चांद के अज्ञात दक्षिणी ध्रुव के नजदीक चंद्रयान की सॉफ्ट लैंडिंग ने भारत को दुनिया के कुलीन मुल्कों के समूह में ला खड़ा किया है। यह इसरो को अंतरिक्ष में गहराई में उतरने के लिए आधार और विश्वास देता है। एक ऐसे समय में जब अंतरिक्ष में जाने वाले देश अपना अलग कुनबा बनाने की कोशिश में लगे हैं और इस क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए दोबारा कोशिश हो रही है, तो भारत को सावधानी से अपने रास्ते की रूपरेखा तैयार करने की जरूरत है
भारत, मैं अपनी मंजिल पर पहुंच गया और आप भी!” 28 अगस्त की शाम 6.04 बजे चंद्रयान-3 से इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) को भेजा गया यह संदेश आकाशवाणी जैसा ही था। इन मिशन के सफल होने के साथ ही चांद के अज्ञात दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने वाला भारत, दुनिया का पहला देश बन गया। वहीं, चांद की सतह पर पहुंचने की बात करें, तो रूस, अमेरिका और चीन के बाद भारत चौथा मुल्क है। इस उपलब्धता को मानो और रेखांकित करने के लिए अगले 10 दिनों में भारत ने आदित्य-एल1 नाम से अपना पहला सौर मिशन लॉन्च कर दिया। अंतरिक्ष आधारित यह वेधशाला 126 दिनों में भारत और सूरज के बीच में लैगरेंज -1 (एल1) बिंदु पर पहुंच कर सूरज की आबोहवा को समझेगा। अगर यह मिशन सफल हो जाता है, तो भारत, उन चुनिंदा देशों के समूह में शामिल हो जाएगा, जो सूरज के आसपास अपनी वेधशाला स्थापित कर चुके हैं। इस समूह में जापान, अमेरिका, यूरोप और चीन हैं।
इस ऐतिहासिक कामयाबी का जश्न भारत में जोश-ओ-खरोश के साथ मनाया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चंद्रयान-3 की लैंडिंग के तुरंत बाद कहा कि “यह सफलता 140 करोड़ भारतीयों की महत्वाकांक्षाओं और क्षमताओं का आईना है”। अब इसे अनायास ही आया मौका कहा जाए या सीधा संयोग कि भारत ने यह कामयाबी जी-20 सम्मेलन से महज दो हफ्ते पहले ही हासिल कर ली, जिसकी मेजबानी खुद भारत कर रहा है। जी-20, मुख्य रूप से बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले और यूरोपीय संघ के 19 देशों का एक अंतर सरकारी मंच है। यह सम्मलेन तेजी से ध्रुवीकृत हो रही दुनिया में, भारत के लिए खुद को बढ़ती अर्थव्यवस्था, तकनीकी और जियोपॉलिटिकल सुपर पावर वाले देश के रूप में प्रस्तुत करने का एक अद्वितीय अवसर था। पिछले साल दिसंबर में जी-20 की मेजबानी मिलने के बाद सरकार ने बहुपक्षीय कुटनीति के तहत सदस्य देशों के नेताओं के साथ 200 बैठक और गहरी विवेचना की। चंद्रयान-3 की सफलता और आदित्य-एल1 की लॉन्चिंग ने जी-20 के मेजबान देश के रूप में भारत के कद को मजबूती दी है क्योंकि वैश्विक नेतृत्व के संकेतकों में एक संकेतक तकनीकी तौर पर उन्नत होना भी है। भारत को मृदु शक्ति के रूप में पेश करने में चंद्रयान-3 और आदित्य-एल1 की सफलता की बड़ी भूमिका है। इससे पता चलता है कि भारत किस तरह अंतरिक्ष शक्ति के रूप में उभरा है। दक्षिण अफ्रीका की यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न केप में सहायक प्रोफेसर व ब्रिटिश इंटरप्लेनेटरी सोसाइटी के सदस्य व केथ गाचौक ने डाउन टू अर्थ से कहा। इसरो से सेवानिवृत्त विज्ञानी मदन लाल, जो साल 2008 में भारत के पहले मिशन चंद्रयान-1 से जुड़े थे, कहते हैं, “भारत ने अब अंतरिक्ष पर जाने वाले देशों में अहम स्थान हासिल कर लिया है। वैश्विक स्तर पर अंतरिक्ष गतिविधियों की नीतियां बनाने में भारत एक अहम किरदार निभाएगा।”
