फोटो: आईस्टॉक
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‘डीपफेक’: सूचना-युग में विश्वास का संकट

डीपफेक तकनीक मनोरंजन और शिक्षा के लिए उपयोगी हो सकती है, लेकिन इसका दुरुपयोग भी किया जा सकता है
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सच्चाई पर भरोसा करना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। अब जो हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं या पढ़ रहे हैं, यह सच भी हो सकता है या पूरी तरह झूठ भी। “डीपफेक” इसी बदलती दुनिया का उदाहरण है। यह तकनीक किसी भी चेहरे, आवाज़ या हावभाव को इस तरह दोहरा सकती है कि असली और नकली में फर्क करना लगभग नामुमकिन हो गया है। जैसा कि नीना शिक अपनी पुस्तक  डीपफेक्स और इंफोकैलिप्स (2020) में बताती हैं, डीपफेक तकनीक मनोरंजन और शिक्षा के लिए उपयोगी हो सकती है, लेकिन इसका दुरुपयोग भी किया जा सकता है।

डीपफेक आधुनिक कृत्रिम बुद्धिमत्ता की एक प्रभावशाली तकनीक है, जिसके माध्यम से किसी व्यक्ति के चेहरे, आवाज और हावभाव को इस प्रकार बदला या पुनःनिर्मित किया जा सकता है कि असली और नकली में अंतर करना लगभग असंभव हो जाता है। यह तकनीक “सिंथेटिक मीडिया” का हिस्सा है, जहाँ दृश्य और श्रव्य सामग्री को पूर्णतः कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है।

उदाहरण के रूप में, यदि किसी नेता या अभिनेता का ऐसा वीडियो सामने आए जिसमें वे कोई विवादास्पद बात कहते दिखाई दें, तो यह आवश्यक नहीं कि वह सच हो। संभव है कि किसी व्यक्ति ने डीपफेक तकनीक की सहायता से उस चेहरे और आवाज़ की नकल कर नकली वीडियो तैयार किया हो।  हालांंकि यह तकनीक फिल्म, शिक्षा या मनोरंजन के क्षेत्र में काफी हद तक उपयोगी है, परंतु इसका दुरुपयोग समाज के लिए खतरा बनता जा रहा है। डीपफेक झूठी खबरों, राजनीतिक प्रचार और चरित्र हनन का नया हथियार बन चुकी है।

पहले तस्वीरों या वीडियो में बदलाव करना मुश्किल काम था, लेकिन अब मोबाइल और एक साधारण ऐप से कोई भी मिनटों में ऐसा वीडियो बना सकता है जिसमें कोई व्यक्ति वो बातें कहता दिखे जो उसने कभी नहीं कहीं। यह मनोरंजन का साधन भी बन सकता है, पर जब इसे झूठ फैलाने, लोगों को गुमराह करने या किसी की साख (गरिमा) मिटाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तब यह बेहद खतरनाक रूप ले लेता है।

हाल ही में फोटो, वीडियो और ऑडियो में बदलाव करना केवल विशेषज्ञों या जिनके पास बड़े संसाधन हों (जैसे बड़ी फिल्म कंपनियाँ या सरकारी संस्थाएं) के लिए ही संभव था। आम लोगों के लिए यह मुश्किल काम था। लेकिन अब तकनीक ने इसे आसान और हर किसी के लिए सुलभ बना दिया है। मोबाइल और इंटरनेट के बढ़ते उपयोग के साथ, कोई भी व्यक्ति मिनटों में नकली फोटो, वीडियो या ऑडियो तैयार कर सकता है।

यह तकनीक अभी शुरुआती चरण में है, फिर भी यह भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक समाज में सूचना और सच्चाई की समझ को चुनौती दे रही है। चुनाव, सामाजिक मुद्दे, समाचार या सोशल-मीडिया पर फैलने वाली बातें सब पर भरोसा करना अब उतना आसान नहीं रहा। जब 19वीं सदी में फोटोग्राफी आई और लोगों को पहली बार चीजों को स्थिर रूप में देखने का मौका मिला। लेकिन जल्द ही यह सामने आया कि तस्वीरें हमेशा सच नहीं दिखातीं।

