डाउन टू अर्थ विशेष: मानव विकास की कहानी, आदिम से अब तक

मानव का मौजूदा स्वरूप विकास की उस सतत प्रक्रिया का नतीजा है, जो लगभग दो लाख वर्षों से जारी है। वैज्ञानिकों के हवाले से जानिए इस विकास की पूरी कहानी-
डिजाइन, इन्फोग्राफिक्स एवं इलस्ट्रेशन: अजीत बजाज, संजीत कुमार, योगेन्द्र आनन्द
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हमारी दुनिया लगभग 4.5 अरब साल पुरानी है और आधुनिक मानवों की बात की जाए तो हमें इस धरती पर आए हुए लगभग दो से तीन लाख वर्ष हो गए हैं। जाहिर सी बात है कि इस लंबे अंतराल में कई परिवर्तन आए होंगे। हमने चांद-तारों तक की दूरी नाप ली है लेकिन अपनी ही उत्पत्ति के इतिहास से पर्दा हटाने में हम पूरी तरह सफल नहीं हुए हैं। और इसमें हमारी गलती नहीं है। मानव इतिहास में समय की अवधि और इससे भी अधिक प्राकृतिक इतिहास की अवधि हमारे जीवन की तुलना में इतनी विशाल है कि इसे समझ पाना लगभग असंभव है। यदि पृथ्वी का निर्माण मध्यरात्रि में हुआ मानें और वर्तमान क्षण अगली मध्यरात्रि है, तो आधुनिक मानव को पृथ्वी पर आये हुए केवल एक सेकण्ड का ही वक्त हुआ है। इसे दूसरी तरह से देखते हैं, अगर हम मानव शरीर का उदहारण लें तो ब्रह्माण्ड का अस्तित्व हमारे कंधों पर शुरू होगा और आधुनिक मानव हमारी उंगलियों के पोरों पर मिलेंगे। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि पृथ्वी की आयु की तुलना में हमारा अस्तित्व नगण्य है।


हालांकि यह कहना गलत नहीं होगा कि मानवों का अस्तित्व “इतिहास” से भी पुराना है। आधुनिक मनुष्यों की तरह दिखने वाले जीवों का पृथ्वी पर विकास पहली बार लगभग 25 लाख वर्ष पहले हुआ लेकिन आनेवाली असंख्य पीढ़ियों तक वे अपने आसपास के जीवों से अलग नहीं थे। अगर हम किसी तरह 20 लाख वर्ष पहले के पूर्वी अफ्रीका में पहुंच जाएं तो हमें क्या देखने को मिलेगा? हमें आधुनिक मानवों के पूर्वज मिलेंगे, बच्चों की देखभाल में लगी माताएं, शिकार एवं भोजन बटोरने में जुटे युवा एवं आराम करते वृद्ध। हमारे ये पूर्वज साथ रहते थे और उनमें हर उस तरह की प्रतिस्पर्धा थी जो आज के समाज में है। लेकिन यही हाल हाथियों, चिम्पांजियों एवं बबूनों का भी था। किसी को इस बात की भनक भी नहीं थी कि बंदरों जैसी दिखने वाली हमारी प्रजाति आगे चलकर दुनिया पर राज करेगी। प्रागैतिहासिक मनुष्यों के बारे में जानने के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने अपने आसपास के पर्यावरण पर उतना ही प्रभाव डाला था जितना किसी गोरिल्ला, जुगनू या जेलिफिश ने।

आधुनिक मनुष्य का विकास पूर्वी अफ्रीका में, लगभग 25 लाख वर्ष पहले आस्ट्रेलोपिथेकस नामक वानरों के एक जीनस से हुआ, जिसका अर्थ “दक्षिणी वानर” हैं। लगभग 20 लाख वर्ष पहले, इनमें से कुछ अपनी मातृभूमि को छोड़कर उत्तरी अफ्रीका, यूरोप और एशिया में बस गए। चूंकि उत्तरी यूरोप के बर्फीले जंगलों और इंडोनेशिया के गर्म जंगलों में जीवित रहने के लिए अलग-अलग लक्षणों की आवश्यकता होती है, इसलिए मानव आबादी अलग-अलग दिशाओं में विकसित हुई। इसका परिणाम कई अलग-अलग प्रजातियां थीं, जिनमें से प्रत्येक को वैज्ञानिकों ने एक लैटिन नाम दिया है। यूरोप और पश्चिमी एशिया में मनुष्य होमो निएंडरथेलेंसिस (निएंडर वैली का आदमी) में विकसित हुआ, जिसे लोकप्रिय रूप से “निएंडरथल” के रूप में जाना जाता है। निएंडरथल आधुनिक मानवों की तुलना में भारी और शक्तिशाली थे और वे पश्चिमी यूरेशिया की ठंडी जलवायु के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित थे। होमो इरेक्टस (सीधा खड़ा आदमी) एशिया के पूर्वी क्षेत्रों में रहते थे।

