‘इडियट सिंड्रोम’/ ‘साइबरकॉन्ड्रिया’: इंटरनेट का नया अभिशाप
वर्ष 2022 के अंतिम सप्ताह में पोस्ट कोविड फेज में एक क्षेत्रकार्य के दौरान डॉक्टर के सामने बैठे मरीज की बात हम लोगों ने सुनी। वह डॉक्टर को बता रहा था, "सर पिछले 7-8 महीनों से दिमाग बिल्कुल अनमना सा हो गया है, न कुछ खाने का मन करता न ही कुछ करने का। न ही कहीं आने-जाने का और न ही किसी से बात करने का। हंसे हुए तो कितने दिन बीत गए। इतनी सक्सेस मिली है पिछले दिनों लेकिन किसी भी सफलता पर कोई खुशी नहीं हुई, लगता है जैसे जिन्दगी में कुछ बचा ही न हो।"
डॉक्टर ने मरीज की बात सुनते हुए पूछा- कर क्या रहे हो आजकल!! मरीज ने बताया रोज इंटरनेट पर कोरोना और बचाव के तरीकों को पढ़ता रहता हूं बस और कुछ नहीं। लेकिन अब मन में एक डर-सा बस गया है। डॉक्टरों की बात पर भी विश्वास नहीं होता। इस स्थिति से निकलने के लिए इंटरनेट पर कई दवाओं के बारे में खोज-बीन कर उनको खाया, लेकिन कोई लाभ नहीं मिला।
विषय पर गहनता से विचार करने पर कभी-कभी हंसी भी आती है तो कभी कोफ्त भी होती है। हंसी इसलिए कि हमारे देश में अमूमन लोग कई बार नाई की दुकान में बाल कटवाने के दौरान आज भी बाल झड़ने का इलाज़ पूछते मिल जाते हैं या फिर इंटरनेट पर देखी किसी स्कैल्प क्रीम को ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगते हैं जैसे उसके ब्रांड एम्बेसडर वही हों या फिर टीवी के विभिन्न चैनलों पर रात 11 बजे के बाद आने वाले भ्रामक प्रचारों को ही अपने ज्ञान का आधार मान बैठते हैं जिसमें बाल झड़ने से रोकने हेतु मुख्य जागरूक करने वाला प्रचारक स्वयं ही इस समस्या से ग्रस्त होता है।
हमारी दूसरी आदत है पान की दुकानों पर स्वास्थ्य पर चर्चा करना। पानवाला जो तम्बाकू और पान मसाला बेचता है उससे पूछते हैं, 'भाई दांत में दर्द होता है, सड़ रहा है, उसमें केरीज हो गई हैं कोई दवा बता दो' ऐसे लगता है मानो प्रोफेशनल डॉक्टर की डिग्री उसने ही ले रखी हो। तीसरी आदत कि हम अस्वस्थ होने पर अपने आसपास के लोगों से पूछते हैं कि फलां बीमारी का सबसे अच्छा डॉक्टर कौन है।'
लोग अपनी जाति-बिरादरी के चिकित्सक का ही प्रचार करते हैं या फिर वही व्यक्ति सबसे ज़्यादा सलाह देता है जिसने ऐसी स्थिति का सच में कभी सामना न किया हो। यह बातें सुनने में कड़वी हैं लेकिन सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते। और फिर डिजिटल और साइबर दुनिया के प्रचण्ड विकास ने इसी आदत को एक नए रूप में इंटरनेट के माध्यम से इलाज़ खोजने की आदत को उच्च स्तर पर पहुँचा कर 'ईडियट' सिंड्रोम को स्थापित कर दिया।
इस सिंड्रोम की उत्पत्ति के कारणों को देखें तो निश्चित तौर पर सबसे मज़बूत कारण इंटरनेट का बढ़ता उपयोग और हमारा निरंतर बढ़ता स्क्रीन-टाइम ही है। स्क्रीन-टाइम का वैश्विक आंकड़ा औसतन एक दिन में 6 घंटा 40 मिनट का है जो 2013 के आंकड़े से 30 मिनट प्रतिदिन की दर से बढ़ा है।
एक अमेरिकी का औसत स्क्रीन-टाइम 7 घंटा 03 मिनट है जबकि एक दक्षिण अफ्रीकी का 9 घंटा 24 मिनट।भारत का प्रति व्यक्ति प्रति दिन औसत स्क्रीन-टाइम 6 घंटा 36 मिनट है जिसमें कम्प्यूटर, स्मार्टफोन, टैबलेट, सोशल मीडिया, गेमिंग और विडियो स्ट्रीमिंग सभी स्वरूप शामिल हैं।
