डाउन टू अर्थ विशेष: भविष्य में कितना बदल जाएगा मनुष्य का शरीर

भविष्य के मानव में बहुत से शारीरिक बदलाव दिख सकते हैं, जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से प्रेरित होंगे। कम इस्तेमाल वाले अंग सिकुड़ सकते हैं
डाउन टू अर्थ विशेष: भविष्य में कितना बदल जाएगा मनुष्य का शरीर
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धरती पर इंसानों के भूतकाल, वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं पर डाउन टू अर्थ की एक खास सीरीज में अब तक आप पढ़ चुके हैं। मानव विकास की कहानी, आदिम से अब तक , मनुष्य की नौंवी प्रजाति हैं हमयह है मानव विलुप्ति का ब्लूप्रिंट“मानव विलुप्ति की नहीं पतन की संभावना” , क्या होगा मनुष्य का भविष्य। अब पढ़ें, आगे- 

मानव का मौजूदा स्वरूप लाखों वर्षों के विकास का नतीजा है। भले ही हमें महसूस न हो लेकिन हमारे अंदर लगातार परिवर्तन रहे हैं। मानव की मौजूदा प्रजाति होमो सेपियंस 29 लाख साल पहले की शुरुआती मानव प्रजाति ऑस्ट्रेलोपिथेकस से पूरी बहुत अलग है। वर्तमान में हम अपनी खुद की 10 हजार साल पहले की प्रजाति होमो सेपियंस से काफी भिन्न हैं, मसलन कृषि पद्धति अपनाने के बाद से शरीर हल्का हुआ है। मानव विकास की प्रवृत्ति को देखते हुए कहा जा सकता है कि भविष्य की मानव प्रजाति भी हमसे काफी अलग दिखेगी।

हालांकि भविष्य की भविष्यवाणी आसान नहीं क्योंकि भविष्य की घटनाएं कई बार हमारी सोच से बहुत विपरीत घटित होती हैं। लेकिन हम वर्तमान के चलन के हिसाब संभावित स्थिति के बारे में जरूर सोच सकते हैं। भविष्य को देखने के लिए सबसे बेहतर तरीका यह है कि हम अपने अतीत में झांकें और यह मानकर चलें कि यह प्रवृत्ति आगे भी जारी रहेगी। इससे भविष्य की आश्चर्यजनक तस्वीर उभर सकती है, खासकर मानव स्वरूप को लेकर। भविष्य के बारे में सोचने पर हमारे जेहन में बहुत से सवाल कौंधेंगे जैसे आगे किस प्रकार का बदलाव होगा? मानव में कौन-कौन से जैविक बदलाव आ सकते हैं? कौन-कौन से अंग प्रभावित होंगे? और वे कौन से कारक होंगे जो जैविक बदलावों को प्रेरित करेंगे?

ये कुछ ऐसे प्रश्न के जिनके उत्तर खोजने के लिए वैज्ञानिक प्रयासरत हैं। वे मानते हैं कि आने वाले दिनों में मानव मस्तिष्क में महत्वपूर्ण बदलाव हो सकते हैं। वैज्ञानिकों का यह भी मत है कि संभव है कि हम भविष्य में अधिक जिएं, पतले हो जाएं और बिना बहस किए बातों को आसानी से मान लें।

बदलाव की प्रवृत्ति

ऑस्ट्रेलिया स्थिति यूनिवर्सिटी ऑफ एडिलेट के शोधकर्ता अर्थर सेनिओटिस व मेसिएज हेनबर्ग सितंबर 2011 को जर्नल ऑफ फ्यूचर स्टडीज में लिखते हैं कि मानव के हालिया अतीत से पता चलता है कि उसके मस्तिष्क का आकार तकनीकी विकास और समाज के जटिल होने के साथ ही घट गया है। मानव मस्तिष्क उसे नियंत्रित करने वाले पर्यावरण के हिसाब से ढल रहा है। भविष्य में भी मस्तिष्क बदलती प्रौद्योगिकी और सामाजिक ढांचे में बदलाव के हिसाब से ढलेगा। मस्तिष्क का क्रियाविज्ञान उसके रासायनिक बदलावों को प्रेरित करता है।