होमो इरेक्टस करीब 20 लाख वर्षों तक जीवित रहे और वह मानव इतिहास की सबसे लंबे समय तक जीवित रहने वाली प्रजाति है। यह रिकॉर्ड हमारी अपनी प्रजाति द्वारा तोड़े जाने की संभावना भी न के बराबर है। इंडोनेशिया में, जावा द्वीप पर, होमो सोलेन्सिस (सोलो वैली का मानव) पाए जाते थे जो उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जीवन के लिए अनुकूलित थे। एक अन्य छोटे से इंडोनेशियाई द्वीप फ्लोर्स पर पुरातन मानव बौने होने की प्रक्रिया से गुजरे। तब मनुष्य पहली बार फ्लोर्स पहुंचे थे तब समुद्र का स्तर असाधारण रूप से कम था। द्वीप तक मुख्य भूमि से आसानी से पहुंचा जा सकता था। कालक्रम में समुद्र के जलस्तर में वृद्धि हुई और कुछ लोग उसी द्वीप पर फंसे रह गए। चूंकि द्वीप पर संसाधनों की कमी थी इसलिए बड़े कद के मानव, जिन्हें बहुत अधिक भोजन की आवश्यकता होती है, पहले मर गए। छोटे कद वाले मनुष्यों के लिए जीवित रहना तुलनात्मक रूप से आसान था। इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी फ्लोर्स के लोग बौने होते चले गए। वैज्ञानिकों द्वारा होमो फ्लोरेसेंसिस के नाम से जानी जाने वाली इस अनोखी प्रजाति के लोग केवल एक मीटर की अधिकतम लम्बाई के होते थे और इनका वजन 25 किलोग्राम से अधिक नहीं होता था। इसके बावजूद वे पत्थर के औजार बनाने में निपुण थे और कभी-कभी तो वे द्वीप पर रहने वाले हाथियों का भी शिकार कर लेते थे।

यह अलग बात है कि वे हाथी भी बौने ही थे। 2010 में हमारा एक अन्य पूर्वज गुमनामी के अंधेरे से तब निकला जब साइबेरिया में डेनिसोवा गुफा की खुदाई करने वाले वैज्ञानिकों को एक जीवाश्म उंगली की हड्डी मिली। आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि उंगली एक अज्ञात मानव प्रजाति की थी, जिसे होमो डेनिसोवा के नाम दिया गया था। यह कहना मुश्किल होगा कि इनके ही जैसे हमारे कितने अन्य पूर्वज अंधेरी गुफाओं और द्वीपों पर खोजे जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जब ये मनुष्य यूरोप और एशिया में विकसित हो रहे थे, उस दौरान पूर्वी अफ्रीका में भी विकास की प्रक्रिया चालू थी। इनमें से मुख्य हैं, होमो रुडोल्फेंसिस, “मैन फ्रॉम लेक रुडोल्फ”, होमो एर्गस्टर, “वर्किंग मैन” और अंततः हमारी अपनी प्रजातियां, जिन्हें हमने होमो सेपियन्स, “वाइज मैन” का नाम दिया है।

इन प्रजातियों को वंश की एक सीधी रेखा में व्यवस्थित करना एक सामान्य गलती है, जिसमें एर्गस्टर इरेक्टस को जन्म देता है, इरेक्टस निएंडरथल को जन्म देता है और निएंडरथल से हम यानि आधुनिक मानव विकसित होते हैं। इस रैखिक मॉडल से यह गलत धारणा बनती है कि किसी भी समय केवल एक ही प्रकार के मानव पृथ्वी पर रहते थे और यह कि पहले की सभी प्रजातियां हमारे पुराने मॉडल भर थीं। सच्चाई यह है कि लगभग 20 लाख साल पहले से लेकर 10,000 साल पहले तक यह पृथ्वी पर एक ही समय में कई मानव प्रजातियों का घर थी। और ऐसा हो भी क्यों नहीं? आज भी तो लोमड़ियों, भालू और सूअरों की कई प्रजातियां हैं। यह पृथ्वी हमारे कम से कम छः पूर्वजों का घर रह चुकी है। वर्तमान में हमारी प्रजाति अकेली है, यह एक से अधिक प्रजातियां होने की तुलना में कहीं अधिक आश्चर्यजनक है। हालांकि मानव विकास के क्रम में हुई घटनाओं और परिवर्तनों की एक समयरेखा स्थापित करने का प्रयास करने से पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि इस मामले में एक सटीक तिथि या वर्ष ढूंढ निकालना असंभव है।

कितना अच्छा होता अगर हम अतीत में जाकर अपने पूर्वजों से ये सवाल पूछ पाते पर ऐसा सम्भव नहीं है और न ही उन्होंने अपने बारे में कुछ जानकारी छोड़ी है। तो फिर हम करें क्या? इसका सीधा जवाब है-जीवाश्म। वैज्ञानिक इन विभिन्न पूर्वजों के इतिहास की पड़ताल के लिए जीवाश्मों और अवशेषों का उपयोग करते हैं और हमारे विकास की एक समयरेखा बनाने में सफल हुए हैं। यहां यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि नई जानकारी एवं वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ इस समयरेखा में बदलाव आते रहे हैं। इसे ध्यान में रखते हुए ही आधुनिक मनुष्यों के विकास की समयरेखा को समझा जा सकता है। आधुनिक मानव का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियन्स है। होमो जीनस है और सेपियन्स प्रजाति अथवा स्पीशीज। होमो सेपियन्स होमो जीनस के एकमात्र जीवित सदस्य हैं और हम कह सकते हैं कि हम अपने चौपाए पूर्वजों से काफी आगे बढ़ चुके हैं। पेड़ों से जमीन पर उतरने की हमारी कहानी लंबी और दिलचस्प है।

आइए हम विकास की इस कहानी पर एक नजर डालते हैं और अपने पूर्वजों की कुछ मुख्य प्रजातियों के बारे में जानते हैं।