देश की अंतरिक्ष महत्वाकांक्षाओं को अग्रगति देने के लिए चंद्रयान-3 की सफलतापूर्वक लैंडिंग अत्यावश्यक थी
इसरो के पास चंद्रयान को विकसित कर लॉन्च करने का बजट महज 615 करोड़ रुपए था। अगर तुलनात्मक रूप से देखें, तो साल 2024 में चांद पर भेजने के लिए अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा जो वोलेटाइल्स इन्वेस्टिगेटिंग पोलर एक्सप्लोरेशन रोवर (वीआईपीईआर) बना रहा है, उसका बजट 3619 करोड़ रुपए (660 अमेरिकी डॉलर) है, जो भारत के चंद्रयान-3 के बजट से लगभग 6 गुना अधिक है। बेहद कम बजट होने के बावजूद कम शक्ति वाले रॉकेट और पृथ्वी तथा चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण बल का इस्तेमाल कर इसरो सफलता हासिल कर सका (देखें पृष्ठ 8, मून रोवर)। इस सफलता ने सॉफ्ट लैंडिंग के लिए स्थानीय स्तर पर विकसित की गई तकनीक पर इसरो का आत्मविश्वास भी बढ़ा।
सॉफ्ट लैंडिंग का मतलब क्षतिग्रस्त हुए बिना प्रोब का खगोलीय पिंड पर उतरना है। चंद्रमा पर मानव की चहलकदमी का 50 साल से भी अधिक वक्त बीच चुका है। फिर भी मानव व रोबोट को इस ग्रह पर भेजना मुश्किल होता है। चंद्रमा की आबोहवा बेहद पतली होती है, जो सतह पर उतरते अंतरिक्ष यान को रोकने में रुकावट नहीं बन पाती है। ऐसे में अंतरिक्ष यान की रफ्तार धीमी होना इंजन पर निर्भर होता है। अतः यह विज्ञानियों को चूक करने का बहुत कम मौका देता है। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरना और भी मुश्किल है क्योंकि यह एक पर्वतीय क्षेत्र है, जहां गहरे गड्ढे हैं। चंद्रमा की वक्रता पृथ्वी से सीधे संपर्क स्थापित करने में प्रायः व्यवधान बनती है, जिससे लैंडर की कक्षा बदलने में मिशन कंट्रोल रूम को मुश्किल आती है। भारत ने साल 2019 में चंद्रयान-2 के जरिये चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने की कोशिश की थी। लेकिन, सॉफ्टवेयर में खराबी के चलते इसका लैंडर क्रैश हो गया था। चंद्रयान-3 से तीन दिन पहले ही रूस का लूना-25 प्रणोदन प्रणाली के जरिए कक्षा बदल कर मिशन चंद्रमा की सतह पर जोर से उतरा था। अप्रैल में जापान की एक कंपनी आई स्पेस का हकूटो-आर अंतरिक्ष यान, लैंडर की ऊंचाई का गलत माप होने के चलते क्रैश हो गया था।
अतः 17 अगस्त को अपने पेट में रोवर प्रज्ञान को लेकर जा रहा लैंडर विक्रम अंतरिक्ष यान से अलग हो गया और चंद्रमा की सतह की तरफ उतरने से पहले अगले छह दिनों तक इसकी रफ्तार धीमी रही। इसरो के बेंगलुरु स्थित मुख्यालय में विज्ञानी अपनी सांस थामे सब कुछ देख रहे थे। विक्रम उतरने के अपने लक्षित स्थान से थोड़ी दूर “69.373 दक्षिण, 32.319 पूरब” में उतरा। उस बिंदु को अब शिव शक्ति प्वाइंट नाम दिया गया है। लाल कहते हैं “अपने लक्ष्य से थोड़ा भटकाव होना प्राकृतिक है।” लैंडर में चंद्रमा की सतह का रेफरेंस मानचित्र पहले से