ग्राउंड रिपोर्ट: विदेशी कीट का करिश्मा

वैज्ञानिकों ने हाल ही में मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में एक विदेशी कीट से बेहद आक्रामक जलीय खरपतवार सालविनिया मोलेस्टा के नष्ट कर उस पर जैविक नियंत्रण का एक बड़ा उदाहरण पेश किया है
2022 तक आक्रामक जलीय खरपतवार सालविनिया मोलेस्टा से भरा सारणी जलाशय अब कीट (इनसेट में )की मदद से पूरी तरह इससे मुक्त हो चुका है
2022 तक आक्रामक जलीय खरपतवार सालविनिया मोलेस्टा से भरा सारणी जलाशय अब कीट (इनसेट में )की मदद से पूरी तरह इससे मुक्त हो चुका हैफोटो सौजन्य: खरपतवार अनुसंधान निदेशालय
Published on

पांच साल की लंबी निराशा के बाद राजू डायरे को उम्मीद जगी है कि अब उनकी रोजी-रोटी पर छाए संकट के बादल छंट गए हैं। मछुआरे समुदाय से वास्ता रखने वाले राजू मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के सारणी जलाशय (सतपुड़ा बांध) के नजदीक मछली कांटा बस्ती में रहने वाले उन 250 परिवारों का हिस्सा हैं जिनकी आजीविका जलाशय से मिलने वाली मछली पर पूर्णत: निर्भर है।

मछली कांटा बस्ती के इन मछुआरों के लिए पिछले पांच साल किसी आपदा से कम नहीं गुजरे हैं। आपदा की वजह थी जलाशय में पैठ बना चुकी बेहद आक्रामक विदेशी जलीय खरपतवार जिसे वैज्ञानिक सालविनिया मोलेस्टा और स्थानीय निवासी चाइनीज झालर के नाम से जानते हैं।

जबलपुर स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के खरपतवार अनुसंधान निदेशालय (आईसीएआर-डीडब्ल्यूआर) के निदेशक जेएस मिश्र ने डाउन टू अर्थ को बताया कि यह जलाशय मध्य प्रदेश पावर जनरेटिंग कंपनी लिमिटेड के अधीन है और इसके किनारे उसका सतपुड़ा ताप विद्युत गृह है। बिजली कंपनी ने 15 करोड़ रुपए के ठेके के जरिए हाथ से खरपतवार हटाने की योजना बनाई थी। हालांकि यह उपाय कारगर नहीं था क्योंकि इसमें खरपतवार के फिर से आने की आशंका रहती है। मिश्र बताते हैं कि जब कंपनी को पता चला कि एक विदेशी कीट (सिर्टोबेगस सालविनि) की मदद से खरपतवार को हटाया जा सकता है तो उन्होंने निदेशालय से संपर्क किया। अप्रैल 2022 से जलाशय में कीट छोड़ने का सिलसिला चला। 15 से 18 महीने में कीट ने अपनी आबादी कई गुणा बढ़ाकर खरपतवार को नष्ट कर दिया।

एनसाइक्लोपीडिया ऑफ बायोडायवर्सिटी में 2001 में प्रकाशित अपने अध्ययन में विलियम जी ली ने पाया था कि एक्वेरिम और हॉर्टिकल्चर उद्योग के द्वारा इस खरपतवार का व्यापक फैलाव हुआ और अब यह ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, मेडागास्कर, भारत, श्रीलंका, दक्षिणपूर्व एशिया, फिलीपींस, इंडोनेशिया, पपुआ न्यू गिनी, फिजी तथा न्यूजीलैंड में फैल चुकी है। अध्ययन के अनुसार, अच्छा पर्यावरण (30 डिग्री सेल्सियस तापमान और उच्च नाइट्रोजन स्तर) मिलने पर इसका क्षेत्र हर आठ दिन में दोगुना और बायोमास हर 2.2 दिन में दोगुना हो जाता है। अपने इसी गुण के कारण यह 1970 और 1980 के दशक में दुनियाभर में बेहद आक्रामक खरपतवारों में शामिल हो चुकी है।