सहेलानथ्रॉपस चाडेंसिस

सहेलाथ्राॅपस चाडेंसिस मानव परिवार के विकास वृक्ष में सबसे पुरानी ज्ञात प्रजातियों में से एक है। यह प्रजाति लगभग 60 से 70 लाख वर्ष पूर्व पश्चिम-मध्य अफ्रीका (चाड) में रहती थी। सीधा चलने की क्षमता से इस प्रजाति को जंगलों और घास के मैदानों सहित विविध आवासों में जीवित रहने में मदद मिली होगी। हालांकि हमारे पास सहेलाथ्राॅपस की केवल खोपड़ी उपलब्ध है लेकिन अध्ययनों से पता चलता है कि इस प्रजाति में वानर और मानव जैसी विशेषताओं का संयोजन था। वानर जैसी विशेषताओं की बात करें तो छोटा मस्तिष्क (चिंपैंजी की तुलना में थोड़ा छोटा), झुका हुआ चेहरा, उन्नत भौहें और लंबी खोपड़ी शामिल है। मानव जैसी विशेषताओं में छोटे कैनाइन दांत, चेहरे का छोटा मध्य भाग और खोपड़ी के नीचे खुलने वाली रीढ़ की हड्डी (फोरामेन मैग्नम) शामिल हैं।

सहेलाथ्राॅपस के पहले और एकमात्र जीवाश्म उत्तरी चाड से मिले नौ कपाल नमूने हैं। फ्रांसीसी जीवाश्म विज्ञानी माइकल ब्रुनेट के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक शोध टीम ने 2001 में इन जीवाश्मों की खोज की थी। दुर्भाग्य से, सहेलथ्रोपस के अधिकांश दांत बहुत खराब हो चुके हैं, और इनके आहार का पता लगाने के लिए इसके दांतों के समस्थानिकों (आइसोटोप) का अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है। हालांकि, हम इनके पर्यावरण और अन्य प्रारंभिक मानव प्रजातियों के आधार पर अनुमान लगा सकते हैं कि इनका आहार मुख्यतः शाकाहारी था। वे संभवतः पत्ते, फल, बीज, जड़ें, नट और कीड़े इत्यादि खाते थे।

ओरोरिन टुगेनेन्सिस

इन्हें मिलेनियम मानव के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रजाति लगभग 62-58 लाख वर्ष पूर्व पाई जाती थी। इस प्रजाति में होमो सेपियन्स की तरह ही जंघास्थि (फीमर) पाई गई है जिससे इसके दोपाया होने के संकेत मिले हैं। यदि इसे मनुष्यों का प्रत्यक्ष पूर्वज माना जाता है, तो हमारी समयरेखा में कुछ अन्य प्रजातियों की स्थिति, विशेष रूप से आस्ट्रेलोपिथेकस की, खतरे में पड़ जाएगी। आस्ट्रेलोपिथेकस को हमारे विकास में एक महत्वपूर्ण कदम माना गया है और इसे गलत साबित करने के लिए और अधिक प्रमाण की आवश्यकता है। इसके अलावा ओरोरिन टुगेनेन्सिस के जीवाश्मों से यह भी पता चलता है कि यह शुष्क सदाबहार जंगलों में रहता था। यह मनुष्यों के सवाना में विकसित होने की लोकप्रिय धारणा के खिलाफ जाता है।

फ्रांसीसी जीवाश्म विज्ञानी ब्रिगिट सेनुट और फ्रांसीसी भूविज्ञानी मार्टिन पिकफोर्ड के नेतृत्व में एक शोध दल ने मध्य केन्या के टुगेन हिल्स क्षेत्र में इस प्रजाति की खोज की। उन्हें लगभग 62 से 60 लाख वर्ष पुराने एक दर्जन से अधिक प्रारंभिक मानव जीवाश्म मिले। वानर और मानव लक्षणों के नए संयोजन के कारण, शोधकर्ताओं ने इन जीवाश्मों को एक नया जीनस और प्रजाति का नाम दिया, ऑरोरिन टुगेनेन्सिस, जिसका स्थानीय भाषा में अर्थ है “टुगेन क्षेत्र का मूल निवासी।” ऑरोरिन के छोटे, गोलमोल दांत और छोटे कैनाइन दांतों से पैलियोन्थ्रोपोलॉजिस्ट यह अनुमान लगाते हैं कि यह प्रजाति ने मुख्य रूप से शाकाहारी थी। इन्हें संभवतः पत्ते, फल, बीज, जड़ें, नट और कीड़े इत्यादि कहते थे।

अर्डिपिथेकस कडब्बा

यह दो पैरों पर चलने वाला जीव था जिसका शरीर और मस्तिष्क आकार में एक आधुनिक चिम्पांजी के समान था। इसके कैनाइन दांत बाद के मनुष्यों से मिलते हैं। इस प्रारंभिक मानव प्रजाति की केवल कुछ पोस्ट-क्रेनियल हड्डियों और दांतों के सेट ही मिल पाए हैं। इनके पैर के अंगूठे की हड्डी बड़ी और मजबूत थी, जिसका इस्तेमाल दोपाए “पुश-ऑफ” के लिए करते हैं।

इस प्रजाति की खोज पैलियोन्थ्रोपोलॉजिस्ट योहंस हैले-सेलासी ने वर्ष 1997 में की थी। हालांकि जब हैले-सेलासी को इथियोपिया के मध्य अवाश क्षेत्र में जमीन पर पड़ा एक निचला जबड़ा मिला तब उन्हें इस बात की बिलकुल भनक नहीं थी कि यह एक नई प्रजाति है। लेकिन बाद में कम से कम पांच अलग-अलग व्यक्तियों से मिले 11 नमूनों की जांच के बाद हैले-सेलासी को यकीन हो गया कि उन्हें एक नया प्रारंभिक मानव पूर्वज मिल गया है। यह जीवाश्म, जिसमें हाथ और पैर की हड्डियां, आंशिक बांह की हड्डियां और एक हंसली (कॉलरबोन) भी शामिल हैं, 56-58 लाख वर्ष पुराने थे। इन नमूनों में से एक, पैर की उंगली की हड्डी, 52 लाख वर्ष पुरानी है और इस जीवाश्म में द्विपाद चलने की विशेषताएं हैं।

