साल दर साल बढ़ता म्युनिसिपल वेस्ट यानी शहरी कचरा आज एक बड़ी समस्या बन चुका है। दिल्ली जैसे शहर में तो इस कचरे का पहाड़ तक बन गया है, कुछ ऐसी ही स्थिति दुनिया के अन्य देशों में भी हैं जहां बढ़ता कचरा और उसके प्रबंधन से जुड़ी समस्याएं साल दर साल विकराल रूप लेती जा रहीं हैं।
इस बारे में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी नई रिपोर्ट 'ग्लोबल वेस्ट मैनेजमेंट आउटलुक 2024' में खुलासा किया है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो अगले 26 वर्षों में सालाना पैदा हो रहे इस कचरे की मात्रा 65 फीसदी की वृद्धि के साथ बढ़कर 380 करोड़ टन पर पहुंच जाएगी। वहीं 2023 से जुड़े आंकड़ों को देखें तो वैश्विक स्तर पर सालाना करीब 230 करोड़ टन शहरी कचरा पैदा हो रहा था। बता दें कि यह वो कचरा है जो हमारे घरों और दफ्तरों आदि से निकलता है इसमें औद्योगिक और अन्य कचरा शामिल नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने चेताया है कि इस बढ़ते कचरे की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। रिपोर्ट में अनुमान जताया है कि बढ़ते कचरे से प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन आदि रूपों में करोड़ों डॉलर का नुकसान होगा। बता दें कि यह रिपोर्ट नैरोबी में चल रही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा के छठे संस्करण (यूएनईए-6) के दौरान जारी की गई है, जिसे पर्यावरण पर होने वाली विश्व संसद के रूप में भी देखा जाता है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा की यह बैठक हर दूसरे वर्ष आयोजित की जाती है, जिसमें वैश्विक पर्यावरणीय नीतियों और पर्यावरण से जुड़े अन्तरराष्ट्रीय कानूनों को विकसित करने पर चर्चा होती है। इस रिपोर्ट में चेताया है कि पिछले दशक में मानवता "पीछे की ओर चली गई है", "जो अधिक अपशिष्ट, प्रदूषण और कहीं अधिक ग्रीनहाउस गैसें (जीएचजी) उत्सर्जित कर रही है।"
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस कचरे का उचित प्रबंधन न करने से होने वाली बीमारियां जैसे डायरिया, मलेरिया, हृदय रोग और कैंसर हर साल चार से दस लाख जिंदगियों को लील रही हैं। गौरतलब है कि साल दर साल बढ़ता यह कचरा न केवल पर्यावरण के लिए खतरा बन रहा है साथ ही जैवविविधता और स्वास्थ्य पर भी गंभीर असर डाल रहा है। ऐसा ही कुछ हाल में देखने को मिला था जब दिल्ली की लैंडफिल साइट में लगी आग से बढ़ते प्रदूषण ने विकराल रूप ले लिया था। इसका खामियाजा दिल्लीवासियों और आसपास के इलाकों में रह रहे लोगों को झेलना पड़ा था।
रिपोर्ट में भारत का जिक्र करते हुए लिखा है कि देश में स्ट्रीट फूड सेक्टर तेजी से फल-फूल रहा है, जो प्लेट, कप, गिलास सहित अन्य उत्पादों के रुप में सिंगल यूज प्लास्टिक पर बहुत ज्यादा निर्भर है। हालांकि यह सिंगल यूज उत्पाद सस्ते और सुलभ हैं लेकिन इनसे देश में बढ़ते कचरे और उसके प्रबंधन की समस्या भी बढ़ रही है। इसकी कीमत समाज को चुकानी पड़ रही है।
77 फीसदी से ज्यादा बढ़ जाएगी बढ़ते कचरे के प्रबंधन की लागत
रिपोर्ट के मुताबिक अनुमान है कि सदी के मध्य तक, इस बढ़ते कचरे के प्रबंधन की वार्षिक लागत बढ़कर 64,030 करोड़ डॉलर पर पहुंच जाएगी। जो भारतीय रुपयों में करीब 53,07,872.50 करोड़ रुपए के बराबर है। वहीं यदि 2020 से जुड़े आंकड़ों को देखें तो उस समय पैदा हुए कचरे के प्रबंधन की प्रत्यक्ष लागत करीब 25,200 करोड़ डॉलर थी।
हालांकि इसमें अपशिष्ट का ठीक से न किया जा रहा प्रबंधन, स्वास्थ्य पर पड़ते असर, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण जैसी छिपी लागतों को भी जोड़ दें तो यह आंकड़ा बढ़कर 36,100 करोड़ डॉलर पर पहुंच जाता है। मतलब की इस कचरे की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर सालाना 36,100 करोड़ डॉलर का दबाव पड़ रहा है। रिपोर्ट में जारी आंकड़ों के मुताबिक यदि कचरे में इसी तरह इजाफा होता रहा तो इसकी लागत में 2050 तक 77 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हो सकता है।
विश्लेषण के मुताबिक इस बढ़ते कचरे की रोकथाम और प्रबंधन के उपायों को लागू करने से 2050 तक इसकी वार्षिक लागत में 27,020 करोड़ डॉलर की कटौती की जा सकती है। वहीं सर्कुलर इकोनॉमी मॉडल यानी चक्रीय अर्थव्यवस्था को अपनाने (जैसे संसाधनों का बेहतर उपयोग, कचरे में कमी और उनका पूरी तरह प्रबंधन) से सालाना 10,850 करोड़ डॉलर का शुद्ध लाभ हासिल हो सकता है।
ऐसे में रिपोर्ट में इस बढ़ते कचरे को रोकने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता पर जोर दिया गया है, खासकर एशिया और उप-सहारा अफ्रीका जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में, जहां कई देश पहले ही अपने बढ़ते कचरे से निपटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।