आईआईटी खड़गपुर ने खेतों की उर्वरक क्षमता में सुधार के लिए बनाई नई तकनीक

यह तकनीक मैनुअल तरीकों से इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरकों में से 30 फीसदी तक कम करने में सफल होगी
Photo : IIT Kharagpur
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आजकल जमीन आधारित मानचित्रण (मैपिंग) काफी चर्चा में है। मैपिंग एक ऐसी तकनीक है, जिससे भारत का खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम बदल सकता है, अर्थात खाद्यान उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। मिट्टी की उर्वरता, जिन्हें खास जीपीएस का उपयोग करके हासिल किया जा सकता है। इस जीपीएस को आईआईटी खड़गपुर के शोधकर्ताओं द्वारा खेतों में उर्वरीकरण की दर को मापने के लिए विकसित किया गया है।

इस नई तकनीक का उद्देश्य हाथों से (मैन्युअली) किए जाने वाले काम का संचालन या सेंसर-आधारित उर्वरा तकनीकों को हटा कर स्वचालित मिट्टी के पोषण प्रबंधन के लिए नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश का कुशलता से उपयोग करना हैं।

बड़े कृषि क्षेत्रों में मिट्टी के प्रकार और खनिज सामग्री में स्थान के आधार पर अंतर होता है, जो कि एक सामान्य घटना है। अलग-अलग क्षेत्रों में उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवार नाशकों और यहां तक कि पानी जैसे संसाधनों की आवश्यकता भी भिन्न होती है। किसान स्थानीय आधार पर मिट्टी के परीक्षण के माध्यम से या वास्तविक समय में आंकड़े एकत्र करने के लिए सेंसर लगा कर इन विविधताओं की जानकारी एकत्र करते रहे हैं।

हालांकि, सेंसर के ऐप्लिकेटर की निकटता वास्तविक समय सेंसर-आधारित डेटा प्रसंस्करण और उर्वरक के प्रयोग के बारे में सही से जानकारी नहीं दे पाती है।

आईआईटी खड़गपुर के निदेशक प्रो. वीके तिवारी ने पूर्व शोध छात्रा और कृषि और खाद्य इंजीनियरिंग विभाग की डॉ. स्नेहा झा के साथ मिलकर  मिट्टी के पोषण का मानचित्र बनाने का एक वैकल्पिक तरीका खोजा, जिस तक जीपीएस की स्थिति के माध्यम से वास्तविक समय में पहुंचा जा सकता है।

प्रो. तिवारी ने इस प्रक्रिया के बारे में बताते हुए कहा हमने मिट्टी के नक्शे में फीड की गई प्रत्येक ग्रिड की पोषण आवश्यकता के साथ एक हेक्टेयर भूमि को 36 ग्रिडों में विभाजित किया है। उर्वरक एप्लीकेटर व्हीकल, जो एक डीजीपीएस मॉड्यूल और जीयूआई से चलने वाले माइक्रोप्रोसेसर अथवा माइक्रोकंट्रोलर के साथ जुड़ा हुआ है, जो इस नक्शे/मानचित्र का उपयोग कर सकता है और उर्वरक एप्लिकेशन फ़ंक्शन में वास्तविक समय में बदलने वाले दरों की गणना कर सकता है।

मिट्टी के मानचित्र को मृदा परीक्षणों के आधार पर कृषि भूमि में दोहराया जा सकता है, जिसका उपयोग जिला प्रशासन के स्तर पर या निजी प्रयोगशालाओं द्वारा किया जा सकता है। डीजीपीएस मॉड्यूल में डाले जाने वाले यह आंकड़े जीयूआई से जुड़े एप्लिकेटर के उपयोग से खेतों तक पहुंच जाएंगे।

यह प्रणाली वास्तविक समय में क्षेत्र के ग्रिड का पता लगा सकती है, जिसमें पूर्व की ओर 16 सेमी लंबाई के आधार पर सटीकता और उत्तर की ओर 20 सेमी की चौड़ाई है। यह स्वचालित यंत्र 5 से 400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का प्रबंधन कर सकता है। प्रो. तिवारी ने कहा यह एक विशिष्ट स्थान पर उर्वरकों की आवश्यक मात्रा के बारे में पता लगा सकता है, जिससे फसल उत्पादन में वृद्धि होगी और उर्वरकों के अधिक उपयोग से होने पर्यावरण में होने वाली गिरावट से भी बचा जा सकता है।

यह तकनीक मैनुअल तरीकों से इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरकों में से 30 फीसदी तक कम करने में सफल होगी, इस प्रकार संसाधनों के प्रयोगों में पर्याप्त बचत सुनिश्चित करेगी। उन्होंने आगे बताया कि यह तकनीक काम करने में सुधार करके और मैनुअल श्रम को कम करके उर्वरकों को बचाकर उनकी लागत कम कर सकती है।

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