अपने आकार में बदलाव कर कुछ बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं को सहने के ज्यादा काबिल बन सकते हैं। यह जानकारी हाल ही में कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी के शिलादित्य बनर्जी और उनकी टीम द्वारा किए शोध में सामने आई है, जोकि अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर फिजिक्स में प्रकाशित हुआ है।
एंटीबायोटिक दवाओं ने लंबे समय से बैक्टीरिया के संक्रमण को रोकने और लोगों को ठीक करने में मदद की है, लेकिन बैक्टीरिया की कई प्रजातियां आज इन एंटीबायोटिक दवाओं से बचने के काबिल बन गई हैं। गौरतलब है कि अनुकूलन एक मौलिक जैविक प्रक्रिया है जो जीवों को वातावरण के अनुसार अपने आप को बेहतर बनाने में मदद करती हैं। जीव अपने व्यवहार और लक्षणों में बदलाव कर ज्यादा बेहतर बन रहे हैं। यह बात चाहे चार्ल्स डार्विन द्वारा बताई जैव-विविधता की हो या इंसानों के साथ पाए जाने वाले बैक्टीरिया की, सभी पर लागु होती है।
बनर्जी काफी लम्बे समय से जीवों की विभिन्न कोशिकीय प्रक्रियाओं के पीछे काम कर रही यांत्रिकी और भौतिकी पर अध्ययन कर रहे हैं। उनके अध्ययन से पता चला है कि कोशिका के आकार का उनके प्रजनन और अस्तित्व पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है। इसे समझने के लिए उन्होंने जीवाणु कॉलोबैक्टर क्रेसेंटस के विकास और आकार पर एंटीबायोटिक दवाओं के पड़ने वाले असर का अध्ययन किया है।
बनर्जी ने बताया कि कोशिकाओं के आकार में परिवर्तन करके बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं को सहने के ज्यादा काबिल बन जाते हैं। यह प्रतिक्रिया उनके एंटीबायोटिक के खिलाफ लड़ने के लिए रणनीति के रूप में कार्य करती है। उनके अनुसार शोध में जब बैक्टीरिया की कई पीढ़ियों को एंटीबायोटिक क्लोरैमफेनिकॉल के संपर्क में रखा गया तो उसने नाटकीय रूप से अपने आकार को बड़ा और घुमावदार बना लिया। इस बदलाव ने बैक्टीरिया को एंटीबायोटिक के असर को झेलने और फिर तेजी से विकसित होने में मदद की थी।
दुनिया में कितना बड़ा है एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट का खतरा
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि विश्व में एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट एक बड़ा खतरा है। अनुमान है कि यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो 2050 तक इसके कारण हर साल करीब 1 करोड़ लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। दवा-प्रतिरोधक बीमारियों के कारण हर वर्ष कम से कम सात लाख लोगों की मौत होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2030 तक इसके कारण 2.4 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी का सामना करने को मजबूर हो जाएंगे। साथ ही इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।
पिछले कुछ दशकों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का स्तर बढ़ता जा रहा है। यह सही है कि एंटीबायोटिक दवाएं किसी मरीज की जान बचाने में अहम भूमिका निभाती है, पर जिस तरह से स्वास्थ्य के क्षेत्र में इनका धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है उससे एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स की समस्या उत्पन्न हो रही है। आज छोटी-छोटी बीमारियों में भी डॉक्टर इन्हें खाने की सलाह दे रहे हैं। धीरे-धीरे दवाएं बैक्टीरिया पर कम प्रभावी होती जा रही हैं। इनका दूसरा खतरा पशुधन उद्योग के चलते उत्पन्न हुआ है,जहां ज्यादा पैदावार के लिए मवेशियों में अनियंत्रित तरीके से एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल हो रहा है, जोकि स्वास्थ्य के लिए खतरा है।
क्या होता है एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स
एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स तब उत्पन्न होता है, जब रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, कवक, वायरस, और परजीवी रोगाणुरोधी दवाओं के लगातार संपर्क में आने के कारण अपने शरीर को इन दवाओं के अनुरूप ढाल लेते हैं। अपने शरीर में आए बदलावों के चलते वो धीरे-धीरे इन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। नतीजतन, यह दवाएं उन पर असर नहीं करती। जब ऐसा होता है तो मनुष्य के शरीर में लगा संक्रमण जल्द ठीक नहीं होता। इन्हें कभी-कभी "सुपरबग्स" भी कहा जाता है।