विंग कमांडर (सेवानिवृत्त) राकेश शर्मा अंतरिक्ष में पैर रखने वाले पहले भारतीय बने 35 साल पूरे हो चुके हैं। पिछले दिनों "डाउन टू अर्थ" ने उनसे लंबी बातचीत की। उन्होंने उस उल्लासपूर्ण पल के बारे में बताया। साथ ही, उन्होंने इन सवालों का जवाब भी दिया कि अंतरिक्ष में खोज की जरूरत क्यों पड़ी? मनुष्य क्यों दूसरे ग्रहों में रहना चाहता है? अंतरिक्ष के हथियारीकरण का क्या असर होगा? और मनुष्य को अंतरिक्ष में भेजने की इसरो की योजना क्या है? इस लंबी बातचीत को डाउन टू अर्थ चार कड़ियों में उन्हीं की जुबानी प्रकाशित करेगा। आज प्रस्तुत है पहली कड़ी …
2 अप्रैल, 2019 को अंतरिक्ष की मेरी यात्रा की 35 वीं वर्षगांठ थी। उस समय जो हुआ था, मैं उस उत्साह और उमंग को नहीं भूल सकता। प्रशिक्षण समाप्ति पर था और हम अपनी चेक लिस्ट के साथ कैप्सूल (अंतरिक्ष यान) में थे और अपने साथ होने वाली अगली घटनाओं की कल्पना कर रहे थे। मैं अपनी दुनिया से बाहर का अनुभव लेने का बेताबी से इंतजार रहा था, जिसके लिए मैंने प्रशिक्षण लिया था।
जैसा कि हमें प्रशिक्षण दिया गया था, यान के लॉन्च होते ही गति बहुत अधिक होती है और आप अपनी सीट में धंसते चले जाते हैं। गुरुत्वाकर्षण बल बनता रहा और हम साढ़े तीन, तीन से अचानक शून्य ग्रेविटी पर पहुंच गए। और यह सब केवल 500 सेकंड में हो गया।
यह अपने आप में बेहद नाटकीय था और फिर हमने अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखा, यह एक शानदार दृश्य था। हर कोई पहले अपने देश को खोजता है। फिर हमें भारत देखने को मिला, जो बेहद सुंदर दिख रहा था, क्योंकि हमारे देश में विभिन्न विशेषताएं हैं - एक लंबी तट रेखा, मैदान, जंगल, रेगिस्तान अपने रंग और बनावट और अंत में हिमालय।
अंतरिक्ष में वे आठ दिन बेहद सुखद थे। वहां जो असीम सुंदरता थी, उसकी कल्पना करना ही मुश्किल है। यह सब एक ब्रह्मांडीय संयोग था। मैंने ऐसा खूबसूरत संयोग कभी नहीं देखा। वह बेहद सुखद था, क्योंकि हम, हमारे घर, ग्रह सब कुछ उस ब्रह्मांड के आगे कुछ नहीं हैं, केवल एक छोटा सा हिस्सा हैं।
अंतरिक्ष से लौटने के बाद मेरा पूरा जीवन बदल गया। मैं जहां भी गया, मुझे पहचाना गया। हालांकि अब समय बीत चुका है, लोगों की याददाश्त कम होती है और मैं भी अब पहले जैसा नहीं दिखता, इसलिए मुझे अब पहले की तरह से लोगों से छिपने की जरूरत नहीं पड़ती।
दोबारा अंतरिक्ष में खोज में रुचि क्यों पैदा हुई? इस बारे में मुझे लगता है कि मनुष्य की प्रवृति ही ऐसी है कि वह कुछ न कुछ नया खोजता रहता है। सभ्यताएं अफ्रीका से शुरू हुईं और चारों तरफ फैल गईं और फिर हमने संचार उपकरणों को बनाया। हमने तब जहाज बनाए और बाहर निकल कर दूसरी जगहों की खोज की और देखते-देखते हम फैल गए। अब, जब हम पूरी पृथ्वी को जान चुके हैं तो स्वाभाविक है कि हम नई दुनिया की ओर देखना शुरू कर दें।
हम पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों को अच्छे से इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन ये कभी भी खत्म हो सकते हैं, इसलिए दूसरे गृहों की ओर देखना हमारी मजबूरी है। इसके अलावा, अगर कोई प्रलयकारी घटना होती है तो मानव जीनोम (जीन का समूह) का कोई बैकअप भी नहीं है। एक उपगृह के टकराने से ही पूरी सभ्यता का सफाया हो सकता है।
तो, यही वजह हैं, जिसके चलते अंतरिक्ष में खोज की जा रही है। इससे पहले, तत्कालीन सोवियत और अमेरिकियों के बीच एक दौड़ चल रही थी। उन्होंने दुनिया के सामने साबित किया कि दोनों देश चांद पर जाकर वहां की मिट्टी लाने में सक्षम हैं। वे इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सके, क्योंकि उस समय वही टैक्नोलॉजी थी और इसीलिए कोई भी वापस नहीं गया।
लेकिन अब जब हम तकनीकी रूप से उन्नत हो गए हैं, और हमारे पास इसकी वजहें भी हैं, नए अवसर भी खुल रहे हैं। निजी क्षेत्र भी इसमें दिलचस्पी ले रहा है, हालांकि यह पर्यटन से शुरू हो रहा है, जो सिर्फ एक और व्यवसाय है। मुझे लगता है कि हम बहुत रोमांचक समय के चौराहे पर हैं। (अक्षित संगोमला से बातचीत पर आधारित)