शिकागो विश्वविद्यालय के ह्यूमन जेनिटिक्स के प्रोफेसर ब्रूस लेन मानते हैं कि मानव मस्तिष्क अल्प समय में अन्य पशुओं के मुकाबले काफी विकसित हो चुका है। मानव ने अपने विकास की प्रक्रिया में नए बायोलॉजिकल ट्रेक्ट हासिल किए हैं जिसने उसे बुद्धिमान बनाने में अहम भूमिका निभाई है। लेन ने अपने अध्ययन में पाया है कि दो जीन मानव मस्तिष्क के विकास को विनियमित करते हैं। ये जीन हैं माइक्रोसेफलिन व एएसपीएम (एब्नॉर्मल स्पिंडल- लाइक माइक्रोसेफली असोसिएटेड)।

अध्ययन बताते हैं कि माइक्रोसेफलिन 37,000 साल पहले विकसित हुए। यही वही समय है जिसे वैज्ञानिक जरेड डायमंड ने ग्रेट लीप फॉरवर्ड (महान छलांग) माना था। इसी समय मानव में कला और अन्य मानवीय व्यवहार के गुण आए थे। एएसपीएम जीन का उदय करीब 5,800 साल पहले हुआ जब दूसरा लीप फॉरवर्ड हुआ। यह वह वक्त था जब लेखन, शहरों का उदय, सामाजिक ढांचे में जटिलता और सभ्यता का विकास हुआ। वैज्ञानिक मानते हैं कि इन दोनों जीनों ने मानव मस्तिष्क इतना विकसित किया है और एएसपीएम का विकास अब भी हो रहा है।

बाथ विश्वविद्यालय में पेलिओंटोलॉजी एंड इवोल्यूशनरी बायोलॉजी में सीनियर लेक्चरार निक लॉन्गरिच मानते हैं, “मानव मस्तिष्क आगे भी नाटकीय ढंग से विकसित होगा। पिछले 60 लाख वर्षों में मानव मस्तिष्क करीब 3 गुणा बढ़ चुका है जो मुख्य रूप से औजारों के उपयोग, जटिल समाज और भाषा के कारण है। देखने में लग सकता है कि यह ट्रेंड जारी रहेगा, लेकिन शायद ऐसा न हो।” वह मानते हैं कि बढ़ने के बजाय हमारा मस्तिष्क छोटा हो रहा है। यूरोप में मस्तिष्क 10,000-20,000 साल पहले सबसे बड़ा था। यह कृषि की खोज से ठीक पहले का वक्त था। इसके बाद मस्तिष्क छोटे होने लगे। लॉन्गरिच के अनुसार, “आधुनिक मानव का मस्तिष्क उसके पूर्वजों यहां तक कि मध्यकालीन लोगों से भी छोटा है। ऐसा क्यों है यह स्पष्ट नहीं है।”

मस्तिष्क का छोटा होना उन वसा और प्रोटीन के कारण हो सकता है जो कृषि के बाद कम हो गए हैं। बड़े मस्तिष्क को बनाए रखना इनके अभाव में मुश्किल हो गया। निरंतर अकाल वाले कृषि समाज में बड़े मस्तिष्क बोझ बन गए थे। छोटे मस्तिष्क का एक कारण यह भी हो सकता है कि सभ्यता से पहले शिकार के दौर के इसकी उपयोगिता अधिक थी। सभ्य बनने के बाद शेरों व हिरणों को चकमा देने या हर पेड़ का नाम याद रखने की जरूरत नहीं रही। हमें पहले शिकार के लिए हथियारों के बनाने, जानवरों के रास्तों को खोजने के लिए जिस मस्तिष्क की जरूरत थी, शिकार बंद करने के बाद उपयोग खत्म हो गया, नतीजतन वह छोटा हो गया।