एक्वेटिक प्लांट मैनेजमेंट जर्नल में 2005 में प्रकाशित पी श्रीरामकुमार, एस रमानी और एसपी सिंह के अध्ययन “नैचुरल सप्रेशन ऑफ द एक्वेटिक वीड सालविनिया मोलेस्टा डीएस मिशेल बाय टू प्रीविअस अनरिपोर्टेड फंगल पेथोजंस” में पाया गया था कि ब्राजील और अर्जेंटीना मूल की यह खरपतवार 1950 के दशक में सबसे पहले तिरुअनंतपुरम (केरल) की वेली झील में देखी गई थी और 1964 में इसे पेस्ट का दर्जा हासिल हो गया। नदियों, नहरों, लगून और अन्य जलस्रोतों को अवरुद्ध करने की क्षमता के कारण इसके कई प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रभाव हैं।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के राष्ट्रीय कृषि कीट संसाधन ब्यूरो में प्रमुख वैज्ञानिक पी श्रीरामकुमार ने 2015 के अपने एक अन्य अध्ययन में पाया है कि 1970 के दशक में केरल में 50 लाख लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी इससे प्रभावित थी। केरल में धान का कटोरा माने जाने वाले कुट्टानाड के 75,000 एकड़ में फैली इस खरपतवार ने धान की खेती बेहद महंगी कर दी थी। किसानों को एक हेक्टेयर के खेत में हाथ से खरपतवार हटाने पर 250-750 रुपए तक खर्च करने पड़ते थे। सारणी तलाशय में भी सर्वप्रथम इसी तरीके से खरपतवार को हटाने पर विचार किया गया था।

मध्य प्रदेश पावर जनरेटिंग कंपनी लिमिटेड कंपनी के चीफ इंजीनियर वीके कैथवार कीट से खरपतवार के सफाए को विज्ञान के चमत्कार से कम नहीं मानते। वह साफ कहते हैं कि चाइनीज झालर 2018 में जब सारणी जलाशय में सबसे पहले देखी गई तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि यह देखते ही देखते 2,800 एकड़ में फैले पूरे जलाशय को अपनी जद में ले लेगी और मछुआरों की आजीविका को समाप्त कर देगी। अंगुली से जलाशय की ओर इशारा करते हुए राजू बताते हैं कि 2019 तक यह चाइनीज झालर से पूरा भर गया और घास के मैदान-जैसा नजर आने लगा था। इस झालर की परत इतनी मोटी थी कि उसमें घुसना और नाव ले जाना नामुमकिन हो गया था। जलाशय में पानी कहीं भी नजर नहीं आता था।

राजू सारणी मछली समिति के अध्यक्ष भी हैं और समिति ने 2018 में 10 साल के लिए जलाशय में मछली पकड़ने का ठेका लिया था। उस वक्त उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं था कि आने वाले साल उनके लिए बेहद मुश्किल होने वाले हैं। राजू डाउन टू अर्थ को अपना दर्द बताते हैं, “चाइनीज झालर की वजह से मछलियों को न सांस मिल पाई और न रोशनी। इससे पूरे जलाशय की मछलियां मर गईं। जो मछली सांस लेने के लिए जोर लगाकर कभी बाहर भी निकलती थी, वह वापस पानी में नहीं जा पाती थी और चाइनीज झालर के ऊपर ही तड़प तड़पकर मर जाती थी।” राजू की मानें तो पिछले पांच वर्षों के दौरान मछुआरे इस कदर नाउम्मीद हो चुके थे कि वे आजीविका के अवसरों के लिए दूसरे शहरों में पलायन कर गए थे। अधिकांश लोग मजदूरी करके परिवार का पेट पालने लगे थे।

अब हालात बदल चुके हैं। चाइनीज झालर जो मछुआरों पर मुसीबत बनकर टूटी थी, जलाशय से पूरी तरह खत्म हो चुकी है। इससे मछुआरे फिर से अपने पारंपरिक पेशे से जुड़ने लगे हैं। राजू डायरे कहते हैं कि करीब छह महीने पहले चाइनीज झालर से निजात मिली है। अभी जलाशय में मछलियों के बीज नहीं डाले गए हैं। बरसात का मौसम गुजरते ही समिति की ओर से बीज डाले जाएंगे और उम्मीद है कि साल भर के भीतर इतनी मछलियां पनप जाएंगी कि मछुआरों की कमाई का साधन पुरानी रंगत में लौट आएगा।

कीट की भूमिका

सभी मछुआरे आजीविका की बहाली के लिए जबलपुर स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के खरपतवार अनुसंधान निदेशालय (आईसीएआर-डीडब्ल्यूआर) के वैज्ञानिकों के शुक्रगुजार हैं, जिनकी मदद से सालविनिया मोलेस्टा नामक इस बेहतर आक्रामक जलीय खरपतवार का खात्मा हो गया। वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिक इसका श्रेय सिर्टोबेगस सालविनि नामक विदेशी कीट को देते हैं।

निदेशालय के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक और कीट को मध्य भारत में लाने वाले सुशील कुमार डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि यह कीट सालविनिया मोलेस्टा का बायो एजेंट है। काफी अनुसंधान के बाद ही इसे अप्रैल 2022 में सारणी के जलाशय में पहली बार छोड़ा गया था। इसके बाद कई चरणों में जलाशय के अलग-अलग स्थानों पर इसे छोड़ा गया।

