साइबोर्ग: एक ऐसा जीव जो मानव शरीर और तकनीक का मेल है

साइबोर्ग: एक ऐसा जीव जो मानव शरीर और तकनीक का मेल है

डोना हैरवे ने 1985 में लिखी अपनी किताब “ए साइबोर्ग मेनिफेस्टो” में इंसानी शरीर में तकनीक के इस्तेमाल की कल्पना की थी
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कल्पना कीजिए कि आप सुबह नींद से उठते ही मोबाइल देखते हैं, दिनभर लैपटॉप पर काम करते हैं और शाम को सोशल मीडिया पर भावनाएं साझा करते हैं-क्या आपने कभी सोचा है कि आप खुद एक “साइबोर्ग” (मानव और तकनीकी का मेल) बन चुके हैं? डोना हैरवे, ने 1985 में लिखी अपनी किताब “ए साइबोर्ग मेनिफेस्टो” में इसी विचार को सामने रखा। ए साइबोर्ग मेनिफेस्टो को अमेरिकी विद्वान डोना हैरेवे ने 1985 में लिखा था।। बाद में 1991 में यह एक पुस्तक “सिमियन्स, साइबॉर्ग्स और वीमेन: द रीइनवेंशन ऑफ नेचर” में अध्याय के रूप में पुन: प्रकाशित हुआ।

उन्होंने कहा कि साइबोर्ग अब कोई दूर की कल्पना नहीं, बल्कि हमारी आज की हकीकत है। आज तकनीक सिर्फ उपकरण नहीं, हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी है।

साइबोर्ग आज केवल मशीन नहीं, बल्कि बदलाव का प्रतीक बन गया है- जहां इंसान और तकनीक मिलकर एक नई सामाजिक क्रांति रच रहे हैं। एक ग्रामीण कुम्हार जब परंपरागत चाक छोड़कर मोटरचालित चाक से काम करता है, या एक दलित लड़की जब स्मार्टफोन के ज़रिए ऑनलाइन क्लास करती है, तब वह केवल उपभोक्ता नहीं, बल्कि एक सशक्त तकनीकी प्राणी- एक साइबोर्ग-बन जाती है।

हैरवे यह तर्क देती हैं कि साइबोर्ग की कल्पना उन पारंपरिक सीमाओं को तोड़ती है, जिनमें समाज ने इंसानों को बांट रखा है- जैसे स्त्री/पुरुष, मनुष्य/जानवर, प्रकृति/मशीन, घरेलू/सार्वजनिक।

आज की दुनिया में महिलाओं की पहचान को सिर्फ एक शब्द में समेटना कठिन है। उनकी लाइफ जाति, वर्ग, संस्कृति और समाज से प्रभावित होती है। पहले यह माना जाता था कि महिलाओं के मुद्दे समान होते हैं, लेकिन अब यह समझ बढ़ी है कि हर महिला का अनुभव अलग है।

लेखिका ने यह सुझाव दिया कि हमें महिलाओं को समानता के आधार पर एकजुट करने की बजाय, “सद्भाव” की भावना से एक साथ आना चाहिए- यानी, साझा लक्ष्यों और विचारों पर आधारित सहयोग। इस दृष्टिकोण से पहचानें स्थिर नहीं रहतीं, बल्कि लचीली और बदलती रहती हैं।

“साइबोर्ग” का विचार इस बदलाव का प्रतीक है, जो न केवल तकनीकी और पहचान की सीमाओं को तोड़ता है, बल्कि नई संभावनाओं और रास्तों को दिखाता है। यह हमें बताता है कि महिलाएँ अपनी भिन्नताओं को स्वीकार करते हुए, एक नए रूप में पहचान बना सकती हैं।

आज के डिजिटल युग में विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने काम करने और जीने के तरीकों को पूरी तरह बदल दिया है, विशेष रूप से महिलाओं के लिए। जहां कभी महिलाएं केवल घरेलू भूमिका तक सीमित थीं, वहीं आज वे तकनीक की मदद से समाज के हर क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी निभा रही हैं। टेलीवर्किंग, ऑनलाइन व्यापार और ऐप आधारित सेवाओं ने महिलाओं को न केवल आर्थिक रूप से सशक्त बनाया है, बल्कि उन्हें सार्वजनिक मंचों पर अपनी पहचान बनाने का अवसर भी दिया है।

डोना हैरवे का “साइबोर्ग” का विचार- जहां मानव और मशीन की सीमाएं धुंधली हो जाती हैं- भारतीय संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक हो उठता है। एक आदिवासी लड़की जो स्मार्टफोन के जरिए ऑनलाइन शिक्षा ले रही है, या एक दलित महिला जो सोशल मीडिया पर लैंगिक अधिकारों की बात कर रही है- ये महिलाएं केवल तकनीक की उपभोक्ता नहीं, बल्कि उसके माध्यम से सामाजिक बदलाव की निर्माता हैं।