आधुनिक समाज में मानव कम किंतु अधिक विशेषज्ञता वाला काम करता है और उसके पाषाण युग जैसी शिकार, रास्ता खोजना, खाना खोजने, लड़ाई लड़ने जैसी विविधता खत्म हो गई है। लॉन्गरिच मानते हैं कि जिस प्रकार मानव की मस्तिष्क छोटा हुआ है, उसकी प्रकार पालतू बनने के बाद बहुत से पशुओं का मस्तिष्क भी संकुचित हो गया है। उदाहरण के लिए भेड़ का 24 प्रतिशत, गाय का 26 प्रतिशत और कुत्ते का मस्तिष्क 30 प्रतिशत छोटा हुआ है। भविष्य में तकनीकी और विज्ञान इतना उन्नत हो जाएगा कि मानव मस्तिष्क की उपयोगिता और कम हो जाएगा, लिहाजा मस्तिष्क और सिकुड़ सकता है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बॉम्बे में प्रोफेसर सुप्रीत सैनी डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि मानव का मानसिक विकास भविष्य में किस तरफ जाएगा, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। मस्तिष्क का आकार बुद्धिमानी का पैमाना नहीं है। वह कहते हैं, “15-20 हजार साल पहले मानव का मस्तिष्क सबसे बड़ा था क्योंकि प्राकृतिक रूप से इसकी जरूरत थी। इसके बाद मस्तिष्क का सघन उपयोग जाता रहा, नतीजतन उसका आकार कम हो गया।” इस प्रकार की प्रवृत्ति भविष्य में भी जारी रह सकती है।



नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के कैलोग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में मार्केटिंग और न्यूरोसाइंस के असोसिएट प्रोफेसर मोरन सेर्फ बेझिझक स्वीकार करते हैं कि पहली बार मानव के विकास का नियंत्रण उसके हाथ में है। पहले यह विकास प्राकृतिक चयन से निर्देशित होता था लेकिन अब उन्नत तकनीक यह काम कर रही है जो बुद्धिमान डिजाइनर यानी हमसे चल रही है। तकनीक मानव शरीर में उतरकर उसे संचालित कर रही है। सेर्फ के अनुसार, यह हमारा भविष्य हो सकता है।

वैज्ञानिक और शोधकर्ता क्षमता विकास के लिए मानव शरीर में तकनीकी के मिश्रण पर काम कर रहे हैं, मानव में आनुवांशिक बदलाव किए जा रहे हैं। जैसे सुनने की क्षमता में सुधार के लिए काक्लीयर इनप्लांट हो रहे हैं और देखने के लिए डिजिटल रेटिना लगाए जा रहे हैं। साथ ही साइबरनेटिक भुजाओं को मानव मस्तिष्क से जोड़ा जा रहा है। व्यवहार विज्ञानी जोन लेवाई इंक में लिखते हैं कि मस्तिष्क में चिप लगाकर हम बिना बोले एक-दूसरे तक बात पहुंचा सकते हैं। भविष्य में ऐसे मानव धरातल पर उतर सकते हैं। वह लिखते हैं कि भविष्य में शरीर में मशीनी भुजाएं लगाई जा सकता हैं जिसे आप अपने दिमाग से नियंत्रित कर सकते हैं, असली भुजा की तरह।

ऑस्ट्रेलियन म्यूजियम में फ्रेंक डोरे भविष्य के मानव में बहुत से संभावित बदलावों के बारे में लिखती हैं कि हम शरीर के जिन अंगों का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, वे बड़े हो सकते हैं जबकि कम इस्तेमाल होने वाले अंग छोटे हो सकते हैं। मसलन अगर हम अपनी चबाने की आदतें बदलते हैं तो हमारे दांत सघन हो सकते हैं और जबड़ा छोटा हो सकता है। यह तब होगा जब भविष्य का भोजन अधिक मुलायम हो जाए। इसी प्रकार हमारे अंगूठा का आकार बड़ा हो सकता है क्योंकि एक पूरी पीढ़ी वीडियो गेम खेल रही है। डोरे यह भी मानती हैं कि हमारी प्रजाति समानता की तरफ बढ़ रही है। भविष्य में मानव एक जैसे दिख सकते हैं। उन्होंने इसे ग्रांड एवरेजिंग का नाम दिया है। यह प्रवृत्ति मुख्य रूप से प्रजनन की नई प्रवृत्तियों और दुनिया के करीब आने की वजह से है। वैश्वीकरण से स्थायी विविधता प्रभावित हो रही है और लोगों में समरूपता आ रही है।