2002 में, मध्य अवाश में आसा कोमा स्थल पर छह दांत मिले थे। इन दांतों के घिसने के पैटर्न ने इस बात पुष्टि हुई कि ये प्रारंभिक मानव जीवाश्म अलग प्रजाति के थे और एरैमिडस की उप-प्रजाति नहीं थे। इन दांतों के आधार पर, जीवाश्म विज्ञानी योहनेस हैले-सेलासी, जेन सुवा और टिम व्हाइट ने 2004 में जीवाश्मों को एक नई प्रजाति माना जिसका नाम उन्होंने अर्डिपिथेकस कडब्बा (कडब्बा का अर्थ अफार भाषा में सबसे पुराना पूर्वज) रखा। चिंपैंजी की तरह फल और मुलायम पत्ते खाने के बजाय, इस बात के सबूत हैं कि अर्डिपिथेकस कडब्बा रेशेदार खाद्य पदार्थ भी खाते थे।

ऑस्ट्रेलोपिथेकस

इसे रेमंड डार्ट ने खोजा था और इसे तवांग बेबी भी कहते हैं। यह जीनस मनुष्यों के विकास में सबसे अधिक जाना जाता है। इनका अस्तित्व वे लगभग 42-39 लाख वर्ष पूर्व से लगभग 25 लाख वर्ष पूर्व तक था। इस जीनस में लगभग 7 स्वीकृत प्रजातियां हैं, जिनमें से सबसे लोकप्रिय आस्ट्रेलोपिथेकस एफरेंसिस है। यह प्रजाति लगभग 900,000 वर्षों तक जीवित रही, और इस प्रजाति के 300 से अधिक व्यक्तियों के अवशेष पाए गए हैं। इस प्रजाति के मस्तिष्क का आकार मनुष्यों के मस्तिष्क के आकार का लगभग एक तिहाई था। उनकी नाक सपाट और निचले जबड़े उभरे हुए थे। उनके दांत छोटे थे, जैसे आधुनिक इंसानों के होते हैं। उनकी लंबी, मजबूत भुजाएं पेड़ों से झूलने के लिए उपयुक्त थीं, लेकिन वे मुख्यतः दो पैरों पर ही चलते थे। इस प्रजाति के युवा आधुनिक मनुष्यों की तुलना में तेजी से बढ़ते थे और इसलिए उन्हें कम समय तक देखभाल की आवश्यकता होती थी। जैसे-जैसे यह जीनस विकसित हुआ, उनमें होमो सेपियंस जैसी विशेषताएं जैसे छोटे दांत, चौड़ी निचली छाती इत्यादि देखने को मिलती है।

होमो इरेक्टस

प्रारंभिक अफ्रीकी होमो इरेक्टस जीवाश्म (इन्हें कभी-कभी होमो एर्गस्टर कहा जाता है) सबसे पुराने ऐसे ज्ञात प्रारंभिक मानव हैं जिनके शारीरिक अनुपात आधुनिक मानवों जैसे थे। धड़ के आकार की तुलना में अपेक्षाकृत लंबी टांगों और छोटी भुजाओं जैसी इन विशेषताओं को जमीन पर रहने वाले जीवन के लिए अनुकूलन माना जाता है। पहले के मनुष्यों की तुलना में इनका मस्तिष्क बड़ा था। इस प्रजाति के सबसे पूर्ण जीवाश्म को “तुर्काना बॉय” के नाम से जाना जाता है। यह जीवाश्म अच्छी तरह से संरक्षित (हालांकि लगभग सभी हाथ और पैर की हड्डियां गायब हैं) है और लगभग 16 लाख वर्ष पुराना है। दांतों के सूक्ष्म अध्ययन से संकेत मिलता है कि इस प्रजाति की विकास दर ग्रेट एप्स के सामान थी। यह प्रजाति बूढ़े और कमजोर व्यक्तियों की देखभाल करती थी, इस बात के संकेत मिले हैं। जीवाश्म रिकॉर्ड में होमो इरेक्टस का पाया जाना अक्सर कुल्हाड़ियों के प्रयोग से जोड़कर देखा जाता है। कुल्हाड़ियां पत्थर से औजार बनाने की प्रक्रिया के एक विकसित चरण को दर्शाती हैं। जावा (1890 के दशक की शुरुआत में) और चीन (पेकिंग मैन, 1920 के दशक में शुरू हुई) की प्रारंभिक जीवाश्म खोजों में इस प्रजाति के उत्कृष्ट उदाहरण शामिल हैं।

डच सर्जन यूजीन डबॉइ ने 1891 में इंडोनेशिया में पहले होमो इरेक्टस जीवाश्म (ट्रिनिल 2) की खोज की थी। 1894 में, डुबोइ ने इस प्रजाति का नाम पिथेकैन्थ्रोपस इरेक्टस या “इरेक्ट एप-मैन” रखा। होमो इरेक्टस के बड़े शरीर और दिमाग को काम करने के लिए नियमित रूप से बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती थी। वे मांस एवं अन्य प्रकार के जल्दी पचने वाले प्रोटीनों के आलावा शहद एवं जंगली कंदमूल भी खाते थे।

होमो हाइडलबर्गेंसिस

यह ठंडी जलवायु में रहने वाली पहली प्रारंभिक मानव प्रजाति थी, उनके छोटे, चौड़े शरीर संभवतः गर्मी के संरक्षण के लिए अनुकूल थे। इस प्रजाति ने आग पर नियंत्रण करने के अलावा लकड़ी के भालों का इस्तेमाल करना भी सीख लिया था और वे बड़े जानवरों का शिकार करने वाली पहली मानव प्रजाति थे। खराब मौसम से बचाव के लिए पहली बार लकड़ी और पत्थरों से बने आश्रय बनाने का श्रेय भी इन्हें ही जाता है।

