पर्यावरण अब आम लोगों का भी मसला बन चुका है। धरती पर बढ़ रहे संकट को देखते हुए एक बड़ा तबका अपनी जीवनशैली को लेकर जागरूक हो रहा है कि वह क्या खाए, क्या पहने कि पर्यावरण पर कम बुरा असर छोड़े। इसलिए लोग अब बाजार की तरफ भी उम्मीद की नजर से देख रहे हैं कि वह ऐसा उत्पाद मुहैया कराए जो ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक तरीके से बना हो। साथ ही जो नष्ट होने में धरती को ज्यादा कष्ट नहीं पहुंचाए। बाजार के सामने नई चुनौती है पर्यावरण हितैषी बनना, इसलिए अब इस क्षेत्र में अनुसंधान भी हो रहे हैं। इसी चुनौती को ध्यान में रखते हुए चेन्नई स्थित सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएलआरआई) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने अपने चार साल के अनुसंधान से ऐसा चमड़ा तैयार किया है जो प्राकृतिक चीजों से बना है। इसलिए इसे नाम दिया गया है-शाकाहारी चमड़ा या वेगन लेदर। सीएलआरआई के वैज्ञानिकों का दावा है कि इस तकनीक के बाजार में आ जाने के बाद उपभोक्ताओं को बड़ी राहत मिलेगी। इसके बाजार में आने से न केवल पर्यावरण की रक्षा होगी बल्कि आम जनमानस को इससे बने उत्पाद कम कीमत पर उपलब्ध होंगे। इस तकनीक पर काम करने वाली सीएलआरआई के वैज्ञानिकों की टीम का नेतृत्व करने वाले मुख्य वैज्ञानिक पी. तनिकावेलन से अनिल अश्विनी शर्मा और रितेश रंजन की बातचीत -
चमड़े के उत्पाद पर्यावरण प्रेमियों के निशाने पर रहे हैं। इस क्षेत्र में काफी चुनौती है। उपभोक्ता अब वैसी चीज चाहते हैं जिससे धरती को कम नुकसान हो। सिंथेटिक चमड़े पर निर्भरता को कम करने के लिए सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टीट्यूट ने क्या कदम उठाए?
पश्चिमी देशों में पर्यावरण के सख्त कानून होने के कारण वहां की सरकार और कंपनियां पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली चीजों से हाथ छुड़ा रहे हैं, वहीं भारत भी ऐसी चीजों पर निर्भरता कम करने के लिए इसके विकल्प को तलाशने में प्रयासरत है। इसी क्रम में हमने भी अध्ययन शुरू किया। इसी निर्भरता को खत्म करने के लिए सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएलआरआई) ने घास-फूस, फल और फूल से सिंथेटिक के विकल्प पर काम करना शुरू किया है। भारत सिंथेटिक पर निर्भरता कम करने की दिशा में तेजी से प्रयासरत है।
क्या सीएलआरआई ने सिंथेटिक चमड़े का विकल्प खोजने में कामयाबी हासिल कर ली है?
जी, बिलकुल। हमने कृत्रिम चमड़े का विकल्प ढूंढ लिया है। सीएलआरआई की हमारी 20 लोगों की टीम जिसमें वैज्ञानिक और तकनीकी दोनों विधा के लोग शामिल हैं, इसमें जुटे हुए हैं। इस विषय पर यह टीम पिछले चार साल से काम कर रही थी। हमारी टीम ने इस योजना पर 2020 से ही काम शुरू कर दिया था।
2023 में हमने आम के गूदे से शाकाहारी चमड़ा (वीगन लेदर) बनाने की तकनीक खोज निकाली है। दूसरी ओर अब गेहूं, चावल और गन्ने के भूसे से चमड़ा बनाने की तकनीक पर भी काम लगभग पूरा हो गया है। हालांकि अभी इसमें एक साल और लग सकता है। आम के गूदे से तैयार चमड़ा बाजार में 2024 के शुरूआती माहों में और गेहूं, चावल और गन्ने के भूसे से बना शाकाहारी चमड़े का उत्पाद अगले साल (2025) तक बाजार में आ सकता है।
सिंथेटिक चमड़ा किन आयामों में वेगन लेदर से अलग होता है?