ही डाल दिया गया था। नीचे उतरते हुए लैंडर रेफरेंस सूचना की तुलना संग्रहित वास्तविक समय के डेटा से करता है। सभी प्रक्रियाएं स्वचालित होती हैं। लाल ने कहा ऐसे में लैंडर ने निश्चित तौर पर चंद्रमा पर गड्ढे के रूप में संकट देखा होगा, इसलिए उसने लक्षित बिन्दु के आसपास की जगह को चुना। इसरो के विज्ञानियों का दावा है कि चंद्रयान-2 की हार्ड लैंडिंग से सीख लेकर उन्होंने चंद्रयान-3 में सुधार किया था। इसरो ने बड़ी चूक की आशंका के मद्देनजर इच्छित लैंडिंग जोन की लम्बाई 4.2 किलोमीटर और चौड़ाई 2.5 किलोमीटर रखी । लैंडर में भी चार इंजन हैं, जिनमें उतार के चरणों में रफ्तार को नियंत्रित करने, ऊंचाई और अभिविन्यास के लिए एडजस्टेबल थ्रोटल, ओरिएंटेशन और वेलोसीमीटर लगे हैं।
यूके की ओपेन यूनिवर्सिटी में रिसर्च स्टाफ सिमिओन बार्बर दक्षिणी ध्रुव में चंद्रयान-3 की सॉफ्ट लैंडिंग के लिए इसरो की तारीफ करते हैं क्योंकि दक्षिणी ध्रुव की तरफ जाने पर जोखिम बढ़ जाता है। वह कहते हैं, “चंद्रयान-3 ने जहां लैंड किया है वहां सीमित रोशनी पहुंचती है इसलिए संदर्भ डेटा के आधार पर लैंडर के लिए जगह की तुलना करना मुश्किल होता है।” मगर इसरो ने बता दिया है कि उनका सिस्टम काम करता है। वह आगे कहते हैं कि अब इसे (इसरो को) दक्षिणी ध्रुव पर अगले चंद्र अभियानों के लिए अधिक लचीलापन लाना होगा।
चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के लक्ष्य ने इसरो को एक नई ऊंचाई दी है क्योंकि इसरो ने महज 2008 में क्रू रहित चंद्रयान -1 भेजकर चंद्र मिशन शुरू किया था। अब सरकारें व निजी कंपनियां इस क्षेत्र में अध्ययन और यहां के संसाधनों का इस्तेमाल करने के लिए मिशन की योजना बना रही हैं। माना जाता है कि चंद्रमा पर बर्फ की अवस्था में पानी का अहम भंडार मौजूद है। पानी के इन बर्फों का इस्तेमाल रॉकेट ईंधन बनाने में किया जा सकता है और इससे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को ऑक्सीजन और पानी मिल सकता है। ऐसे में ये भंडार चंद्रमा पर कॉलोनियां बसाने और चंद्र मिशनों के लिए अहम हैं। स्पेस एक्सप्लोरेशन को प्रोत्साहन देने वाली गैर सरकारी संस्था प्लैनेटरी सोसाइटी के अनुमान के मुताबिक, चंद्रमा के दोनों ध्रुवों पर 600 बिलियन किलोग्राम का पानी बर्फ मौजूद हो सकता है। आकार में यह बर्फ इतना है कि ओलम्पिक के आकार के 240000 स्विमिंग पूल को भरा जा सकता है।
लाल विस्तार से समझाते हैं कि चांद के दोनों ध्रुवों पर गहरे गड्ढे हैं, जहां करोड़ों सालों से सूरज की रोशनी नहीं पड़ी है। लेकिन, दक्षिणी ध्रुव में बड़े गड्ढे हैं, जो काफी गहरे हैं और और वहां पूरी तरह अंधेरा है जो पानी का बर्फ मिलने की सबसे सही जगह है। फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी, डिपार्टमेंट ऑफ स्पेस के जिओ साइंसेज डिवीजन के प्रमुख नरेंद्र भंडारी ने कहा, “चंद्रयान-1 के साथ भेजे गये मून इम्पैक्ट प्रोब को जान बूझकर चंद्रमा की सतह पर क्रैश कराया गया था और इसने वायुमंडल में पानी की मौजूदगी की शिनाख्त कर इस क्षेत्र में और खोज करने को मजबूत आधार दिया।” भंडारी आगे कहते हैं कि वैज्ञानिक, चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव में इसलिए भी अधिक दिलचस्पी ले रहे हैं क्योंकि यहां सबसे पुरानी चट्टान मौजूद हैं और इसमें हमारे प्राकृतिक सैटेलाइट की उत्पत्ति के समय दर्ज हो सकते हैं।