1908 में जर्मनी के हाइडलबर्ग के पास माउर गांव में एक मजदूर को हाइडलबर्गेंसिस का पहला नमूना मिला। यह एक जबड़ा था जिसमें एक प्री मोलर और दो मोलरों को छोड़कर सारे दांत मौजूद थे। जर्मन वैज्ञानिक ओटो शॉनटेनसैक ने सबसे पहले नमूने का वर्णन किया और प्रजाति का नाम होमो हाइडलबर्गेंसिस प्रस्तावित किया।

निएंडरथल

निएंडरथल मानव के सबसे करीबी विलुप्त मानव रिश्तेदार हैं। चेहरे का बड़ा मध्य भाग, नुकीली गाल की हड्डियां और ठंडी, शुष्क हवा को नम और गर्म करने के लिए एक विशाल नाक उनकी विशेषताओं शामिल है। उनके शरीर हमारी तुलना में छोटे और गठीले थे जोकि ठंडे वातावरण में रहने के लिए अनुकूल है। लेकिन उनका दिमाग हमारे जितना ही बड़ा था और कभी-कभी तो हमसे भी बड़ा होता था। यह उनके बड़े शरीर के समानुपाती था। निएंडरथल विभिन्न प्रकार के परिष्कृत औजार बनाने और उनका उपयोग करने के अलावा आग पर नियंत्रण रखना जानते थे। वे आश्रयों में रहते थे, कपड़े बुनते और पहनते थे और बड़े जानवरों का शिकार कुशलता से कर लेते थे। वे कभी-कभी प्रतीकात्मक या सजावटी वस्तुएं भी बनाते थे। इस बात के प्रमाण हैं कि निएंडरथल अपने मृतकों को दफनाते थे और कभी-कभी उनकी कब्रों पर फूल इत्यादि भी चढ़ाते थे। यह व्यव्हार किसी अन्य प्राइमेट और न ही पहले की किसी मानव प्रजाति में देखा गया था।

जर्मनी में निएंडर घाटी के फेल्डहोफर गुफा में पाए गए इन जीवाश्मों को भूविज्ञानी विलियम किंग ने होमो निएंडरथेलेंसिस (जोहानसन और एडगर, 2006) नाम दिया था। ताल-थाल का एक आधुनिक रूप है जिसका जर्मन अर्थ “घाटी” होता है।

होमो सेपियन्स

होमो सेपियन्स का विकास लगभग तीन लाख साल पहले अफ्रीका में चल रहे नाटकीय जलवायु परिवर्तन के दौरान हुआ था। अन्य प्रारंभिक मनुष्यों की तरह ही शिकार एवं भोजन इकठ्ठा करते थे। शारीरिक पहलुओं की बात की जाए तो सेपियन्स के कंकाल अपने पूर्वजों की तुलना में हल्के हैं। आधुनिक मनुष्यों का दिमाग काफी बड़ा होता है और इसका आकार महिलाओं एवं पुरुषों में अलग-अलग होता है लेकिन इसका औसत अाकार लगभग 1,300 घन सेंटीमीटर होता है। इस बड़े मस्तिष्क के लिए जगह बनाने के लिए हमारी खोपड़ी का पुनर्गठन हुआ। पतली दीवार वाली, एक सपाट और ऊर्ध्वाधर माथे के साथ ऊंची गुम्बद के आकर की खोपड़ी। आधुनिक मानवों की भौहें पहले से कम उन्नत होने के अलावा हमारे दांत और जबड़े भी आकार में छोटे हैं।

प्रागैतिहासिक होमो सेपियन्स पत्थर के सामान्य औजार बनाते और इस्तेमाल करते थे। इसके अलावा वे मिश्रित पत्थर के औजार, फिशहुक, हार्पून, धनुष, तीर और भाला फेंकने वाले व सिलाई सुई सहित कई छोटे, अधिक जटिल, परिष्कृत और विशेष उपकरण भी बनाते थे। 164,000 साल पहले तक आधुनिक मानव शंख इकट्ठा कर रहे थे और 90,000 साल पहले तक आधुनिक इंसानों ने मछली पकड़ने के विशेष उपकरण बनाना शुरू कर दिया था। भोजन का उत्पादन हमने यही कोई 12 हजार साल पहले शुरू किया था। हमारे पूर्वजों ने पशुओं एवं पौधों के विकास एवं प्रजनन पर नियंत्रण करना सीखा, जिससे खेती एवं पशुपालन की उत्पत्ति हुई। धीरे- धीरे हमारे पूर्वजों ने अपना ध्यान भोजन के उत्पादन पर केंद्रित किया और वे एक जगह पर बसकर रहने लगे। अधिक भोजन उपलब्ध होने के साथ, मानव आबादी में नाटकीय रूप से वृद्धि होने लगी। हमारी प्रजाति इतनी सफल रही है कि हमने अनजाने में ही पृथ्वी के इतिहास को एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है।

इनमें से कई प्रजातियां एक ही समय में अस्तित्व में थीं, क्योंकि एक नई प्रजाति की उपस्थिति का मतलब पिछली प्रजातियों का तत्काल विलुप्त हो जाना नहीं था। उनके बीच भी अंतर-प्रजनन भी था जैसा कि हमने डेनिसोवन्स, निएंडरथल और होमो सेपियन्स के मामले में देखा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, पृथ्वी पर वर्तमान में मौजूद विभिन्न जातियों के बीच पाए जानेवाले अंतरों के पीछे यही कारण है। हालांकि हमारे पूर्वजों के बारे में अभी भी बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्न हैं, साथ ही समयरेखा में विसंगतियां भी हैं लेकिन आनेवाले समय में यह कहानी और साफ होगी ऐसी उम्मीद तो हम कर ही सकते हैं।

