्वपूर्ण घोषणाएं की हैं। इस डीम्ड यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रो. वसंत शिंदे ने हरियाणा में राखीगढ़ी पुरातत्व स्थल के मानव कंकालों की रिसर्च के नतीजे घोषित करते हुए कहा कि दक्षिण एशिया के लोगों का खून एक ही है। बाहर से व्यापक पैमाने पर लोग नहीं आए थे। हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के लोग इस विशाल भूखंड के मूल निवासी थे। इन्होंने ही वेदों-उपनिषदों की रचना की। जिन्हें इतिहास में आर्य जाति कहा जाता है, वे भी यही लोग थे। यहीं से लोग सैंट्रल एशिया की ओर लोग गए। न कि उल्टा हुआ। उन्होंने राखीगढ़ी में दबे मिले मानव कंकालों को अपने अध्ययन का मुख्य आधार बनाया है।

भारतीय इतिहास में करीब सौ बरस तक यही पढ़ाया गया था कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे। वे आधुनिक यूरोप या मध्य एशिया से भारत आए थे। उन्होंने हड़प्पा-मोहनजोदड़ो पर हमला किया। यहां के लोगों को मार भगाया। उनकी उस नगरीय सभ्यता को नष्ट कर दिया, जैसी उस समय दुनिया में और कहीं भी विकसित नहीं हो पाई थी। यह ईसा से दो हजार साल पहले की बात है। इस तरह आर्यों के भारत पर हमले के नाम से अलग अध्याय स्कूली किताबों में भी पढ़ाए जाने लगे।

हड़प्पा की नई कहानी आज से ठीक सौ साल पहले शुरू हुई। मोहनजोदड़ो का मतलब ही स्थानीय बोली में मुर्दों का टीला है। लोग सदियों तक इसे यही मानते रहे थे। उस समय ब्रिटिश राज में यहां रेलवे लाइन बिछाई जाने लगीं तो ठेकेदारों ने रेलवे ट्रैक बिछाने के लिए इस टीले को खोदना शुरू किया। काफी कुछ बर्बाद हो गया। जब ब्रिटिश सरकार की आंख खुली तो इसे पुरातत्व विभाग को सौंपने की सोची गई।

1919 में अमृतसर में जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद देश राजनीतिक बवंडर से जूझ रहा था तो उसी समय पंजाब और सिंध में इतिहास की नई खोज भी शुरू हो रही थी। बंगाल के आर्कियोलॉजिस्ट राखल दास बनर्जी को सिंध में मोहनजोदड़ो की खुदाई का काम सौंपा गया। शुरुआत में उन्हें लगा कि यह कोई पुराना बौद्ध स्तूप रहा होगा। मध्य प्रदेश में सांची के स्तूप की तरह। उन्होंने इसे ईसा बाद 150-500 साल का माना। मगर चार साल बाद ही 1924-25 में काशीनाथ नारायण दीक्षित और अगले साल जॉन मार्शल ने मोहनजोदड़ो में गहन खुदाई करवाई। लाहौर के कुछ करीब हड़प्पा में भी वैसी ही पुरानी सभ्यता दफ्न होने का राज खुला। करीब साढ़े तीन हजार साल पहले खत्म हो चुकी ऐसी सभ्यता,  जो दुनिया में कहीं और नहीं थी। बिल्कुल नाप-जोख कर बनी हुई नगर बस्तियां। बड़े-बड़े स्नानागार। अन्न के भंडार। तमाम तरह की मूर्तियां। लिपि भी मिली तो कंकाल भी। इसे हड़प्पा सभ्यता या सिंधु नदी की घाटी सभ्यता कहा गया। ठीक मिस्र की नील नदी की सभ्यता, मैसोपोटामिया की दजला-फरात की सभ्यता की तरह।

मोहनजोदड़ो में बड़ी तादाद में कंकाल मिलने से इस धारणा ने जोर पकड़ा कि यह सभ्यता किसी हमले से नष्ट हुई। इससे पहले भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में गहरी समानता साबित हो चुकी थी। भाषाविद इसमें शोध कर ही रहे थे। इसलिए कुछ इतिहासकारों ने यह सहज सिद्धांत गढ़ा कि सिंधु नदी की घाटी के नागरिकों पर घुड़सवार जाति ने हमला कर उनकी सभ्यता मिटा दी। उन्हें यहां से मार भगाया। इस जाति को आर्य कहा गया। इसे आधुनिक यूरोप में स्तेपी घास के मैदानों से आया हुआ माना गया। यह भी कहा जाने लगा कि दक्षिण की द्रविड़ भाषा परिवार के लोग ही सिंधु घाटी के मूल निवासी थे। इस तरह भारतीय इतिहास में एक गहरा विभाजन भी पैदा कर दिया गया, जिसने जल्द ही राजनीतिक रंग भी ले लिया। आज भी ऐसा ही है।

