डाउन टू अर्थ खास, सातों मनोविकार का क्या है रसायन शास्त्र- भाग: एक

जब तर्क पर जुनून हावी हो जाए तो दैहिक पाप होते हैं - दांते अलिगेरी
डाउन टू अर्थ खास, सातों मनोविकार का क्या है रसायन शास्त्र- भाग: एक
सभी इलस्ट्रेशन: योगेंद्र आनंद
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घमंड, लालच, वासना, ईर्ष्या, लोभ, क्रोध और आलस्य

धर्मों ने इन भावनाओं को घातक पापों के रूप में चित्रित किया है। इन्हें त्याज्य माना है, ताकि कोई व्यक्ति सही रास्ते से भटक न जाए। हालांकि, विज्ञान इन्हें पूर्ण रूप से नकारात्मक नहीं मानता। यह उन्हें जटिल विचारों के रूप में मानता है जिन्होंने मानव की विकासवादी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यही भावनाएं तो किसी इंसान को वो बनाती है, जो वह है

इन अवधारणाओं पर कई दशकों से अध्ययन हो रहा है। मनोवैज्ञानिक, मानवविज्ञानी, समाजशास्त्री और यहां तक कि अर्थशास्त्री भी अब इन्हें विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन करते हैं ताकि न केवल मानव विकास में बल्कि आज के समय में भी उनकी भूमिका का विश्लेषण किया जा सके। उदाहरण के लिए किसी के मानसिक स्वास्थ्य या वित्तीय कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए इनका अध्ययन हुआ है। वे इन भावनाओं के पीछे के तर्क का परीक्षण, व्याख्या और अन्वेषण करने के लिए जटिल वैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं

वैज्ञानिक अभी भी भावों को स्पष्ट रूप से या पूरी तरह से नहीं समझते हैं। संस्कृतियों या जीन या मस्तिष्क द्वारा भावनाएं कैसे प्रभावित होती हैं? उनके प्रमुख ट्रिगर क्या हैं? क्या इनका शारीरिक और मानसिक मूल्य है? क्या जानवरों में भी ऐसी भावनाएं होती हैं जो मानवीय भावनाओं से मेल खाती हों? क्या भावनाएं सिर्फ मानवीय अभिव्यक्तियां हैं या हम अस्तित्व से जुड़े कुछ लाभों के लिए उन्हें अनुभव करने के लिए तैयार किए गए हैं?

डाउन टू अर्थ का यह संस्करण भावों और मनोविकारों के इर्द-गिर्द ऐतिहासिक बहसों और हमारी समझ में महत्वपूर्ण अंतराल का जायजा लेने की एक कोशिश है¸

मनोभाव

भाव और मनोविकारों को समझ पाना बेहद जटिल है। यह अनुभव, इच्छाओं और परिस्थितियों से मिलकर पैदा होते हैं

करीब 105 बरस पहले हिंदी के प्रख्यात समालोचक और निबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और साहित्यिक निबंध “चिंतामणि” में भाव और मनोविकारों का चिंतन करते हुए लिखा, “समस्त मानव जीवन के प्रवर्तक भाव या मनोविकार ही होते हैं। मनुष्य की प्रवृत्तियों की तह में अनेक प्रकार के भाव ही प्रेरक के रूप में पाए जाते हैं।” अपने विस्तृत निबंध में मानवीय भावों के लिए वह लिखते हैं “अनुभूति के द्वंद से ही प्राणी के जीवन का आरंभ होता है...सुख और दु:ख की मूल अनुभूति ही विषय भेद के अनुसार प्रेम, हास, उत्साह, आश्चर्य, क्रोध, भय, करुणा, घृणा इत्यादि मनोविकारों का जटिल रूप धारण करती है। जैसे, यदि शरीर में कहीं सुई चुभने की पीड़ा हो तो केवल सामान्य दु:ख होगा, पर यदि साथ ही यह ज्ञात हो जाये कि सुई चुभानेवाला कोई व्यक्ति है तो उस दु:ख की भावना कई मानसिक और शारीरिक वृत्तियों के साथ संश्लिष्ट होकर (मिलकर) उस मनोविकार की योजना करेगी जिसे क्रोध कहते हैं।”