चंद्र दिवस पृथ्वी पर 14 दिन का होता है। इसरो ने बताया कि इससे सूरज की रोशनी से 14 दिनों तक लैंडर और रोवर चार्ज होते रहेंगे
चंद्रयान अपने साथ छह उपकरणों को लेकर गया है। लैंडर से अलग हुआ प्रोपल्सन मॉड्यूल फिलहाल चंद्रमा की परिक्रमा कर रहा है और अगले कम से कम छह महीने तक वह परिक्रमा जारी रखेगा। इसके साथ स्पेक्ट्रो-पोलेरिमेट्री है, जो चंद्रमा पर जीवन की संभावनाओं के संकेत देख रहा है। लैंडर में तीन स्वदेश निर्मित उपकरण हैं -चंद्रमा से जुड़े अति संवेदनशील आयन मंडल और वायुमंडल की रेडियो शारीरिक रचना (रंभा) को निकट सतह के प्लाज्मा (आयन और इलेक्ट्रॉन) घनत्व और समय के साथ इसमें परिवर्तन को मापने के लिए डिजाइन किया गया है।
चंद्रमा का सरफेस थर्मो फिजिकल एक्सपेरिमेंट (चास्टे) को ध्रुवीय क्षेत्र के निकट चंद्र सतह के तापीय गुणों का मापन करने के लिए लगाया गया है और चंद्रमा की भूकंपीय गतिविधि मापने का उपकरण (आईएलएसए), प्राकृतिक भूकंप से बनी भूकंपीयता, प्रभाव व कृत्रिम घटनाओं का अध्ययन करेगा। रोवर में दो उपकरण हैं। एक उपकरण अल्फा कण एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (एपीएक्सएस) है, जो चंद्रमा की सतह की रासायनिक संरचना और खनिज संरचनाओं का अध्ययन करेगा।
वहीं दूसरा उपकरण लेजर प्रेरित ब्रेकडाउन स्पेक्ट्रोस्कोप (एलआईबीएस) है, जो चंद्र-सतह की लैंडिंग साइट के निकट की मिट्टी और चट्टानों की तात्विक संरचना मैग्नीशियम, एल्युमीनियम, सिलिका, पोटेशियम, कैल्शियम, टाइटेनियम और आयरन) का अनुमान लगाएगा।
रेडियो तरंगों के जरिए इन उपकरणों ने जानकारियां भेजनी शुरू कर दी है। रोवर सीधे लैंडर से संवाद करता है और लैंडर, प्रोपल्सन मॉड्यूल या चंद्रयान-2 के ऑर्बिटर, जो साल 2019 से ही चंद्रमा के आसपास घूम रहा है, के माध्यम से इसरो से प्रत्यक्ष या परोक्ष संवाद कर सकता है।
26 अगस्त को आईएलएसए उपकरण ने संभवतः प्राकृतिक तौर पर होने वाली भूकंपीय गतिविधियों का पता लगाया, लेकिन इन गतिविधियों के स्रोत की शिनाख्त अभी बाकी है। इसके अगले दिन इसरो ने घोषणा की कि सीएचएएसटीई उपकरण, जो सतह में 10 सेंटीमीटर भीतर तक जा सकता है, ने पता लगाया है कि कैसे अलग-अलग गहराइयों में अलग-अलग तापमान होते हैं। सतह पर 50 डिग्री सेल्सियस तापमान है, जो गहराई में जाते हुए कम होता जाता है और 20 मिलीमीटर गहराई में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के आसपास हो जाता है। 60 मिलीमीटर में तापमान गिरकर 10 डिग्री सेल्सियस और 60 मिलीमीटर गहराई में तापमान माइनस 10 डिग्री सेल्सियस पर आ जाता है। इसरो के पूर्व डिप्टी डायरेक्टर एसवी शर्मा कहते हैं, “दक्षिणी ध्रुव के आसपास पहली बार ऐसी जानकारी मिली है।” 28 अगस्त के अगले ही दिन एलआईबीएस उपकरण ने दक्षिणी ध्रुव में सल्फर का पता लगाया। शर्मा समझाते हैं, “सल्फर यह संकेत देता है कि वहां पानी ठोस रूप में मौजूद है। सल्फर का इस्तेमाल कर जीवन के लिए अमीनो एसिड व प्रोटीन बनाने की संभावना है, जो पदार्थ जीवन के लिए अहम है।” इसके अलावा शुरुआती सबूत में चंद्रमा की सतह पर एलुमिनियम, कैल्शियम, आयरन, क्रोमियम और टाइटेनियम की भी मौजूदगी मिली है। साथ ही मैगनीज, सिलिकॉन और ऑक्सीजन पाये जाने के भी संकेत मिले हैं और हाइड्रोजन की मौजूदगी को भी देखा गया।
