हाल ही में किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि कई प्रजातियों का विकास अनुमान से चार गुना तेजी से हो रहा है। यह जानकारी इन प्रजातियों की आनुवंशिक विभिन्नताओं के विश्लेषण में सामने आई है, जोकि डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से मेल नहीं खाती हैं।
इस बारे में हाल ही में किए एक शोध से पता चला है कि किसी प्रजाति में जितने ज्यादा आनुवंशिक अंतर होते हैं उनका विकास उतना तेजी से हो सकता है, क्योंकि समय के साथ उनमें कुछ लक्षण मिट जाते है, जबकि जो लक्षण सबल होते हैं, वो समय के साथ स्थिर बने रहते हैं।
गौरतलब है कि वैज्ञानिकों ने जर्नल साइंस में प्रकाशित इस अध्ययन में दुनिया भर की 19 प्रजातियों से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया है, जिनसे पता चला है कि विकास के लिए जिन घटकों की जरुरत है वो पिछले अनुमानों की तुलना में कहीं ज्यादा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।
देखा जाए तो जिस तेजी से जलवायु में बदलाव आ रहा है यह बात बहुत मायने रखती है कि जीवों का विकास कितनी तेजी से हो रहा है और वो बदलावों को कितना जल्द अपना रहे हैं। इस बारे में ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में इकोलोजिस्ट टिमोथी बोनट का कहना है कि यह पद्दति हमें किसी आबादी में सभी लक्ष्णों के प्राकृतिक चयन के जवाब में वर्तमान विकास की गति को मापने का एक तरीका देती है।
अपने इस शोध में वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में जंगली जीवों की 19 प्रजातियों का अध्ययन किया है। जिनमें आस्ट्रेलियाई व्रेन (मालुरस साइनियस), तंजानिया के चित्तीदार हाइना (क्रोकुटा क्रोकुटा), कनाडा की सॉन्ग स्पैरोज ( मेलोस्पिज़ा मेलोडिया ) और स्कॉटलैंड के लाल हिरण (सर्वस एलाफस) को शामिल किया गया था। देखा जाए तो यह पहला मौका है जब इतने बड़े पैमाने पर जीवों के विकास की गति का आंकलन किया गया है।
इस अध्ययन में सभी क्षेत्रीय अध्ययन की औसत समय सीमा 30 वर्षों की थी जिसमें 11 से लेकर 63 वर्षों तक इन प्रजातियों का अध्ययन किया था, जिसमें उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक सब गतिविधियां शामिल थी, जिसके विवरण को दर्ज किया गया था । इतना है नहीं शोधकर्ताओं ने हर जीव के बारे में आनुवंशिक जानकारी के 26 लाख घंटों के फील्ड डाटा का विश्लेषण किया गया था।
गौरतलब है कि 1858 में जीवों के क्रमिक विकास को लेकर प्रोफेसर चार्ल्स डार्विन ने 'थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन' यानी क्रमिक विकास का सिद्धांत दिया था, जो इस बात पर प्रकाश डालता है कि धरती पर जीवों का विकास कैसे हुआ है। उनके इस सिद्धांत के अनुसार जीवों का विकास क्रमिक बदलावों का नतीजा था, जो बहुत धीरे-धीरे घटित हुए थे।
हालांकि इससे पहले के शोधों में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि कुछ प्रजातियों का विकास चंद वर्षों में हो सकता है। इस बारे में शोधकर्ता बोनट का कहना है कि प्रजातियों के तेजी से होते विकास का एक उदाहरण पेप्पर्ड मोथ है, जिनका रंग औद्योगिक क्रांति से पहले सफेद था।
लेकिन तेजी से फैलते प्रदूषण और कालिख के चलते काले पतंगों को विशेष रूप से लाभ हुआ था क्योंकि उनके रंग की वजह से पक्षियों के लिए उनका शिकार करना मुश्किल था। चूंकि इन पतंगों का रंग उनके जीवित रहने की सम्भावना को बढ़ा रहा था। इसलिए समय के साथ सफेद और काले रंग के बीच का आनुवंशिक अंतर दूर होता गया और इंग्लैंड में काले पतंगों की आबादी हावी हो गई।
शोधकर्ताओं के मुताबिक क्योंकि यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है इसलिए यह दर्शाने के लिए पर्याप्त सबूत मौजूद नहीं है कि प्रजातियां अतीत की तुलना में कहीं ज्यादा तेजी से विकसित हो रही हैं। लेकिन इतना स्पष्ट है कि विकास की दर को बढ़ाने वाले कारण पहले की तुलना में कहीं अधिक प्रबल हैं।
जलवायु अनुकूलन के मामले में भी यह जानकारी है महत्वपूर्ण
देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर तेजी से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं ऐसे में यह जानना जरुरी है कि वन्यजीवन पर इसका कितना असर पड़ेगा और प्रजातियां कितनी तेजी से उसके साथ अनुकूलन कर सकती हैं। ऐसे में यह समझने में मदद मिल सकती है कि भविष्य में कौन सी प्रजातियां जीवित रहने में सक्षम होंगी और कौन सी नहीं।
चिंता की बात तो यह है कि जिस तेजी से वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है उसके चलते कई प्रजातियां समय पर अनुकूलन नहीं कर पाएंगी। ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि इन प्रजातियों का विकास कितनी तेजी से हो रहा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक प्रजातियों का विकास कितनी तेजी से हो रहा है यह जलवायु अनुकूलन के मामले में पहले से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।