मस्तिष्क के अलावा भविष्य में मानव शरीर में अन्य कई बदलाव आ सकते हैं। ऐसा ही एक संभावित बदलाव है तापमान में गिरावट। ईलाइफ जर्नल में जनवरी 2020 में प्रकाशित स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसिन की शोधकर्ता माइरोस्लावा प्रोटसिव का अध्ययन मानता है कि मानव शरीर का तापमान घट रहा है यानी शरीर में ठंडापन आ रहा है। उन्होंने अमेरिका में औद्योगिक क्रांति के बाद से तापमान में हुए बदलाव का अध्ययन किया और पाया है कि वर्तमान में मानव शरीर का तापमान 19वीं सदी के शुरुआत में पैदा हुए पुरुष के तापमान से 0.59 डिग्री सेल्सियस कम है। महिलाओं के शरीर के तापमान में भी 0.32 डिग्री सेल्सियस की कमी आई है। अध्ययन के अनुसार, पुरुषों के शरीर के तापमान में प्रति दशक 0.03 डिग्री सेल्सियस व महिलाओं के तापमान में 0.029 डिग्री सेल्सियस की कमी आ रही है।

मानव शरीर के लिए आदर्श तापमान की स्थिति 98.6 डिग्री फॉरेनहाइट (37 डिग्री सेल्सियस) होती है। यह सामान्य तापमान माना जाता है। अगर तापमान इससे अधिक रहता है तो बुखार और कम रहने पर हाइपोथर्मिया की स्थिति मानी जाती है। अध्ययन के अनुसार, मौजूदा समय में औसत तापमान 97.9 डिग्री फॉरेनहाइट (36.61 डिग्री सेल्सियस) हो सकता है। शोधकर्ता जीवनस्तर में सुधार को इसकी सबसे बड़ी वजह मानते हैं। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, हम मोटे, लंबे और ठंडे हो रहे हैं। उन्हें लगता है कि मानव शरीर आगे भी ठंडा होता रहेगा, लेकिन कितना यह स्पष्ट नहीं है।

जीन एडिटिंग

सुप्रीत सैनी भविष्य के मानव में जीनोम एडिटिंग की बड़ी संभावना देखते हैं। वह साफ कहते हैं कि भले ही अभी नैतिकता और कानूनी तकाजे पर इसे उचित न माना जा रहा हो और दुनियाभर में इस पर बहस हो रही हो लेकिन भविष्य के लिए इसकी तकनीक एकदम तैयार है। जीन एडिटिंग के जरिए भविष्य में डिजाइनर बेबी तैयार किए जा सकते हैं। हालांकि महंगी होने की वजह से इस तकनीक तक सबकी पहुंच नहीं होगी और आर्थिक रूप से समृद्ध एक खास वर्ग ही इसकी तरफ खिंचेगा। सैनी मानते हैं कि इस तकनीक के क्या दूरगामी प्रभाव होंगे, इसे अब तक समझा नहीं गया है।

एक संभावना यह है कि जीन एडिटिंग से पैदा होने वाले बच्चे आगे भविष्य में सामान्य मानवों से प्रजनन न कर पाएं और उनकी एक अलग ही प्रजाति की तैयार हो जाए। हालांकि उनका यह भी मानना है कि इस निष्कर्ष पर पहुंचना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन इसे पूरा खारिज नहीं जा सकता। वैज्ञानिकों ने जीनोम एडिटिंग के लिए क्लसटर्ड रेगुलरली इंटरपेस्ड शार्ट पेलिंड्रोमिक रिपीट्स (सीआरआईएसपीआर) तकनीक विकसित कर ली है जो बैक्टीरियल डिसफेंस सिस्टम तैयार करती है। इसमें किसी विशेष स्थान की जेनेटिक कोड और डीएनस की एडिटिंग को अंजाम दिया जा सकता है। इससे नए डायग्नोस्टिक टूल भी ईजाद किए जा सकते हैं। इसके लिए वैज्ञानिक जीवित कोशिकाओं के जीन को स्थायी रूप से बदल सकते हैं।