यानी दुख के साथ पीड़ा पहुंचाने के बोध ने क्रोध को जन्म दिया। आचार्य रामचंद्र के मुताबिक अलग-अलग परिस्थितियों और इच्छाओं के आधार पर भाव बदलते रहते हैं। हम किस विषय यानी वस्तु या घटना को समझ रहे हैं और उसके प्रति हमारी चाहत क्या है, यही भाव का निर्धारण करती है। मिसाल के तौर पर किसी के सफलता की खबर से आपको खुशी हो सकती है, जबकि वही खबर किसी दूसरे की असफलता से जुड़ी हो तो आपमें सहानुभूति या दुख पैदा हो सकता है।

वह निबंध में ईर्ष्या के बारे में लिखते हैं “जैसे दूसरे के दु:ख को देख दु:ख होता है वैसे ही दूसरे के सुख या भलाई को देखकर भी एक प्रकार का दु:ख होता है, जिसे ईर्ष्या कहते हैं।… ईर्ष्या एक संकर भाव है जिसकी संप्राप्ति आलस्य, अभिमान और नैराश्य के योग से होती है।” इसी तरह वह घृणा को स्थूल और मानसिक दो भागों में बांटते हैं। और निबंध में समझाते हैं कि ऐसा विषय जो हमें पसंद नहीं वह सामने आने के बाद जो हमें दुख होता है, दरअसल वह घृणा है। वह लिखते हैं “घृणा का विषय हमें घृणा का दु:ख पहुंचाने के विचार से हमारे सामने उपस्थित नहीं होता पर क्रोध का चेतन विषय हमें आघात वा पीड़ा पहुंचाने के उद्देश्य से हमारे सामने उपस्थित होता है वा समझा जाता है।” आचार्य रामचंद्र चिंतामणि में समझाने की कोशिश करते हैं कि मनोभावों को समझ पाना बेहद जटिल है। यह अनुभव, इच्छाओं और परिस्थितियों से मिलकर पैदा होते हैं। हमारे मन में खुशी, क्रोध, दुख, प्यार जैसे भाव जो उठते हैं वह एक दूसरे से बिल्कुल अलग होते हैं। सुख या दुख हमारे सबसे बुनियादी अनुभव हैं। लेकिन गुस्सा, डर और प्यार जैसे मनोविकार इनसे भी अलग होते हैं। अगर आपको खुशी महसूस हो रही है, तो यह सिर्फ खुशी है। लेकिन अगर आपको प्यार महसूस हो रहा है, तो वह खुशी का हिस्सा होते हुए भी उससे अलग है।

मनुष्य एक बालक के रूप में जब अबोध होता है तो उसके पास सिर्फ सुख और दुख जैसी दो ही अनुभूतियां होती हैं। नाना विषयों के बोध से उसकी इच्छाएं बनती हैं तब उसमें कई भाव और मनोविकारों का जन्म होता है

चिंतामणि में आचार्य रामचंद्र अपने स्वतंत्र निबंध चिंतन में समझाते हैं, “मनोविकारों या भावों की अनुभूतियां परस्पर तथा सुख या दु:ख की मूल अनुभूति से ऐसी ही भिन्न होती हैं जैसे रासायनिक मिश्रण परस्पर तथा अपने संयोजक द्रव्यों से भिन्न होते हैं। विषय बोध की विभिन्नता तथा उससे संबंध रखनेवाली इच्छाओं की विभिन्नता के अनुसार मनोविकारों की अनेकरूपता का विकास होता है।” इसका अर्थ हुआ कि जैसे रसायन का एक नया मिश्रण अपने मूल तत्वों से अलग होता है, वैसे ही हमारे मनोविकार भी उनकी मूल अनुभूतियों से अलग होते हैं। मनुष्य एक बालक के रूप में जब अबोध होता है तो उसके पास सिर्फ सुख और दुख जैसी दो ही अनुभूतियां होती हैं। जैसे-जैसे वह तमाम विषयों से परिचित होता है और उसकी इच्छाएं बनती हैं तब उसमें कई भाव और मनोविकारों का जन्म होता है। आचार्य रामचंद्र इन भावों या मनोविकारों का जन्मदाता सुख और दुख के अनुभव को मानते हैं।