30 अगस्त को इसरो ने एपीएक्सएस से मिली जानकारियों के बारे में घोषणा की। इस उपकरण ने चंद्रमा किन तत्वों से मिलकर बनी है, उसका विश्लेषण किया। इसने सल्फर व अन्य तत्वों मसलन एलुमिनियम, सिलिकॉन, कैल्शियम और आयरन की मौजूदगी की शिनाख्त की।
चंद्रयान-3 की लैंडिंग की योजना इस तरह थी कि वह चंद्र दिवस के शुरू होने के साथ ही दक्षिणी ध्रुव पर लैंड कर जाए। चंद्र दिवस पृथ्वी पर 14 दिनों का होता है। इसरो ने बताया कि इससे सूरज की रोशनी लगातार 14 दिनों तक चंद्रमा पर पड़ेगी, जिससे लैंडर और रोवर अपनी बैटरियां चार्ज कर लेंगे और काम करेंगे। सूरज की रोशनी 2 सितम्बर से पड़नी शुरू हुई और इसरो ने लैंडर व रोवर, जो 100 मीटर आगे बढ़ चुके थे, को निद्रा की स्थिति में डाल दिया। इसरो को उम्मीद है कि वे 22 सितंबर वे नींद से जागेंगे, जब दूसरा चंद्र दिवस शुरू होगा।
इधर, चंद्रयान-3 की सफलता के साथ ही 2 सितंबर को अपने पहले सौर मिशन आदित्य-एल1 को लॉन्च कर भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो भी विकसित देशों के बराबरी में पहुंच गया है। आदित्य-एल1 कुल 15 लाख किलोमीटर की दूरी तय अंतरिक्ष में एल1 बिंदु पर पहुंचेगा, जहां पृथ्वी और सूरज की गुरुत्वाकर्षण शक्ति एक दूसरे को खारिज करती है, जिससे अंतरिक्ष यान उस बिंदु पर न्यूनतम ईंधन खर्च कर स्थिर रहता है। पृथ्वी और सूरज के बीच की दूरी लगभग 1500 लाख किलोमीटर है यानी कि एल1, महज 1 प्रतिशत की दूरी पर है। इस बिंदु से सूरज सीधे बिना किसी प्रच्छादन (जब एक वस्तु दूसरी वस्तु के सामने से होकर गुजरती है, जैसा कि पृथ्वी से देखा जाता है) या ग्रहण के दिखता है।
आदित्य-एल1 अपने साथ सात उपकरणों को लेकर गया है, जो सूरज की सतह (फोटोस्फेयर), क्रोमोस्फेयर (फोटोस्फेयर और सूरज के ऊपरी वातावरण या कोरोना के बीच की प्लाज्मा की पतली परत) और सूरज की सबसे बाहरी सतह का गहराई से अध्ययन करेगा। इसरो को आदित्य-एल1 की मदद से सौर गतिविधियों और इन गतिविधियों का असल समय में अंतरिक्ष के मौसम पर क्या असर होता है, ये पता लगने की उम्मीद है। आदित्य-एल1 कोरोनल ऊष्मा का अध्ययन कर यह समझने की भी कोशिश करेगा कि यह क्षेत्र सूरज की सतह के मुकाबले 200-500 गुना गर्म क्यों है। साथ ही, यह कोरोनल मास इजेक्शन या सीएमईएस (सूरज की तरफ से तेज रफ्तार से फेंके जाने वाले चुंबकीय क्षेत्र और प्लाज्मा विस्फोट) और अंतरिक्ष के मौसम के गतिविज्ञान को भी समझेगा।