मानव विकास का सामजिक पहलू

आखिर वह कौन सी चीज है जो हमें मानव बनाती है तो इसका जवाब क्या होगा? हम दो पैरों पर सीधा चलते हैं, अपने काम को आसान बनाने के लिए औजारों का इस्तेमाल करते हैं और अपने विचारों के आदान प्रदान के लिए भाषा की मदद लेते हैं। क्या ये चीज़ें हमें मानव बनाती हैं? या फिर अपने विकास से संबंधित इस तरह के सवाल पूछने की क्षमता ही हमें मानव बनाती है? दार्शनिक एवं वैज्ञानिक सदियों से इस मौलिक प्रश्न का जवाब ढूंढने में लगे हैं। मनुष्यों की विकास यात्रा की शुरुआत एकल-कोशिका वाले जीवों की उत्पत्ति से होती है और इन चरणों की जानकारी हमें मुख्यतः जीवाश्मों से प्राप्त होती है। लाखों साल पहले पाए जाने वाले इन जीवों के बारे में जानकारी के इस अमूल्य स्रोत की मदद से ही हम विलुप्त एवं मौजूदा प्रजातियों के “एवोलुशनरी ट्री” बनाने में सफल रहे हैं। मानव विकास के इतिहास की समझ बनाने के लिए जीव-जगत के विकास पर एक नजर डालना सही रहेगा। हम जानते हैं कि जीवन की शुरुआत एक कोशिका से हुई थी। हमारे एकल-कोशिका वाले पूर्वजों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पर्याप्त ऊर्जा प्राप्त करने की थी क्योंकि कई सारे कार्यों को एक साथ कुशलता से करना उनके लिए मुश्किल था। शायद यही कारण है कि लगभग 3 से 3.5 अरब साल पहले बहुकोशिकीय जीवों एवं एंडोसिम्बायोसिस (ऐसे जीव जो किसी अन्य जीव के शरीर या कोशिका में रहते हैं) की शुरुआत हुई।

समय के साथ इन जीवों में मूलभूत तंत्रिका प्रणाली का विकास हुआ। हालांकि विशेषीकृत न्यूरॉनों का विकास काफी बाद में हुआ लेकिन इन जीनों की उपस्थिति के फलस्वरूप एक तंत्रिका प्रणाली और मस्तिष्क जैसी संरचना का विकास हुआ। इस प्रक्रिया को सेफेलाइजेशन के रूप में जाना जाता है और इसे 5,000 लाख वर्ष पहले के जीवाश्मों में देखा जा सकता है। सेफलाइजेशन एक प्रमुख अनुकूलन था, क्योंकि इसने संवेदी अंगों को सूचना-प्रसंस्करण तंत्रिका कोशिकाओं के करीब रखा, जिससे जीव पर्यावरण के प्रति त्वरित प्रतिक्रिया करने में सक्षम हुए।

लगभग 4,000 लाख वर्ष पहले तक जीवन महासागरों तक ही सीमित था, जिसके बाद जीवों में उथले दलदलों में और फिर भूमि पर चलने और सांस लेने की प्रणालियों का विकास हुआ। एक बार इन जीवों ने धरती पर रहना सीख लिया, उसके बाद कीड़ों और स्थलीय पशुओं का विविधीकरण शुरू हुआ। वैज्ञानिकों का है कि पहला स्तनपायी लगभग 2100 लाख वर्ष पहले दिखाई दिया था और यह संभवत: एक छोटे से छछूंदर जैसा प्राणी था। शायद मांसाहारी डायनासौरों की उपस्थिति के कारण इन शुरूआती स्तनधारियों का आकार शुरू में छोटा रहा हो लेकिन 650 लाख वर्ष पहले विध्वंसकारी उल्कापात ने सबकुछ बदलकर रख दिया।

डायनासौरों की विलुप्ति के फलस्वरूप स्तनधारी प्रजातियों की संख्या में विस्तार हुआ और उनके आकार एवं विविधता में भी वृद्धि हुई। स्तनधारियों के विकासक्रम में मस्तिष्क का विस्तार और नियोकोर्टेक्स के गठन जैसे महत्वपूर्ण लक्षण देखे गए हैं। इन लक्षणों को प्राइमेट्स, होमिनिड्स और मनुष्यों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। इस भव्य कालक्रम में प्राइमेटों एवं उनके वंशजों का आगमन काफी देर से हुआ है। सबसे पुराना प्राइमेट जीवाश्म केवल 550 लाख वर्ष पुराना है जबकि सबसे पहला “होमो” जीवाश्म केवल 28 लाख वर्ष पुराना है।

मानव विकास के इतिहास में सबसे बड़ी छलांग को लेकर वैज्ञानिक एकमत हैं। आज से करीब पचास से सत्तर लाख साल पहले, अफ्रीक में कुछ वानर जैसे जीवों ने अपने पैरों पर चलना शुरू कर दिया और वहीं से हमारे “मानव” पूर्वजों की कहानी की शुरुआत होती है। करीब 25 लाख वर्ष पहले उन्होंने पत्थरों से औजार बनाने की शुरुआत की और यही कुछ 20 लाख साल पहले उनमें से कुछ अफ्रीका से निकलकर एशिया और यूरोप के देशों में फैल गए। अगर हमारे जैसे दिखने वाले मानवों (आधुनिक होमो सेपियन्स) की बात करें तो वैज्ञानिकों का मत है कि उनका विकास कम से कम 130,000 साल पहले उन्हीं पूर्वजों से हुआ जो अफ्रीका में रह गए थे। उनके मस्तिष्क हमारे जितने ही बड़े थे और अंततः उन्होंने भी अफ्रीका से बाहर का रुख किया। अपनी इस यात्रा के क्रम में उन्होंने अन्य गैर-आधुनिक मानव प्रजातियों, जैसे यूरोप एवं एशिया के कुछ हिस्सों में पाए जानेवाले निएंडरथल और सुदूर पूर्व के होमो इरेक्टस (जावा मानव और पेकिंग मानव ) की जगह ले ली।