इस गतिविधि में हम अमेरिका, चीन आदि देशों को पीछे छोड़ चुके हैं क्योंकि हमको सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म, ओटीटी, शॉर्ट्स, रील्स देखने की आदत पड़ चुकी है। भारत का आंकड़ा 2023 की तुलना में 2024 में प्रतिदिन 22 मिनट औसतन बढ़ा है।
अच्छे स्वास्थ्य को प्राप्त करने के लिए विशेषज्ञों की राय है कि स्क्रीन टाइम प्रतिदिन 2 घंटे से कम ही रखना चाहिए लेकिन भारतीय इस लिमिट को कब का क्रॉस कर चुके हैं जिसके कारण 'सभी के लिए स्वास्थ्य' को प्राप्त करने का लक्ष्य मुश्किल-सा लगने लगा है।
इंटरनेट के अत्यधिक उपयोग से एक तरफ तो साइबरकॉन्ड्रिया/ईडियट सिंड्रोम के मामले बढ़ रहे तो दूसरी ओर मायोपिया के केस भी बढ़े हैं, बच्चों में ए.डी.एच.डी. के आंकड़े भयावह हो रहे हैं, उनमें मोटापा और 'डिजिटल एडिक्शन' बढ़ रहा है, याददाश्त प्रभावित हो रही, 'सरकेडियन रिदम' परिवर्तित हो रहा तो 'बॉडी क्लॉक' कंफ्यूज।
मस्तिष्क हाइपर एक्टिव हो रहा, अटेन्शन स्पैन घट रहा, स्लीप हॉर्मोन असंतुलित हो रहा, हैप्पी हॉर्मोन घट रहा और 'इम्पलसिव वीहेवीयर' बढ़ रहा है, इसमें चिंता, अवसाद, क्रोध तथा मानसिक द्वंद्व का तो कोई हिसाब-किताब ही नहीं है। बेहतर और संतोषजनक स्वास्थ्य स्तर की प्राप्ति में मानसिक स्वास्थ्य, 'हैप्पीनेस इंडेक्स' और 'वेलनेस' जैसे जो नए घटक हैं, को लेकर 'सभी के लिए स्वास्थ्य' प्राप्त करने का लक्ष्य नामुमकिन तो नहीं लेकिन दूर की कौड़ी जरूर प्रतीत होता है।
आज के समय में जरूरी है कि हम 'डिजिटल लिट्रेसी' और 'हेल्थ लिट्रेसी' के समावेशी प्रयासों को बढ़ावा दें, स्वास्थ्य के संदर्भ में इंटरनेट पर उपलब्ध स्रोतों पर आँख मूँद कर विश्वास न करें, उनका निरंतर मूल्यांकन करें। (पटेल एवं अन्य, 2024)। भ्रामक/अनसर्टिफ़ाइड सूचनाओं से बचें।
इलाज के संदर्भ में उचित निर्णय यथासंभव केवल योग्य मेडिकल प्रैक्टिशनर की सलाह पर ही लें। हेल्थ केयर डेलीवरी सिस्टम पर अनावश्यक दवाब कम करने के लिए जरूरी है कि हम निरंतर कॉउंसलिंग सत्र चलाएं, बच्चों को और 'ज़ेन ज़ी'( जो औसतन 9 घंटे प्रतिदिन के स्क्रीन टाइम पर टिके हैं) को अपने स्क्रीन टाइम को घटाने और परंपरागत खेलों को अंगीकार करने हेतु प्रेरित करें।
स्कूली शिक्षा में इस विषय पर रेगुलर चर्चा को शामिल करें। अपने डॉक्टर खुद न बनें। 'चिंता और चिता एक समान हैं' की उक्ति को हमेशा याद रखें तभी बचत संभव है। दक्षिण कोरिया जैसे देश के "प्रिजन इनसाइड मी"/ "पेड जेल" के उदाहरण की नकल कर सकते हैं जहाँ एक बड़ी-सी जेल बनाई गई है और जहाँ लोग पैसा देकर शौक से जाते हैं, अपना मोबाइल फोन, लैपटॉप, टैबलेट और अन्य गैजेट्स जमा कर देते हैं, स्क्रीन टाइम को शून्य रखते हैं, योगा करते हैं, सादा भोजन करते हैं और अपनी जीवन शैली को सुधारते हैं। ऐसा करके हम अपनी चिंता और अवसाद को कम करके स्वस्थ रह सकते हैं और ईडियट सिंड्रोम को हम बाय-बाय बोल सकते हैं।