चूंकि विकिरण, ऊष्णता, पार्टिकल्स (सौर हवा) व चुंबकीय फील्ड पृथ्वी पर लगातार पहुंचता है, तो चुंबकीय झंझावात को उत्प्रेरित करने के लिए सीएमईएस पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। इस तरह की गतिविधियां सैटेलाइट्स जैसे अंतरिक्ष संपत्तियों के कामकाज को प्रभावित कर सकते हैं।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स में एसोसिएट प्रोफेसर पियाली चटर्जी ने डाउन टू अर्थ को बताया, “सीएमईएस पृथ्वी पर पहुंचने में सामान्यतः 8-10 घंटे लेते हैं अतः अपनी अंतरिक्ष संपत्तियों को बचाने के लिए आदर्श रूप में हम इसका पूर्वानुमान दो दिन पहले पहले करना चाहेंगे।” गहरा सीएमईएस संपर्क पर भी असर डाल सकता है क्योंकि वह पृथ्वी के मैगनेटोस्फेयर (पृथ्वी को ढकने वाले अंतरिक्ष का एक क्षेत्र। इसका चुंबकीय क्षेत्र अधिकांश सौर कणों, ऊर्जा और पृथ्वी पर पहुंचने वाली ऊर्जा को हटा देता है) और आयनोस्फेयर (पृथ्वी के ऊपरी वातावरण का हिस्सा, जिसमें इलेक्ट्रॉन की परत होती है और यह 80 किलोमीटर से 600 किलोमीटर ऊपर होती है) पर चोट करता है। चूंकि रेडियो तरंगें आयनोस्फेयर से गुजरती हैं, तो यह सिग्नल को शोरगुल भरा बनाकर रेडियो संपर्क को प्रभावित कर सकती हैं। यह खतरनाक मध्य उड़ान हो सकता है, क्योंकि ग्राउंड पर संपर्क करने के लिए यह रेडियो तरंगों पर निर्भर होता है। जीपीएस भी खराब हो सकता है। चटर्जी कहती हैं, “इस तरह की सभी विस्फोटक घटनाएं इसी तरह की भौतिकी से शासित होती हैं। एक बार हम इसकी भौतिकी को समझ गए, तो दूसरे चरण यानी ‘अंतरिक्ष के मौसम के पूर्वानुमान’में जा सकते हैं।”
फिलवक्त सात सौर अभियान सक्रिय हैं। यूरोपियन स्पेस एजेंसी (ईएसए) के नेतृत्व में साल 2020 में सोलर ऑर्बिटर मिशन लॉन्च किया गया था, जो पहली बार सूरज और इसके कोरोना की नजदीक से तस्वीरें ले रहा है। नासा के पार्कर सोलर प्रोब, सोलर डायनैमिक्स वेधशाला और स्टीरियो-ए स्पेसक्राफ्ट भी सूरज का अध्ययन कर रहे हैं। एल1 पर अवस्थित एसा-नासा सोलर और हेलियोस फेरिक वेधशाला साल 1995 से ही सूरज पर नजर रखे हुए हैं। इसके अलावा जापान का हिनोद और चीन का एडवांस्ड स्पेस आधारित सौर वेधशाला भी सूरज की रेस में शामिल हो गई है।
नासा के पार्कर सोलर प्रोब में जो उपकरण हैं, वे मुख्य तौर पर हेलियोस्फीयर (अंतरिक्ष का वो हिस्सा जिस पर सूरज का प्रभाव पड़ता है) और सौर कोरोना का अध्ययन करते हैं। इसकी तुलना में आदित्य-एल1 सूरज के अध्ययन के लिए अलग-अलग रणनीतियां अपना रहा है।
चटर्जी विस्तार से बताती हैं, “सोलर पार्कर प्रोब लैगरेंज-1 की तरह एक स्थान पर स्थिर नहीं रहेगा। यह अलग-अलग अक्षों में सूरज के आसपास घूमेगा और कभी-कभी यह 10 से 30 व्यासार्ध नजदीक तक आएगा और कभी-कभी काफी दूर बृहस्पति के अक्ष से भी दूर जाएगा।
प्रोब सूरज से अलग-अलग दूरी की स्थितियों को मापेगा और आखिर में सूरज के कोरोना में जाकर खत्म हो जाएगा।” सोलर प्रोब में एसआईटीयू उपकरण है, जो अंतरिक्ष यान के रास्ते की स्थानीय स्थितियों को मापेगा।
इसरो के विज्ञानियों ने कहा कि आदित्य-एल1 अगर अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता है और उम्मीद के मुताबिक काम करता है, तो इससे जो जानकारियां मिलेंगी, उन्हें दूसरे देशों के साथ साझा किया जाएगा।
अंतरिक्ष खोजों के लिए भारत और भी देशों के साथ सहयोग कर रहा है। इससे भारत भविष्य में अपने और कई अभियानों को अंतिम रूप दे सकेगा