यहां तक तो सब ठीक है लेकिन इसके आगे क्या हुआ इसको लेकर वैज्ञानिकों में एक मत नहीं बन पाया है। वह जीव जो शारीरिक रूप से आधुनिक इंसानों की तरह ही दिखते थे, उनमें रचनात्मक एवं प्रतीकात्मक सोच का विकास कब और कैसे हुआ और वे शरीर के साथ व्यवहार में भी मानव कब बने, यह उतना साफ नहीं है। आखिर मानव सभ्यता/संस्कृति का जन्म कब और कहां हुआ?

नेशनल साइंस फाउंडेशन के एक पुरातत्वविद् डॉ. जॉन ई. येलेन की मानें तो, “यह सबसे विवदास्पद मुद्दा है और हम सबकी राय अलग अलग है।” पिछली शताब्दी के अधिकांश समय में, पुरातत्वविदों का मानना था कि आधुनिक मानव व्यवहार की शुरुआत अपेक्षाकृत हाल ही में, लगभग 40,000 साल पहले हुई जब होमो सेपियन्स ने यूरोप में प्रवेश किया। यह वह समय था जब मनुष्य ने स्वयं को अभिव्यक्त करना शुरू ही किया था और फ्रांस के लासौ एवं शौवे में मिले शानदार गुफा चित्रों के आधार पर वैज्ञानिकों ने एक “रचनात्मक विस्फोट” का सिद्धांत दिया।

हालांकि कुछ शोधकर्ताओं ने इस सिद्धांत को मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि यह सिद्धांत कुछ और नहीं बल्कि “यूरोसेंट्रीजम” का एक उदहारण भर था और हम अपने पूर्वजों की रचनात्मकता के प्रमाण गलत जगहों पर ढूंढ रहे थे। अफ्रीका और मध्य पूर्व में हुई हालिया खोजों के माध्यम से हमें कई भौतिक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जो आधुनिक व्यवहार के एक ऐसे पुराने और अधिक क्रमिक विकास का समर्थन करते हैं जो यूरोप में केंद्रित नहीं है। हालांकि वैज्ञानिकों का एक बड़ा हिस्सा अब भी यही मानता है कि अफ्रीका में हुई एक दो छिटपुट खोजों को छोड़कर कुछ विशेष साक्ष्य नहीं मिले हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि रचनात्मकता हाल में और अचानक से प्रकट हुई है और इसकी व्याख्या के लिए उन्होंने आनुवंशिक परिवर्तन की एक नई परिकल्पना को सामने रखा है। मानव सभ्यता की शुरुआत को लेकर हुई बहसों का बाजार कभी इतना गर्म नहीं रहा है। इंग्लैंड में स्थित साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय में मानव उत्पत्ति के पुरातत्व केंद्र के निदेशक डॉ क्लाइव गैंबल का कहना है कि यूरोप एक छोटा प्रायद्वीप है लेकिन यहाँ बड़ी मात्रा में शानदार पुरातात्विक अवशेष मिले हैं। हालांकि यह भी सच है कि इन अवशेषों में से हमारे पकड़ फिसल रही है। हमें अफ्रीका एवं अन्य जगहों पर लगातार नए साक्ष्य मिल रहे हैं और पिछले दो या तीन वर्षों में, इसने आधुनिक मानव व्यवहार पर बहस को बदलकर और अधिक व्यापक कर दिया है।”

यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि हमारे पूर्वजों के आधुनिक दिखने और आधुनिक व्यवहार करने के बीच बहुत लम्बा समय गुज़रा और इसे सांस्कृतिक व्यवहार की उत्पत्ति को लेकर अनिश्चितता एवं भ्रम होने के पीछे का मुख्य कारण माना जा सकता है। यह संभव है कि पहले होमो सेपियन्स में आधुनिक रचनात्मकता की काबिलियत हो लेकिन उनका यह कौशल तबतक अविकसित रहा जबतक कि उन्हें जीवित रहने के लिए इसकी आवश्यकता महसूस नहीं हुई। कनेक्टिकट विश्वविद्यालय में मानवविज्ञानी के रूप में कार्यरत डॉ. सैली मैकब्रेर्टी की मानें तो, “यह संभव है कि पुरातन होमो सेपियन्स में स्पुतनिक का आविष्कार करने की बौद्धिक क्षमता रही हो लेकिन उनके पास अभी तक इस तरह के आविष्कार का इतिहास नहीं था और न ही उन्हें इन चीज़ों की आवश्यकता ही थी।” यह संभव है कि नई सामाजिक परिस्थितियों, पर्यावरण परिवर्तन एवं अन्य पुरातन मानव प्रजातियों से प्रतिस्पर्धा के तनाव के फलस्वरूप इन आवश्यकताओं क विकास हुआ हो। या फिर आधुनिक व्यवहार की क्षमता किसी ऐसे आनुवंशिक परिवर्तन के रूप में आयी हो जिसकी हमें अबतक जानकारी नहीं है। एरिज़ोना विश्वविद्यालय की पुरातत्वविद् डॉ मैरी सी स्टाइनर का कहना है कि इन विपरीत विचारों एवं उनकी विविधताओं को एक प्रश्न में समाहित किया जा सकता है : “क्या मस्तिष्क की कार्यप्रणाली अथवा पृथ्वी के वातावरण में कोई मौलिक बदलाव हुआ था?”

