क्यों शुरू हुई थी डाउन टू अर्थ मैगजीन

मई 1992 में डाउन टू अर्थ के संस्थापक संपादक अनिल अग्रवाल द्वारा मैगजीन के पहले अंक के लिए लिखा गया संपादकीय
क्यों शुरू हुई थी डाउन टू अर्थ मैगजीन
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डाउन टू अर्थ मैगजीन की शुरुआत मई 1992 में हुई। आज 28 साल पूरे हो चुके हैं। इस मौके पर हम अपने पाठकों को पत्रिका के संस्थापक संपादक अनिल अग्रवाल जी द्वारा "यह मैगजीन क्यों " शीर्षक से लिखे गए पहले संपादकीय को हिंदी में अनुवाद करके प्रकाशित कर रहे हैं। 

इस पत्रिका को लाने का उद्देश्य सूचना बाजार के एक हिस्से पर कब्जा करना नहीं है। हमारे लिए यह एक ऐसा उत्पाद है, जिसकी इस समय जरूरत है और हमारी इच्छा है कि बेहद अहम सूचनाओं को लेकर जो कमी अभी दिख रही है, उस कमी को दूर किया जाए।

आने वाले वर्षों में, भारत को अपने आगे बढ़ने और विकसित होने के हर संभव मौकों को काबू करना होगा और साथ ही साथ अपनी मिट्टी और जड़ों पर भी पकड़ बरकरार रखनी होगी। हालांकि यह काम आसान नहीं रहेगा।

यह हमें अलग-अलग भी कर सकता है। एक प्रयास, हमें वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए मजबूर करेगा तो दूसरा, हमें अपने अंतर्क्षेत्र को गहराई से देखने को मजबूर करेगा। हमें अपने लिए स्थायी और न्यायसंगत विकास की प्रक्रिया को खोजना होगा, जो परिवर्तन के दौर में आसान नहीं होगा।

निश्चित रूप से सूचनाएं एक महत्वपूर्ण निर्धारक साबित होंगी। विश्व एक तकनीकी क्रांति के दौर में है, जो हर संभव तरीके से अपनी पहुंच को बढ़ा रहा है। साथ ही, वह सूचनाओं को सारणीबद्ध करने, गणना करने और विश्लेषण करने के साथ-साथ नियंत्रण व शासन करना चाहता है। आज शायद ही कोई गाँव हो, जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से जुड़ा न हो। नई तकनीक, आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का प्रमुख स्रोत बन गई है।

इस क्रांति को बनाए रखने के लिए - चाहे हम नई तकनीकों को खुद विकसित कर रहे हों या उनका आयात कर रहे हों और अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें ढाल रहे हों - विज्ञान में बड़े निवेशों की आवश्यकता होगी, इनमें से कुछ हम केवल देखादेखी के लिए करेंगे। हालांकि, यह हमारे संसाधनों और हमारी प्राथमिकताओं को नुकसान पहुंचा सकता है। 

लेकिन हमारे पास अधिक विकल्प नहीं हैं। एक तेजी से विकसित होती एकीकृत विश्व बाजार अर्थव्यवस्था में, हम खुद को अलग नहीं कर सकते। विदेशी हवा बेहद तेजी से और मजबूती से चल रही हैं।

हम इस तूफान से तभी निपट सकते हैं जब हम खुद चुनते हैं, और ध्यान से चुनते हैं। हमें अपनी तकनीकों (प्रौद्योगिकी) का विस्तार अपनी जरूरतों के हिसाब से करना चाहिए। दुनिया के औद्योगिक देश हमें सूचना और प्रौद्योगिकी से भर देंगे। हम जो चुनेंगे, वह हमारे मूल्यों और हमारी बुद्धिमत्ता पर निर्भर करेगा। बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय नुकसान हमारे लिए सही नहीं होगा। भारत का सकल प्रकृति उत्पाद (जीएनपी) गहरे संकट में है। खेती की जमीन, घास के मैदान, जंगल, नदी, नालों, तालाबों, गड्डे और आर्द्रभूमि, पहाड़ों और पहाड़ियों, रेगिस्तानों और बाढ़ क्षेत्र सभी पर प्रदूषित होने और खत्म होने का खतरा है।

हम अभी विकास के उस चरण तक नहीं पहुंचे हैं, जो सभी लोगों को एक नल से पानी मुहैया करा सके। पर्यावरणीय क्षरण के अन्य रूपों की तरह, पानी की गुणवत्ता में गिरावट गरीबों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है। भारत के लिए बिना नुकसान के सकल राष्ट्रीय उत्पाद बढ़ने के साथ-साथ सकल प्रकृति उत्पाद बढ़ाना भी बेहद जरूरी है। इसके लिए बीच-बीच में सुधार के साथ निरंतर सीखने की जरूरत होगी।