देखिए, सिंथेटिक चमड़ा पेट्रोकेमिकल्स से बना होता है, जो आसानी से बायोडिग्रेडेबल नहीं होता है यानी इसके गलने में बहुत लंबा वक्त लगता है। पॉलीयुरेथेन सिंथेटिक चमड़े को विघटित होने में 500 साल से ज्यादा का समय लगता है। दूसरी ओर फल और भूसे से बने चमड़े को विघटित होने में 50 वर्ष तक का ही समय लगता है। इसी को ध्यान में रखकर हमने एक ऐसी तकनीक पर खोज शुरू की जिससे चमड़े और सिंथेटिक चमड़े पर निर्भरता कम हो सके। एक आकलन के मुताबिक साल 2021 में वैश्विक सिंथेटिक चमड़े का बाजार 33.7 बिलियन अमेरिकी डाॅलर था और 2030 तक इसके 8.0 प्रतिशत चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ने की संभावना है। यह एक बहुत ही भयावह आंकड़ा है।
वेगन लेदर की अवधारणा किस प्रकार से सामने आई?
वास्तव में देखा जाए तो दुनिया को सिंथेटिक चमड़े के विकल्प की खोज अहिंसावादी आंदोलन के कारण हुई। जिस तकनीक की हमने खोज की है इसकी सोच आज से दस साल पहले शुरू हुई थी। हम सभी जानते हैं कि सिंथेटिक उत्पाद प्रकृति में आसानी से मिल नहीं सकते। इसलिए इसके विकल्प के खोज पर काम करते हुए हम यहां तक पहुंचे हैं। इसके विकल्प पर काम करते हुए जो शाकाहारी चमड़ा तैयार किया गया वो 300 से 500 रुपए प्रति वर्ग फीट में बिकेगा। ध्यान रहे कि वेगन लेदर बायोडीग्रेडेबल होता है इसलिए यह पर्यावरण में आसानी से मिल जाता है। यह गेहूं, चावल और गन्ने के रेशे और आम के गूदे से तैयार होता है। यह पर्यावरण में मिलने के मामले में सिथेंटिक चमड़े से कम समय लगाता है। सिंथेटिक चमड़े को जिस कच्चे पदार्थ से बनाया जाता है उसमें जहीरीले पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता हैं, जो कम बायोडिग्रेडेबल होता है। इसके अलावा सिंथेटिक चमड़े के शोधन में भारी मात्रा में पानी का इस्तेमाल होता है और काफी सारा पानी बर्बाद होता है। जबकि वेगन लेदर में कम पानी और जीरो डिस्चार्ज होता है।
आपकी टीम द्वारा खोजी गई तकनीक को आप किस प्रकार से हस्तांतरित करते हैं?
इस शोध पर पूरा पैसा मुंबई की “आमति” कंपनी ने लगाया था। शोध पूरा होने के बाद हमने यह टेक्नोलॉजी इस कंपनी को हस्तांतरित कर दी है। अब कंपनी इस तकनीक का इस्तेमाल कर आम के गूदे से चमड़े जैसा उत्पाद बनाने में लगी हुई है। कंपनी इस तकनीक का इस्तेमाल कर आम के गूदे से चमड़े जैसा उत्पाद बनाएगी और उससे विभिन्न प्रकार के उत्पाद तैयार होंगे। वहीं गेहूं, चावल और गन्ने के भूसे से तैयार चमड़े जैसे उत्पाद पर शोध समाप्त हो चूका है और इस तकनीक के हस्तांतरण को लेकर विभिन्न औद्योगिक इकाइयों से बात अभी चल रही है। वेगन लेदर की कीमत चमड़े से दोगुना और सिंथेटिक से चारगुना कम होगी लेकिन जब इसका उत्पादन बड़े पैमाने पर यानी मास प्रोडक्शन शुरू होगा तो इसकी कीमत और भी कम होगी।
चमड़े और शाकाहारी चमड़े के निर्माण में कितना पानी बर्बाद होता है?
जहां एक किलो चमड़े के निर्माण में 40 लीटर पानी लगता है, वहीं शाकाहारी चमड़े के निर्माण में चार से पांच लीटर पानी ही खर्च होता है। सबसे बड़ी बात है कि शाकाहारी चमड़े से पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचेगा। हमें उम्मीद है कि लोगों में पर्यावरण को लेकर जितनी ज्यादा जागरूकता आएगी, लोग ऐसे उत्पादों को ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर अप्रत्यक्ष रूप से ही सही पर्यावरण को क्षति से बचाएंगे। इसलिए हम मुख्य रूप से पर्यावरण अनुकूल रसायनों का उपयोग करने का प्रयास करते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि पर्यावरण पर प्रभाव बहुत कम होगा।
क्या इस तकनीक का आम लोगों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा, क्या इसे लेकर अध्ययन हुआ है?
अब तक इसे बड़े पैमाने पर इस्तेमाल नहीं किया गया है। इसलिए इसके स्वास्थ्य पर असर के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। हालांकि यह गेहूं, चावल और गन्ने के भूसे से तैयार होता है इसलिए फिलहाल इसके स्वास्थ्य पर किसी प्रकार के नकारात्मक प्रभाव की संभावना न के बराबर होगी।