चंद्रयान तीन: वैज्ञानिक उपलब्धियों को भुनाने का मर्ज पुराना!

चंद्रयान तीन मिशन भारत का केवल तकनीकी प्रदर्शन भर नहीं है, बल्कि इसे राजनीतिक हथियार के रूप में भी चुनाव में इस्तेमाल किया जाएगा
Photo: twitter@isro
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भारत का चंद्रयान-3 चांद की पांचवी व अंतिम कक्षा में पहुंच गया है और 23 अगस्त को यह चांद पर उतर जाएगा। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का यह तीसरा चंद्र मिशन तकनीकी शक्ति प्रदर्शन वाला प्रोजेक्ट है। अगर यह सफल रहा तो भारत उस विशेष क्लब में शामिल हो जाएगा, जिसमें केवल अमेरिका, पूर्ववर्ती सोवियत संघ और चीन ही हैं।

यह मिशन भारत का केवल तकनीकी प्रदर्शन भर नहीं है, बल्कि राजनीतिक हथियार के रूप में भी चुनाव में इसे भुनाने की कोशिश की जाएगी। ये दुर्लभ क्षण याद दिलाते हैं कि विज्ञान एक राजनीतिक उपकरण है। विज्ञान हमेशा निश्चित होता है, लेकिन इसका इस्तेमाल एक राजनीतिक निर्णय है।

अंतरिक्ष तकनीक अथवा सैन्य शक्ति के ऐसे अव्वल दर्जे के प्रदर्शन, जो एक शक्तिशाली राष्ट्र की रूपरेखा तैयार करते हैं या एक विशिष्ट क्लब में उसके प्रवेश का रास्ता साफ करते हैं, हमेशा मतदाताओं को लक्षित करके किए जाते हैं।

हालिया वर्षों में कई प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में ऐसे कई फैसले हुए हैं। इनमें परमाणु विस्फोटकों के परीक्षण से लेकर लंबी दूरी की मिसाइलें दागना, पहला चंद्र मिशन भेजने से लेकर मंगल ग्रह तक उड़ान भरना और एंटी-सैटेलाइट मिसाइलों के प्रदर्शन से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देने तक के फैसले शामिल हैं। ये वैज्ञानिक मिशन आमतौर पर नागरिकों में प्रबल भावनाएं पैदा करते हैं। और इसी वजह से इन्हें चुनावी हथकंडे के रूप में उपयोग किया जाता है।

वैज्ञानिक उपलब्धियों का राजनीतिकरण समकालीन समय तक ही सीमित नहीं है। हर उन्नत प्राचीन सभ्यता की एक भावनात्मक धारणा रही है जो हमारी कथित श्रेष्ठता को स्थायी रखती है।

उदाहरण के लिए जब राजनीतिक नेतृत्व हाथी के सिर वाले गणेश के बारे में बात करता है तो “प्लास्टिक सर्जरी” के अस्तित्व को प्रकट करता है। इसी तरह संजय द्वारा धृतराष्ट्र को महाभारत युद्ध का वर्णन करके प्राचीन भारत में इंटरनेट का प्रमाण दिया जाता है।

ऐसे उदाहरणों के जरिए इस धारणा को बल दिया जाता है कि तकनीकी चातुर्य भारतीय सभ्यता में स्वाभाविक है। जब हम ऐसी धारणाओं व कहानियां के माध्यम से अपनी प्राचीन तकनीकी उपलब्धियों के बारे में सुनते हैं, तो हमें उस आधुनिक ज्ञान को हजारों वर्षों से अपने पास रखने का एहसास होता है, जिस पर देश अभी महारत हासिल कर रहे हैं।

यह राष्ट्रवादी राजनीतिक एजेंडे में एकदम फिट बैठता है। कोई यह भी तर्क दे सकता है कि ये धारणाएं हमारी हीन भावना को नकारती हैं और हमें श्रेष्ठता का झूठा एहसास दिलाती हैं।

लेकिन हमारी वह प्राचीन तकनीकी अथवा तरीका मुख्यधारा में ज्यादा शामिल नहीं हो पाता, जिनमें महारत हासिल करने के लिए हम अभी भी संघर्ष कर रहे हैं, उदाहरण के लिए प्राचीन भारत में स्वच्छ जल निकासी व्यवस्था अथवा सुरक्षित स्वच्छता प्रणाली।

राजनेताओं द्वारा इस तरह की वैज्ञानिक विरासत के बारे में ज्यादा बात नहीं की जाती, भले ही भारत को खुले में शौच से मुक्त बनाना प्रधानमंत्री का अब तक का सबसे दृश्यमान विकास एजेंडा हो। इसी तरह पिछले साल के अंत में मेघालय सरकार ने दुर्गम गांवों में आवश्यक दवाएं पहुंचाने के लिए ड्रोन सेवा शुरू की।

कई गांवों को पहली बार ड्रोन से जीवनरक्षक दवाएं मिल रही हैं। लेकिन इस उपलब्धि को राजनीतिक एजेंडे के तौर पर ज्यादा नहीं भुनाया गया। हालांकि मेघालय से बहुत दूर दिल्ली में ड्रोन के झुंडों को “शक्ति” के शानदार प्रदर्शन के रूप में पेश किया जा रहा है। भारतीय सेना द्वारा ड्रोन के उपयोग को इस तरह प्रचारित किया जा रहा है कि भारत 21वीं सदी के युद्ध के लिए तैयार हो रहा है।

ऐतिहासिक रूप से विज्ञान और राजनीति न केवल आपस में जुड़े रहे हैं, बल्कि अक्सर दोनों पक्षों की ओर से रणक्षेत्र में भी तैनात रहे हैं। इतिहास के महत्वपूर्ण मौकों पर वैज्ञानिकों ने उस यथास्थिति पर प्रश्न खड़े किए हैं जिससे राजनीतिक लाभ मिलता है।

इन लड़ाइयों में उन्होंने अपनी पकड़ बनाए रखते हुए जीत हासिल की है और समाजों ने झूठे विज्ञान पर आधारित राजनीतिक धारणाओं को खारिज कर दिया। चुनावी लोकतंत्र में जब विज्ञान का राजनीतिकरण हो गया है तो समकालीन समाज के लिए यह तय करने का समय आ गया है कि कौन सा विज्ञान और किसका विवरण एजेंडे में होना चाहिए?

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