वैश्विक अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत का प्रभाव धीरे धीरे बढ़ रहा है। वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में अपनी बड़ी हिस्सेदारी पाने में प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारत ने हाल में अपने अंतरिक्ष क्षेत्र का उदारीकरण किया है। भारतीय अतंरिक्ष क्षेत्र में निजी कंपनियों की भागीदारी लगातार बढ़ रही है। कई कंपनियां दिलचस्पी दिखा रही हैं।
अंतरिक्ष क्लब पर पश्चिमी मुल्कों का दबदबा रहा है और लम्बे समय तक भारत इस क्लब के लिए बाहर रहा, मगर इसी साल जून में अमेरिका ने आर्टेमिस समझौते में भारत को आमंत्रित किया। साल 1966 के बाह्य अंतरिक्ष संधि से अस्तित्व में आया आर्टेमिस समझौता अमेरिका के नेतृत्व में चंद्रमा और मंगल ग्रह पर अंतरिक्ष खोज को विस्तार देने वाला एक अंतरराष्ट्रीय सहयोग है। भारत इस इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाला 26वां देश है।
दोनों देशों की स्पेस एजेंसियां नासा और इसरो अगले साल संयुक्त अंतरिक्ष अभियान शुरू करने पर राजी हुई हैं।
अंतरिक्ष खोज के लिए भारत और भी देशों के साथ सहयोग कर रहा है। मसलन, इसरो के आदित्य-एल1 मिशन में ईएसए अहम सहयोग दे रहा है। ईएसए के पास डीप स्पेस ट्रैकिंग स्टेशन का वैश्विक नेटवर्क है। अंतरिक्ष यान के साथ संपर्क स्थापित कर वैज्ञानिक आंकड़े जुटाने के लिए ईएसए, इसरो को ग्राउंड स्टेशन का सहयोग दे रहा है। इसरो व जापान की अंतरिक्ष एजेंसी जेक्सा तो संयुक्त चंद्रमा खोज मिशन (एलयूपीईएक्स) पर काम भी कर रहे हैं। इस मिशन का लक्ष्य अगले साल चांद के दक्षिणी ध्रुव पर लैंडर व रोवर भेजना है।
इसी तरह का सहयोग रूस और चीन के बीच भी उभर रहा है। रूस ने घोषणा की कि वह साल 2024 के बाद इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) कार्यक्रम से बाहर निकल जाएगा। अंतरिक्ष मिशनों में पश्चिमी देशों के लिए शीतयुद्ध के बाद रूस काफी मददगार रहा है।
रूस ने कीमत चुकाकर लॉन्च क्षमता और अंतरिक्ष यान मुहैया कराया था। इसके तुरंत बाद एक इंटरनेशनल साइंटिफिक लूनर स्टेशन स्थापित करने के लिए रूस ने चीन के साथ एक अनुबंध किया। चीन ने भी बहुत जल्द अपना पहला अंतरिक्ष स्टेशन लॉन्च किया और इसे टियांगॉन्ग (मंदारिन में इसका अर्थ ‘स्वर्ग जैसा महल’ है) नाम दिया।
यह अंतरिक्ष स्टेशन चीन के लिए एक बड़ी उपलब्धि है, जो चीन की स्थिति मजबूत करती है और अमेरिका व रूस के साथ चीन को भी दुनिया के शीर्ष तीन अंतरिक्ष शक्तियों में शामिल करता है।
गाचौक कहते हैं, “रूस-युक्रेन युद्ध के चलते हो रहे ध्रुवीकरण और विपक्षी गुटों की लामबंदी के कारण अब हम दूसरे शीत युद्ध में हैं। पिछली बाहर सिर्फ दो गुट थे – सोवियत संघ और यूएस। मगर इस बार छह गुट हैं – यूएस, चीन, भारत, रूस, यूरोप और जापान। इसका दुष्परिणाम यह है कि राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के चलते अंतरिक्ष का बजट बढ़ेगा और अंतरिक्ष विज्ञानी और दूसरे विज्ञानी इसका फायदा उठाएंगे।” उन्हें उम्मीद है कि अंतरिक्ष के इस नये दौर का फायदा भारत को मिलेगा।