वहीं, हमारे प्रमुख भाव सिर्फ व्यक्तिगत स्तर के चालक नहीं हैं बल्कि इनसे देश और समाज भी चलता रहा है। भय और लोभ ऐसे ही भाव हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने निबंध संकलन चिंतामणि में लिखते हैं “सब प्रकार के शासन-चाहे धर्म शासन हो, चाहे राज शासन या संप्रदाय शासन-मनुष्य जाति के भय और लोभ से पूरा काम लिया गया है। दंड का भय और अनुग्रह का लोभ दिखाते हुए राज शासन तथा नरक का भय और स्वर्ग का लोभ दिखाते हुए धर्म शासन और मत शासन चलते आ रहे हैं। इनके द्वारा भय और लोभ का प्रवर्तन उचित सीमा के बाहर भी प्राय: हुआ है और होता रहता है। जिस प्रकार शासकवर्ग अपनी रक्षा और स्वार्थ सिद्धि के लिए इनसे काम लेते आए हैं, उसी प्रकार धर्म प्रवर्तक और आचार्य आपके स्वरूप वैचित्रय की रक्षा और अपने प्रभाव की प्रतिष्ठा के लिए भी। शासकवर्ग अपने अन्याय और अत्याचार के विरोध की शांति के लिए भी डराते और ललचाते आए हैं। मत प्रवर्तक अपने द्वेष और संकुचित विचारों के प्रचार के लिए भी जनता को कंपाते और लपकाते आए हैं।”

आचार्य रामचंद्र अपनी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक और साहित्यिक दृष्टि से लज्जा और ग्लानि जैसी व्यक्तिगत और सामाजिक परिस्थिति को भी परिभाषित करते हैं। वह लिखते हैं, “विशुद्ध लज्जा अपने विषय में दूसरे की ही भावना पर दृष्टि रखने से होती है। अपनी बुराई, मूर्खता, तुच्छता इत्यादि का एकांत अनुभव करने से वृत्तियों में जो शैथिल्य आता है, उसे ‘ग्लानि’ कहते हैं।...हम अपना मुंह न दिखाकर लज्जा से बच सकते हैं, पर ग्लानि से नहीं। कोठरी में बंद, चारपाई पर पड़े पड़े लिहाफ के नीचे भी लोग ग्लानि से गल सकते हैं।” रामचंद्र लिखते हैं कि लज्जा का हल्का रूप संकोच है जो किसी काम को करने के पहले ही होता है। कर्म पूरा होने के साथ ही उसका अवसर निकल जाता है; फिर तो लज्जा ही लज्जा हाथ रह जाती है।

धर्मशास्त्र हो या फिर दर्शनशास्त्र वह मनोविकारों को ज्यादातर नकारात्मक रवैये के रूप में देखते हैं। मिसाल के तौर पर हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर (ईर्ष्या) यह मनुष्य के छह सबसे बड़े शत्रु माने गए हैं। वहीं, ईसाई मत में भी 6 वीं सदी में पोप ग्रेगरी महान के अनुसार सात पापों जैसे - घमंड, ईर्ष्या, लोलुपता, वासना, क्रोध, लालच, और आलस्य को बताया गया है। अन्य धर्मशास्त्रों में भी इन भावों को मनुष्यों की बुराई के तौर पर ही देखा गया है। विज्ञान इसे अलग तरीके से देखने की कोशिश कर रहा है। इस पूरे अंक में हम यही प्रयास देखेंगे।

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