हालांकि, यह तकनीकी सशक्तिकरण पूरी तरह संतुलित नहीं है। “होमवर्क इकोनॉमी” के अंतर्गत वस्त्र उत्पादन, खाद्य प्रसंस्करण या इलेक्ट्रॉनिक्स असेंबली जैसे क्षेत्रों में काम कर रही महिलाएं बेहद असुरक्षित और कम वेतन वाली परिस्थितियों में श्रम कर रही हैं।

फिर भी, यह कहना गलत नहीं होगा कि तकनीक ने महिलाओं की पहचान और श्रम को एक नई परिभाषा दी है- जहां वे न केवल पारंपरिक भूमिकाओं को चुनौती दे रही हैं, बल्कि नए सामाजिक-सांस्कृतिक स्पेस का निर्माण भी कर रही हैं। साइबोर्ग अब एक तकनीकी इकाई नहीं, बल्कि एक सामाजिक संभावना है।

जबकि साइबॉर्ग का रूपक आज के समय में अधिक व्यवहारिक रूप में दिखता है, जहाँ तकनीक और मानवता एक-दूसरे में समाहित हो गए हैं। सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर अपनी डिजिटल पहचान से वास्तविक व्यक्तित्व को जोड़ते हैं, जैसे कि वे अपने आप को तकनीक के माध्यम से पुनः स्थापित करते हैं।

प्रोस्थेटिक अंग और पेसमेकर जैसे उपकरण शारीरिक क्षमताओं को बढ़ाते हैं और जीवन को सहज बनाते हैं। सैन्य प्रौद्योगिकियाँ, जैसे ड्रोन और निगरानी तकनीकें (सीसीटीवी), मानवीय आदेश (हू्यूमन ऑर्डर) और मशीन कार्य का सम्मिलन दिखाती हैं, जिससे यह साबित होता है कि तकनीक और मानव का सामंजस्यपूर्ण संबंध अब पारंपरिक सीमाओं को पार कर चुका है।

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि हम एक नए प्रकार की पहचान की ओर बढ़ रहे हैं, जहां तकनीकी और शारीरिक रूप से दोनों एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करते हैं।

डोना हैरवे की साइबॉर्ग थ्योरी ने नारीवाद, तकनीक और पहचान को देखने का नजरिया बदला है। यह विचार पारंपरिक द्वैधताओं- जैसे स्त्री बनाम पुरुष, मानव बनाम मशीन, प्रकृति बनाम संस्कृति- को तोड़ता है और एक लचीले, बदलते हुए अस्तित्व की बात करता है।

लेकिन इस विचारधारा को लेकर कुछ गंभीर आलोचनाएं भी सामने आई हैं। सबसे पहली बात यह कि हैरवे की भाषा बेहद जटिल और अकादमिक है, जिससे इसे आम लोगों के लिए समझना मुश्किल हो जाता है, खासकर उन लोगों के लिए जो सामाजिक रूप से हाशिये पर हैं।

दूसरा, यह थ्योरी पश्चिमी और तकनीकी रूप से विकसित समाजों के अनुभवों पर केंद्रित है, जहाँ डिजिटल उपकरण आम जीवन का हिस्सा हैं। जबकि भारत के ग्रामीण और वंचित तबकों में तकनीक तक पहुंच अब भी सीमित है, और जाति, वर्ग, लिंग जैसी असमानताएं गहराई से मौजूद हैं।

इसके अलावा, साइबॉर्ग थ्योरी में जाति, भाषा और आर्थिक संघर्ष जैसे मुद्दों को बहुत कम स्थान मिला है। फिर भी, अगर इस विचार को भारतीय संदर्भ के अनुसार ढाला जाए, तो यह उन लोगों के लिए सशक्तिकरण का माध्यम बन सकता है जो तकनीक के जरिए नई पहचान और समानता की ओर बढ़ रहे हैं।

सन्दर्भ: डोना जे. हैरेवे, “सिमियन्स, साइबॉर्ग्स और वीमेन: द रीइनवेंशन ऑफ नेचर”, रूटलेज़, न्यू यॉर्क, 1991, पृष्ठ संख्या: 149 से 181, ₹ 3,469, ISBN: 9780415903875

आभार: अपने शोध निदेशक डॉ. केयूर पाठक (असिस्टेंट प्रोफेसर, समाजशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय) के प्रति।

लेखक सोशल-मीडिया पर समाजशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्विद्यालय में शोधरत हैं

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