मोहनजोदड़ो में खुदाई के दो दशक बाद 1943 में आई कथा-पुस्तक वोल्गा से गंगा ने इस मिथिहास को और गहरा किया। हिंदी के महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने यह किताब 1942 में हजारीबाग जेल में लिखी थी। तब वह स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए थे। वोल्गा से गंगा 20 स्वतंत्र कहानियों की किताब है, लेकिन हर कथा अगली कथा से जुड़ी हुई है। ईसा पूर्व 6000 से 1942 तक का कालखंड इन कहानियों में है। इसमें गल्प के जरिए उन्होंने उस समय की प्रचलित इतिहास दृष्टि दी। किस्सों से बताया कि किस तरह स्तेपी में वोल्गा नदी के किनारे से जो सभ्यता शुरू हुई, वह किस तरह गंगा घाटी तक पहुंची।

मगर ताजा शोध ठीक विपरीत निष्कर्ष देता है। इसके अनुसार लोग इधर से उधर गए। हिसार के पास राखीगढ़ी भी हड़प्पा सभ्यता का केंद्र है। ठीक उसी तरह जैसे पंजाब में रोपड़, राजस्थान में कालीबंगा और राजस्थान में लोथल हैं। राखीगढ़ी में मानव कंकाल मिले हैं। डेक्कन कॉलेज की आर्कियोलॉजी की टीम ने हिसार में राखीगढ़ी के टीले में दबे एक कब्रिस्तान से मानव कंकालों के 40 डीएनए सैंपल लिए थे। इन्हें हैदराबाद में सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी की लैब में भेजा गया। यहां डा. नीरज राय ने हर सैंपल के दो सेट तैयार किए। एक सेट का अध्ययन भारत में किया गया। दूसरे की जांच हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डा. डेविड राइख ने की।

ताजा अध्ययन का महत्व यह है कि पहली बार हड़प्पा युग के मानव की जीन सीक्वेंसिंग की गई है। इस प्रोजेक्ट के प्रमुख प्रो. वसंत शिंदे ने कहा कि ये जीन रूस की स्तेपी या प्राचीन ईरान के लोगों से मेल नहीं खाते हैं। पहली बार यह तथ्य स्थापित हो सका है कि लोगों का विस्थापन पूरब से पश्चिम की ओर हुआ था, न कि उल्टा। उन्होंने कहा कि सिंधु घाटी का आदि मानव ही आखेटक से खेतीबाड़ी की ओर बढ़ा और फिर उसी ने नगरीय सभ्यता का निर्माण किया। यही लोग बाद में पश्चिम की ओर गए। उन्होंने कहा कि तुर्कमेनिस्तान में गोनुर और ईरान में सहर-ए-सोख्ता में हड़प्पा के लोगों की मौजूदगी के प्रमाण इसे साबित करते हैं। हड़प्पा के लोग मैसोपोटामिया (आधुनिक इराक), इजिप्ट (मिस्र) और फारस की खाड़ी और पूरे दक्षिण एशिया के लोगों के साथ व्यापार करते थे, इसलिए यह तय है कि तब भी लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। इसलिए भारत में खेतीबाड़ी शुरू होने और बस्तियां बसने के बाद हमेशा से मिली-जुली आबादी रही है। उनके अनुसार, संकेत यह भी हैं कि बस्तियां सबसे पहले दक्षिण एशिया में बसीं, यहीं खेतीबाड़ी और पशुपालन शुरू हुआ और यहीं से यह नया ज्ञान पश्चिम एशिया की ओर गया।

यूरोप में भी प्राचीन-डीएनए के अध्ययनों से यह माना जाता है कि वहां खेती की शुरुआत तब हुई, जब तुर्की में अनातोलिया मूल के लोग बड़े पैमाने पर उधर गए। ताजा अध्ययन भी ऐसे ही विस्थापन को साबित करता है। इसके अनुसार दक्षिण एशिया के किसान ही मध्य एशिया की ओर गए। यह वही समय है, जब अनातोलिया वाले यूरोप की ओर गए।

राहुल सांकृत्यायन (1893-1963) आज होते तो नए शोध की रोशनी में उन्हें अपने प्रचलित मत का खंडन कर नई कहानियां लिखनी होतीं और तब शायद उनकी किताब का शीर्षक गंगा से वोल्गा होता।

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