“रूस और अमेरिका दोनों ही भारत को अपने हथियारों का बड़ा ग्राहक बनाये रखने के इच्छुक हैं, इसलिए दोनों में से कोई भी इसे विलेन बनाना नहीं चाहेगा।
वह कहते हैं “मैं भविष्य में आईएसएस के आखिरी वर्षों में भारत को आमंत्रण मिलते हुए देखना चाहूंगा। भविष्य में कभी चीन भी भारत के विज्ञानियों को अपने अंतरिक्ष स्टेशन से व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिए प्रस्ताव भेजने का आमंत्रण दे सकता है।”
हालांकि, दिल्ली की एक लॉ फर्म दुआ एसोसिएट्स से जुड़ी रंजना कौल, जो बाह्य अंतरिक्ष संधि की विशेषज्ञ भी हैं, का कहना है कि अंतरिक्ष गतिविधियों, चंद्र मिशन और अंतरिक्ष संसाधन गतिविधियों से जुड़े समझौतों पर हस्ताक्षर करने में सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि इनकी रूपरेखा के मसौदों की अलग-अलग पार्टियों द्वारा अलग-अलग तरीके से व्याख्या की जा सकती है।
उदाहरण देते हुए कौल बताती हैं कि साल 1967 की बाह्य अंतरिक्ष संधि के आधार पर बना अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष कानून, एक बहुपक्षीय संधि है जो बबाह्य अंतरिक्ष के इस्तेमाल और इसकी खोज में देशों की गतिविधियों को शासित करता है।
इस संधि का अनुच्छेद 1 कहता है कि चंद्रमा व अन्य खगोलीय अंगों समेत बाह्य अंतरिक्ष बिना किसी भेदभाव के सभी देशों की खोज और इस्तेमाल के लिए मुक्त रहेंगे। वहीं, इसका अनुच्छेद 2 उपयोग और आवेदन के माध्यम से संप्रभुता का दावा करते हुए राष्ट्रीय उपयोग को रोकता है।
अमेरिका ने अनुच्छेद 1 और 2 के बीच अस्पष्टता की पुनर्व्याख्या करते हुए आर्टेमिस समझौता तैयार किया है। यह अनुच्छेद 1 के अनुसार, चांद या किसी अन्य हिस्से पर दावा किये बिना खनिज संसाधनों की निकासी का प्रस्ताव देता है।
ऐसे में सवाल है कि अनुच्छेद 2 का उल्लंघन किये बिना कैसे कोई संसाधनों की निकासी करेगा? इसके अलावा रूस और चीन इन अनुच्छेदों का क्या अर्थ निकालते हैं, यह जानना दिलचस्प होगा क्योंकि दोनों देशों ने चंद्रमा पर खोज के लिए हाथ मिलाया है और वे दूसरे देशों को इसमें शामिल करने को राजी हैं।
कौल कहती हैं, “अब हम अत्याधुनिक अंतरिक्ष गतिविधियों को बरत कर रहे हैं। इसके लिए अत्याधुनिक अंतरराष्ट्रीय कानून चाहिए जिसकी रूपरेखा यथार्थपूर्ण, साफ व स्पष्ट हो। इसके लिए कई संस्थानों को साथ आने की जरूरत है।”
मसलन, भारत में बाह्य अंतरिक्ष का शांतिपूर्ण नागरिक और व्यावसायिक इस्तेमाल अंतरिक्ष विभाग करता है। उन्होंने आगे कहा कि बदलते परिदृश्य में, केंद्रीय गृह मंत्रालय, जो निरस्त्रीकरण को देखता है, को इसमें लगाना चाहिए क्योंकि बाह्य अंतरिक्ष के लिए जो तकनीकें विकसित की जा रही हैं, उनका इस्तेमाल मिलिटरी तकनीकों के लिए भी किया जा सकता है।
अब जब भारत गहरे अंतरिक्ष में प्रवेश कर रहा है, तो जरूरत है कि वह बाह्य अंतरिक्ष को शासित करने वाली वैधानिक रूपरेखा को लेकर समझदारी विकसित करे।
यह रिपोर्ट डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका के वार्षिकांक का एक हिस्सा है। इस अंक में भारत सहित पूरी दुनिया भर के देशों के चांद तक के सफर की कहानी बताई गई है। यह पूरा अंक संग्रहणीय है। यदि आप ऑर्डर करना चाहते हैं तो लिंक पर क्लिक करें