चूंकि दूसरों के बारे में सुनकर सीखना सबसे अच्छा होता है, इस न्यूज मैगजीन का सबसे बड़ा उद्देश्य उन खेतों, खलियानों, जंगलों, कारखानों और प्रयोगशालाओं से रिपोर्ट लाना होगा, जहां लोग अपने अस्तित्व को बचाने और अपनी तरक्की के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

हम उन सभी चीजों की रिपोर्ट करने का इरादा रखते हैं, जो एक नियमित पत्रिका या अखबार रिपोर्ट करेगा, जिसमें वित्त, अर्थशास्त्र, राजनीति, बाजार, कूटनीति, संघर्ष, विकास शामिल है, लेकिन हम यह सब विज्ञान और पर्यावरण की दृष्टि से देखेंगे।

पत्रकारिता आम तौर पर घटनाओं, मानव प्रयास और अस्तित्व के उच्च बिंदुओं पर केंद्रित होती है। हम अपने रिपोर्ताज के माध्यम से अंतर्निहित रुझानों और प्रक्रियाओं का विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे, जो बेशक धीमी गति से ही सही, लेकिन अंततः एक बड़े परिदृश्य का निर्माण करेगा।

हम न केवल भारत से बल्कि विदेशों (अपने पड़ोसी देशों, अन्य विकासशील देशों और औद्योगिक देशों) से उन सभी घटनाओं की खबरें और विश्लेषण लाने की कोशिश करेंगे, जो हमारे लिए हितकारी हो सकती हैं। इस तरह, पत्रिका का वैश्विक दृष्टिकोण होगा, लेकिन साथ ही, इसमें भारतीय वास्तविकता और उसकी चिंता भी दिखेगी।

पत्रिका का यह पहला अंक क्षेत्रीय और वैश्विक तनावों के बारे में बताएगा। चाहे वह बांधों को रोकने के लिए संघर्ष हो और उन्हें बनाने के लिए संघर्ष हो, नाराज लोगों द्वारा विरोध में अपनी ही विरासत को जलाने की बात हो, तकनीकी रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए किया जा रहा संघर्ष हो , मानव जीनोम, मानव जीवन के बुनियादी चीजों जैसे संसाधनों और ज्ञान को नियंत्रित करने का प्रयास करने की बात हो, अमीरों द्वारा अपनी खपत को कम करने से इंकार करने का मुद्दा हो और दो व्यक्तियों की प्रतिबद्धता, एक व्यक्ति जो सफाई चाहता है और दूसरा अपने पर्यावरण को हराभरा करना चाहता है। हमारा कैनवास बृहद है। यह भारत, पाकिस्तान और नेपाल से लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका तक फैला है।

सूचना तब ही उपयोगी है, जब वह कार्रवाई के लिए प्रेरित करे। हम उम्मीद करते हैं कि हमारे जरिए दी जाने वाली सूचनाएं न सिर्फ एक व्यक्त के रोजमर्रा के कामकाज में उपयोगी होगी, बल्कि यह उसको हमारे साथ जुड़ने का अवसर भी देगी। हम एक दूसरे को जब अच्छे से समझेंगे, तब ही एक पुल और सच्ची दोस्ती का निर्माण हो सका। यह एक बहुत महत्वकांक्षी काम है और हम इसमें तब ही सफल होंगे, जब हम प्रत्येक व्यक्ति का सहयोग हासिल करेंगे। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती व अमेरिका के वर्ल्ड वाच इंस्टियूट ने हमारा जोरदार स्वागत किया है और इन लोगों ने हमारी पत्रिका के लिए अग्रिम तौर पर अपना अंशदान जमा करा दिया है।

हमारी लागत बढ़ने जा रही है। हमारी कई खबरें देश भर से, मेट्रो शहरों से दूरदराज के क्षेत्रों से लाई जा रही हैं।  सूचनाएं एकत्र करना न सिर्फ मुश्किल भरा है, बल्कि यह खर्चीला भी है। संस्थानों के लिए और हमारी पत्रिका का अंशदान दर अधिक है, जबकि स्कूलों और आम पाठकों के लिए कम है। हम टिकेंगे या नहीं, यह इस बात पर निर्भर होगा कि कितने संस्थान हमको अंशदान करेंगे।

इसलिए यह मैगजीन चलेगी या थम जाएगी, यह हमारा पाठक तय करेगा, हालांकि इसकी जरूरत जो हमें लगती है, वही ज्यादातर लोगों को भी महसूस होती है। 

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