उदाहरण के लिए, अब्राहम लिंकन के समय उनके “हीरो जैसा” कोई चित्र उपलब्ध नहीं था। एक कलाकार ने उनके सिर को किसी और व्यक्ति के शरीर पर लगा दिया। यह नकली चित्र बन गया और पूरे एक सदी तक किसी को इसका पता नहीं चला। इसी तरह “निगेटिव्स” को काट-छाँटकर जोड़ना, हाथ से चेहरे बदलना, पिंपल या निशान मिटाना सब काम बहुत मेहनत और कौशल का काम होता था।

 परन्तु आज की दुनिया में यह काम और भी आसान हो गया है। मोबाइल और AI की मदद से कोई भी मिनटों में नकली वीडियो या फोटो बना सकता है। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया पर अक्सर ऐसा देखा जाता है कि किसी सेलिब्रिटी की वीडियो या फोटो वायरल होती है, लेकिन वह पूरी तरह नकली हो सकती है। यह मनोरंजन में काम आ सकता है, लेकिन जब इसे झूठ फैलाने या भ्रम पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो यह खतरनाक हो सकता है।

दरअसल, पिछले दो दशकों में पश्चिमी दुनिया की राजनीति में जो सबसे बड़ी समस्या उभरी है “विश्वास का संकट” (क्राइसिस ऑफ ट्रस्ट)। लोग यह महसूस करने लगे कि “सिस्टम अब उनके लिए काम नहीं कर रहा।” इस विश्वास संकट के पीछे कई गहरे कारण हैं। पहला, 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी ने आम लोगों का भरोसा तोड़ दिया। बड़ी कंपनियां और बैंक बचा लिए गए, लेकिन आम नागरिक बेरोजगारी और आर्थिक असुरक्षा में डूब गए। लोगों को लगा कि सरकारें केवल अमीरों के लिए काम करती हैं।

दूसरा, वैश्वीकरण ने दुनिया को जोड़ा जरूर, लेकिन इससे अमीरी-गरीबी की खाई और चौड़ी हो गई। छोटे व्यापार और स्थानीय रोज़गार पर असर पड़ा, जिससे आम आदमी को लगा कि विकास उसके हिस्से में नहीं आया। तीसरा, प्रवासन ने सांस्कृतिक और आर्थिक तनाव बढ़ाया। लोगों को डर होने लगा कि उनके रोजगार और पहचान पर खतरा मंडरा रहा है।

चौथा, तकनीकी बदलाव ने दुनिया को तेज तो बनाया, पर इंसानों के बीच दूरी भी बढ़ा दी। काम के तरीके बदले, कई नौकरियां खत्म हुईं, और समाज में असुरक्षा की भावना गहरी हुई। पांचवांं, झूठी खबरों और गलत सूचनाओं के दौर ने सच्चाई पर से भरोसा ही हटा दिया। सोशल-मीडिया पर फैली अफवाहें और आधी-अधूरी जानकारियाँ लोगों को गुमराह करने लगीं हैं।

यह बदलाव जितना रोमांचक है, उतना ही खतरनाक भी; क्योंकि अब हम एक ऐसी सूचना-व्यवस्था में जी रहे हैं जहां सच और झूठ के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है। फिर भी उम्मीद बाकी है। कई संस्थाएँ, तकनीकी विशेषज्ञ और नागरिक मिलकर इस “सूचना संकट” से लड़ने के लिए आगे आ रहे हैं। वे न केवल इस खतरे को समझ रहे हैं, बल्कि समाधान भी खोज रहे हैं; ताकि समाज को झूठ, अफवाह और डिजिटल धोखे से बचाया जा सके।

 लेखक समाजशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज में शोध छात्र हैं। इनका शोध ग्रामीण समाज में सोशल-मीडिया के प्रभावों पर केंद्रित है।

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