प्राकृतिक चयन

वैज्ञानिकों का मत है कि सभ्यता के विकास ने प्राकृतिक चयन के सिद्धांत को अप्रासंगिक बना दिया है। इस सिद्धांत का प्रतिपादन मानव विज्ञानी चार्ल्स डार्विन ने किया था। यह एक धीमी प्रक्रिया है जिसमें किसी जीव की जनसंख्या में जैविक गुण कम या अधिक हो जाते हैं। मानव विकास में प्राकृतिक चयन ने अहम भूमिका निभाई है। यह किसी प्रजाति को पर्यावरण के अनुकूल बनाने में मदद करता है। इस प्रक्रिया में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में कुछ विशेष गुणसूत्र यानी जीन हस्तांतरित होते हैं जो उसे जीवित रहने और अपना वंश आगे बढ़ाने में सहायता करते हैं।

निक लॉन्गरिच के अनुसार, “अतीत में प्राकृतिक चयन हिंसक जानवरों, अकाल, प्लेग, युद्ध आदि से निर्धारित होता रहा है जो अब लगभग खत्म से हो गए हैं। भुखमरी और अकाल उच्च पैदावार वाले बीजों, उर्वरकों और परिवार नियोजन से खत्म हो गया है। जो जानवर मानव अंधेरे में शिकार करते थे, अब विलुप्त हो गए हैं या विलुप्तप्राय हैं। लाखों लोगों को मारने वाले प्लेग, स्मॉलपॉक्स, ब्लैक डेथ, कालरा जैसे घातक रोगों पर टीकों, एंटीबायोटिक्स और साफ जल के माध्यम से काबू में कर लिया गया है।” सभ्यता के विकास ने प्राकृतिक चयन को लगभग खत्म सा कर दिया है। सुप्रीत सैनी भी इससे पूरी तरफ इत्तेफाक रखते हुए कहते हैं कि अब जिस तरह का समाज है, उसमें प्राकृतिक चयन की जगह कृत्रिम चयन ने ले ली है।

इवोल्यूशनरी बायोलॉजी में प्रकाशित डेविड वार्मफ्लेश और नेथन एच लेंट्स का अध्ययन “फ्यूचर ऑफ ह्यूमन इवोल्यूशन” के मुताबिक, पिछले 3,000 वर्षों में चयापचय को प्रभावित करने वाले लेक्टॉस डाइजेशन व इंसुलिन और आंखों के रंग जैसी शारीरिक विशिष्टता को प्रभावित करने वाली खूबियां विकसित हुई हैं। ये सब मुख्यत: प्राकृतिक चयन से हुआ है। वह मानते हैं कि भविष्य में मानव इस प्रकार विकसित नहीं होगा। डेविड ऑटनब्रो व यूनिवर्सिटी लंदन कॉलेज के प्रोफेसर स्टीव जोंस जैसे जीवविज्ञानी मानते हैं कि कम से कम विकसित देशों में मानव के लिए विकास रुक गया है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के एक अन्य शोधकर्ता पीटर वार्ड के मुताबिक, मुझे नहीं लगता कि हम किसी प्रकार का बदलाव देखेंगे। हालांकि जानबूझकर डाले जाने वाले बदलाव जरूर देखे जा सकते हैं।

अध्ययन के मुताबिक, चिकित्सा विज्ञान और जन स्वास्थ्य में सुधार के कारण अब प्राकृतिक चयन मानव विकास का प्रमुख प्रेरक नहीं रहा है। हालांकि इसके बावजूद मानव का विकास थमेगा नहीं। अध्ययन के अनुसार, भविष्य में ट्रांसह्यूमैनिजम का विचार प्रबल होगा जिसमें मानव नई शारीरिक और मानसिक क्षमताएं विकसित कर सकता है और यह मुख्यत: विज्ञान और इंजीनियरिंग के बूते होगा।

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