त्वरित आनुवांशिक विकास

मानव रचनात्मकता अचानक और मुख्य रूप से यूरोप में प्रकट हुई, इस पारम्परिक सिद्धांत के सबसे प्रमुख समर्थकों में से एक स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद् डॉ रिचर्ड जी क्लाइन हैं। उन्होंने ब्लेक एडगर के साथ मिलकर लिखी और जॉन विले द्वारा प्रकाशित किताब, “द डॉन ऑफ ह्यूमन कल्चर” में अपनी इस स्थापना को परिभाषित किया है। वे लिखते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं कि पुरातत्वविदों के लिए यह “डॉन” सबसे महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक घटनाओं में से एक था। इससे पहले, मानवों में शारीरिक और व्यावहारिक परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे, कमोबेश साथ साथ ही हुए थे। आनेवाले समय में हमारा शारीरिक रूप उल्लेखनीय रूप से एकसमान रहा लेकिन व्यावहारिक परिवर्तनों में नाटकीय रूप से तेजी आई।

40,000 वर्षों से भी कम समय के अंतराल में हुई कई सांस्कृतिक “क्रांतियों” ने मानवों को एक अपेक्षाकृत दुर्लभ, बड़े स्तनपायी की श्रेणी से निकालकर एक विश्व-विजेता के रूप में स्थापित कर दिया है।” इस नजर से देखें तो 40,000 साल पहले मानव रचनात्मकता में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया था जब आधुनिक होमो सेपियन्स यूरोप पहुंचे। इसका साक्ष्य अमूर्त और प्रतीकात्मक विचारों वाली पहली कलाकृतियों से मिलता है। उनके उपकरण समय के साथ उन्नत होते गए और मुर्दों को दफनाने की परंपरा भी शुरू हुई। इसके अलावा एक नए प्रकार की आत्म - जागरूकता के संकेत भी मिलते हैं जिसे गहनों के रूप में इस्तेमाल किये जानेवाले मनकों एवं पेन्डेन्ट के अलावा बारीक गढ़ी हुई मूर्तियों के माध्यम से देखा जा सकता है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन्होंने हिरन, घोड़ों और जंगली सांडों के शानदार चित्रों के माध्यम से अपने दैनिक जीवन एवं विचारों को गुफाओं की दीवारों पर व्यक्त करना शुरू कर दिया।

रचनात्मकता में अचानक हुई इस वृद्धि के लिए डॉ क्लाइन ने एक तंत्रिका सम्बन्धी स्पष्टीकरण दिया है। उनका तर्क है कि लगभग 50 हजार वर्ष पहले हुए आनुवंशिक म्युटेशनों ने मानव मस्तिष्क की संरचना में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए जिससे हमारे बोलने की क्षमता में उल्लेखनीय प्रगति हुई। भाषा की उत्पत्ति विकासवाद के रहस्यों में से एक है।

डॉ क्लाइन का मानना है कि भाषा के इस्तेमाल ने हमारे पूर्वजों को अपने आसपास की प्राकृतिक और सामाजिक परिस्थितियों को समझने एवं उनसे निपटने में मदद की। इस ताकत के बल पर वे संस्कृति का “आविष्कार’ करने में सफल हुए। हालांकि यह परिवर्तन अफ्रीका में हुआ लेकिन डॉ क्लाइन का मानना है कि इसने ‘’मानवों को नए और चुनौतीपूर्ण वातावरण में रहने और उसे अपने अनुसार ढालने में सक्षम बनाया। “ यूरोप पहुंचने पर, क्रो-मैगनॉन्स कहे जाने वाले इन आधुनिक मनुष्यों ने, संभवतः निएंडरथलों को विलुप्ति की और धकेल दिया और भूमि पर अपनी अमिट सांस्कृतिक छाप छोड़ी।

हालांकि डॉ क्लाइन मानते हैं की इस सिद्धांत को मानव जीवाश्मों के परीक्षण द्वारा सही या गलत नहीं साबित किया जा सकता। उस काल की खोपड़ियों में मस्तिष्क के आकार में कोई बदलाव नहीं देखा गया है और ना ही मस्तिष्क के कामकाज में अनुवांशिक परिवर्तन मिलने की अधिक सम्भावना है। डॉ क्लाइन के अनुसार यह मानव विकास की सबसे सीधी व्याख्या है लेकिन आलोचकों का कहना है कि एक आकस्मिक ‘’मानव क्रांति’’ की ऐसी अवधारणा बहुत सरल होने के साथ ही साथ अप्रमाणित भी है।

हाल ही के एक व्यापक अध्ययन में डॉ. मैकब्रेर्टी और जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय की डॉ. एलिसन एस. ब्रूक्स ने कहा था कि अफ्रीका में आधुनिक व्यवहार का संकेत देने वाली कई कलाकृतियां “मानव क्रांति” की भविष्यवाणी के अनुरूप अचानक एक साथ नहीं मिली । ये अलग अलग साइटों पर और अलग अलग कालखंडों में मिली हैं। “इससे पता चलता है कि अफ्रीका में आधुनिक मानव व्यवहार का क्रमिक संयोजन हुआ जोकि बाद में पुरानी दुनिया के अन्य क्षेत्रों में फ़ैल गया।

आधुनिक मानव संस्कृति की उत्पत्ति पर बहस अभी चालू है , और समय के साथ साथ ये मुद्दे और भी जटिल हो सकते हैं। ऐसे में हमें यह याद रखने कि आवश्यकता है कि जब आज के इस अत्याधुनिक समय में संस्कृति का स्वरूप अलग है तो फिर प्रागैतिहासिक ज़माने में भी ऐसा रहा हो , इसकी बहुत अधिक संभावना है।

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