सुशील कुमार सहित निदेशालय के वैज्ञानिक पूरी तरह आश्वस्त थे कि यह कीट सालविनिया मोलेस्टा को 15-18 महीने में पूरी तरह खत्म कर देगा क्योंकि पहले वे निदेशालय के परिसर व 2020 में कटनी जिले के पडुआ गांव के तालाब में इसकी सफलता का परीक्षण कर चुके थे। करीब 25 एकड़ में फैला पडुआ गांव का तालाब भी सारणी जलाशय की तरह सालविनिया मोलेस्टा से पूरी तरह भर गया था, लेकिन कीट छोड़ने के बाद करीब 15 महीने में यह समूल खत्म हो गया।

पडुआ गांव के निवासी और सरपंच पति राजेश पटेल डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि 2016 में शायद गांव के किसी व्यक्ति ने देसी दवाई (ज्वालामुखी) समझकर इसे तालाब में डाल दिया था। 2020 तक इसकी परत इतनी मोटी हो गई थी कि कोई भी उस पर चल सकता था। तालाब से एक लोटा पानी भी निकालना मुश्किल था। वह आगे बताते हैं, “इस कीट ने पूरे तालाब के कमल के फूलों और मछलियों को खत्म कर दिया था। परेशान होकर हमने खरपतवार अनुसंधान निदेशालय से संपर्क किया तो दिसंबर 2019 में वैज्ञानिकों ने गांव के तालाब में 2,000 वयस्क कीड़े छोड़े। निदेशालय के अनुसार, कीड़े छोड़ने के 8 महीने बाद 50 प्रतिशत, 11 महीने बाद 80 प्रतिशत और 18 महीने बाद 100 प्रतिशत खरपतवार नष्ट हो गई। यह मध्य भारत में आक्रामण विदेशी जलीय खरपतवार को जैविक तरीके से नियंत्रित करने का पहला सफल उदाहरण था। वैज्ञानिक कहते हैं कि इसमें थोड़ा समय लगता है लेकिन यह सालविनिया मोलेस्टा के प्रबंधन का बेहद प्रभावी, सस्ता और टिकाऊ तरीका है।

इस कीट का गहन अध्ययन करने वाले सुशील कुमार कहते हैं कि यह खरपतवार पहले केरल तक सीमित थी लेकिन अब यह मध्य भारत और उत्तर भारत में पहुंच चुकी है। इसे खत्म करने का सबसे कारगर तरीका जैविक नियंत्रण ही है क्योंकि पानी में किसी भी तरह के रसायन का उपयोग पूर्णत: प्रतिबंधित है। सुशील कुमार 2015 में इंडियन जर्नल ऑफ वीड साइंस में प्रकाशित अपने अध्ययन “हिस्ट्री, प्रोग्रेस एंड प्रोस्पेक्ट्स ऑफ क्लासिकल बायोलॉजिकल कंट्रोल इन इंडिया” में कहते हैं कि सालविनिया मोलेस्टा पर जैविक नियंत्रण के लिए इसके बायो एजेंट को 1982 में ऑस्ट्रेलिया से बंगलुरु स्थित भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान में लाया गया था और 1983-84 में इसके असर को जानने के लिए बैंगलुरु में इसे छोड़ा गया था। इसने केवल 11 महीने में खरपतवार को नष्ट कर दिया था। इसके बाद कीट को केरल के अलग-अलग हिस्सों में छोड़ा गया। कीट छोड़ने के तीन साल के भीतर केरल की अधिकांश नहरें जो चोक होने के कारण त्याग दी गईं थी, वे नावों के चलने योग्य हो गईं।

पी श्रीरामकुमार के अध्ययन में कहा गया है कि सालविनिया मोलेस्टा पर जैविक नियंत्रण के लिए दो कीट भारत लाए गए थे। इनमें से एक टिड्डा पॉलीनिया एक्यूमिनाटा था जिसे 1974 में त्रिनिडाड से आयात किया गया था। लेकिन यह संतोषजनक साबित नहीं हुआ। फिर 1982 में ऑस्ट्रेलिया में परखे जा चुके सिर्टोबेगस सालविनि पर दाव आजमाया गया, जिसके नतीजे पहले केरल और अब मध्य प्रदेश में सबसे सामने हैं। वैज्ञानिकों ने इस कीट को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली और चंद्रपुर में भी आजमाकर आक्रामक खरपतवार को नियंत्रित करने का टिकाऊ और पर्यावरण हितैषी नुस्खा सबके सामने रख दिया है।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in