इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
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आविष्कार का अकाल, पेटेंट की भरमार

पिछले कुछ वर्षों में भारत में कोई भी अत्याधुनिक तकनीक विकसित नहीं की गई है लेकिन हमारे पेटेंटों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो हमारे वैज्ञानिक कौशल का परिचायक है और हमारे लिए गर्व की बात है
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हमने 4जी तकनीक अपनाने में दुनिया का अनुसरण किया, 5जी में दुनिया के साथ मिलकर कदमताल की और अब 6जी तकनीक में हम दुनिया का नेतृत्व करेंगे। केंद्रीय संचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया उद्योग जगत की बैठकों, प्रेस कॉन्फ्रेंस और चर्चा समूहों में यह बात काफी समय से कहते आए हैं। पिछले साल नवंबर में दिल्ली के एक अखबार के साथ बातचीत में संचार मंत्री के दावे और भी भव्य हो गए। उनका कहना था कि भारत न केवल 6जी समूह का नेतृत्व करेगा बल्कि दुनिया भर में 6जी के लिए मानक स्थापित करेगा।

ऐसे बयानों को कैसे देखा जाए? इसे राजनीतिक प्रचार कहें, जानबूझकर की गई अज्ञानता कहें या इस अडिग धारणा के रूप में देखें कि भारत इस क्षेत्र में अग्रणी होकर ही रहेगा जबकि आसार ऐसे नहीं लगते। आइए सबसे पहले 5जी को लेते हैं। भारत में 5जी 1 अक्टूबर 2022 को लॉन्च किया गया, वहीं दक्षिण कोरिया में “कनेक्टिविटी” के इस “सुपरफास्ट” युग की शुरुआत तीन साल पहले ही हो चुकी थी। उस अवधि में कम से कम 70 अन्य देशों ने करीब 2,000 शहरों में 5जी नेटवर्क शुरू किया था। भारत इस खेल में न केवल देर से शामिल हुआ बल्कि हमारी 5जी अपनाने की नीतियां गड़बड़ थीं और हमारा बुनियादी ढांचा इसके लिए तैयार नहीं था।

जहां तक 6जी का सवाल है तो भारत उन प्रमुख अर्थवस्थाओं से मीलों पीछे है जिन्होंने इस क्षेत्र में खुद को रणनीतिक रूप से स्थापित किया है और पहले से ही इस तकनीक के लिए नियम निर्धारित करते आए हैं। जब सिंधिया ने 6जी में दुनिया का नेतृत्व करने की बात कही, तो निश्चित रूप से उन्हें पता होगा कि कुछ महीने पहले, चीन ने अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीयू) के तत्वावधान में तीन महत्वपूर्ण 6जी प्रौद्योगिकी मानकों की स्थापना करके संचार जगत में तहलका मचा दिया था। विशेषज्ञों ने कहा कि यह विकास “अगली पीढ़ी के दूरसंचार के लिए अंतर्राष्ट्रीय रूपरेखा निर्धारित करने में एक महत्वपूर्ण प्रगति” को चिह्नित करता है।

यह महत्वपूर्ण क्यों है? दूरसंचार में प्रत्येक विकास (वर्तमान में 5जी से 6जी तक) के अनुसार मानकों को निर्धारित करने की आवश्यकता है। ये मानक ऐसे संदर्भ बिंदु होते हैं जिनका पालन हर देश को करना होगा। शुरुआती देशों को नियम निर्धारित करने और बाजार में प्रतिस्पर्धी बढ़त हासिल करने का मौका मिलता है। इसलिए आईटीयू के मानक-निर्धारण समूह का हिस्सा बनना महत्वपूर्ण है। यह समूह निर्धारित करता है कि भविष्य के नेटवर्क को कैसे संचालित किया जाना चाहिए। 6जी पर विचार-विमर्श में शंघाई एडवांस्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट (सारी) के हू होंग्लिन शामिल थे, जो सूचना-केंद्रित नेटवर्किंग क्षेत्र के अग्रणी विशेषज्ञ हैं। इसके अलावा चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज और चाइना टेलीकॉम भी शामिल थे।

चाइना टेलीकॉम एक सार्वजनिक एवं सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी है जो विश्व की सबसे बड़ी फिक्स्ड लाइन और मोबाइल सेवा प्रदाताओं में से एक है। क्या भारत के पास हू की विशेषज्ञता है या सारी जैसी प्रतिष्ठा वाला कोई शोध संस्थान है? क्या चाइना टेलीकॉम जैसी क्षमता वाली कोई दूरसंचार कंपनी है हमारे पास? हालांकि ये प्रश्न शायद अप्रासंगिक हैं, खासकर तब जब भारत ने मान लिया है कि हम इस क्षेत्र के वैश्विक नेता बनकर ही रहेंगे।

सरकार की उलझी हुई सोच का एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा पेटेंट संख्याओं के प्रति एक अजीब सा जुनून है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर कई मंत्री, मुख्य रूप से केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल और विभिन्न नौकरशाह तक नीति निर्माता पेटेंट आवेदनों में वृद्धि का जश्न मना रहे हैं। साथ ही पेटेंट दिए जाने को भी एक लक्ष्य के रूप में देखा जा रहा है। 2023-24 में पेटेंट कार्यालय ने 1,00,000 से अधिक पेटेंट प्रदान किए जो पिछले वर्ष की तुलना में लगभग तीन गुना वृद्धि थी। लेकिन भारत वास्तव में इन संख्याओं के साथ किस बात का जश्न मना रहा है? हमारे पास ऐसी कोई सार्थक तकनीकी सफलता नहीं है जिस पर हम गर्व कर सकें। हम किन क्षेत्रों में आगे बढ़ रहे हैं, यह पता करने के लिए कोई अभ्यास नहीं किया गया है। पेटेंटिंग में वृद्धि का हमारे वैज्ञानिक प्रयासों पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन करने और कौन से क्षेत्र नवाचार मानचित्र से बाहर हो रहे हैं, उन्हें चिन्हित करने की हमने कोई कोशिश नहीं की है।

हाल के महीनों में सिंधिया देश के लिए 6जी पेटेंट लक्ष्य निर्धारित कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर संख्या जो भी हो, भारत 6जी अलायंस जिसमें निजी क्षेत्र, शोधकर्ता और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) शामिल हैं, में 10 प्रतिशत पेटेंट का योगदान करने के लिए प्रतिबद्ध है। इस तरह के लक्ष्य को कैसे हासिल किया जाएगा यह सवाल ही हैरान करने वाला है। लेकिन यह हाल के वर्षों में देश में पेटेंट पर चल रहे आंकड़ों के खेल से मेल खाता है, जिसमें गुणवत्ता और उपयोगिता के सवालों को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है।

एक राष्ट्र के रूप में हम अपनी वैज्ञानिक क्षमता को लेकर इतने अहंकारी क्यों हैं, खासतौर पर तब जब हम अत्याधुनिक तकनीक में स्पष्ट रूप से बहुत पीछे हैं? रूढ़िवादी भारतीयों की आत्मसंतुष्टि से प्रेरित एक यादृच्छिक विचार (जिनके विचार विभिन्न मंचों पर वर्तमान आख्यानों पर हावी हैं, ) इस स्तंभकार को भारतीय विज्ञान, इसकी उत्कृष्टता और इसकी कमियों पर 11वीं शताब्दी में लिखी गई एक क्लासिक कृति की ओर ले गया।

यह पुस्तक उस समय के जीवन के सभी पहलुओं की समझ में बेजोड़ एक समाजशास्त्रीय अध्ययन है जिसे किताब अल-हिंद के नाम से जाना जाता है। इसका मूल फारसी शीर्षक बहुत लंबा और जटिल है और इसे लिखा है अलरेहान मोहम्मद इब्न अहमद अल-बरूनी ने, जिन्हें अल-बरूनी के नाम से बेहतर जाना जाता है। ये प्रसिद्ध फारसी विद्वान और बहुश्रुत (पोलीमैथ) थे। अल-बरूनी ने 1017 में भारत की यात्रा की और हिंदुओं के धर्म और विज्ञान (गणित, खगोल विज्ञान और ज्योतिष) का अध्ययन करने के लिए यहां 13 साल बिताए और एक अद्वितीय समाजशास्त्रीय अध्ययन तैयार किया। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि यह “तथ्यों का एक सरल ऐतिहासिक रिकॉर्ड” है और “हिंदुओं के सिद्धांतों को पाठकों के सामने ठीक उसी तरह रखना है, जैसे वे हैं”।

रॉयल यूनिवर्सिटी ऑफ बर्लिन के प्रोफेसर एडवर्ड सी सचाऊ, जिन्होंने इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद अल बरूनीज इंडिया नाम से किया, कहते हैं कि इस फारसी विद्वान का मानना था कि हिंदू उत्कृष्ट दार्शनिक, अच्छे गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे। हालांकि जब अज्ञान को छिपाने या बेतुके दावे किए जाने के मामले में वह खुद और दूसरों के बारे में सख्त राय रखते थे।

अल-बरूनी ने हमारे राष्ट्रीय चरित्र को बहुत गहराई से समझा है, जैसा कि उनकी पुस्तक के शुरुआती अध्याय के एक महत्वपूर्ण अंश से पता चलता है, “मूर्खता एक बीमारी है जिसके लिए कोई दवा नहीं है और हिंदू मानते हैं कि उनके अलावा कोई देश नहीं है, उनके जैसा कोई राष्ट्र नहीं है, उनके जैसा कोई राजा नहीं है, उनके जैसा कोई धर्म नहीं है, उनके जैसा कोई विज्ञान नहीं है। उनका अहंकार इतना है कि अगर आप उन्हें खुरासान और फारस के किसी विज्ञान या विद्वान के बारे में बताएंगे तो वे आपको अज्ञानी और झूठा समझेंगे। अगर वे यात्रा करके दूसरे देशों से मिलते-जुलते तो वे जल्द ही अपना विचार बदल देते, क्योंकि उनके पूर्वज इतने संकीर्ण विचारों वाले नहीं थे, जितनी आज की पीढ़ी है।”

भारतीयों और यूनानियों की समानता के बारे में अल-बरूनी ने एक महत्वपूर्ण अंतर पर ध्यान केंद्रित दिया, “सुकरात के बारे में सोचिए जब उन्होंने अपने राष्ट्र की भीड़ का विरोध किया था। हिंदुओं के पास उनके जैसे कोई व्यक्ति नहीं है जो विज्ञान को शास्त्रीय पूर्णता तक लाने में सक्षम और इच्छुक हो। इसलिए, आप ज्यादातर पाते हैं कि उनके तथाकथित वैज्ञानिक सिद्धांत पूरी तरह से भ्रमित हैं, किसी भी तार्किक क्रम से रहित हैं और अंत में हमेशा भीड़ की मूर्खतापूर्ण धारणाओं के साथ मिश्रित होते हैं।” यह टिप्पणियां 10 शताब्दी पुरानी हो चुकी हैं। आखिर कितना कम बदलाव आया है इस देश में!

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