सुविधा की छिपी हुई कीमत: सैशे (पाउच) और बढ़ता प्रदूषण
विश्व पर्यावरण दिवस 2025 (5 जून) का विषय था- “बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन” यानि "प्लास्टिक प्रदूषण को हराना"। इसी संदेश को आगे बढ़ाते हुए जुलाई महीने में “प्लास्टिक मुक्त जुलाई” अभियान चलाया जा रहा है जिसमें सिंगल यूज प्लास्टिक के कम उपयोग करने से लेकर इसके दुष्प्रभावों के प्रति विभिन्न माध्यमों से जागरूकता को बढ़ाया जा रहा है।
अक्सर प्लास्टिक प्रदूषण की चर्चा में, आसानी से दिखाई देने वाले प्रदूषकों पर ध्यान जाता है- जैसे, खाली रैपर, बोतल के ढक्कन, स्ट्रॉ, प्लास्टिक फिल्टर वाले सिगरेट के टुकड़े, नदियों में बहती बोतल से लेकर पेड़ों की शाखाओं में फंसे हुए प्लास्टिक बैग और कचरे से भरे लैंडफिल, जिसमें अत्यधिक कचरा न गलने और सड़ने ( गैर-जैव निम्नीकरणीय) वाला है।
लेकिन,आमतौर पर नजरअंदाज, हर जगह बिखरा हुआ और समय के साथ चुपचाप बढ़ते रहने वाला एक और सर्वव्यापी प्रदूषक है - छोटे आकार के प्लास्टिक सैशे या पाउच।
जहां भी गए, वहीं मिले सैशे
विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून 2025) पर भारत के उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में 101 स्थानों पर एक रिकॉर्ड-तोड़ पर्वतीय सफाई अभियान चलाया गया। विश्व रिकॉर्ड यूनियन द्वारा प्रमाणित, इस अभियान में एक घंटे में 8,492 स्वयंसेवकों ने भाग लिया और 18,599 किलोग्राम कचरा हटाया गया था।
इस सफाई मुहिम के दौरान एक स्थान ‘गंगोत्री से भोजवासा’ था, जो 12,590 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और हिमालय के सबसे संवेदनशील और पवित्र क्षेत्रों में से एक माना जाता है। मौके पर मौजूद वेस्ट वॉरियर्स से जुड़े एडीसन स्टीवनसन ने बताया, “हमारी 40 लोगों की टीम में स्थानीय हितधारकों के सहयोग से समन्वित भोजवासा में 85 किलोग्राम सूखा कचरा इकट्ठा किया। यदि यह कचरा नीचे नहीं लाया जाता, तो संभवत उसे वहीं जला दिया जाता-जिससे जहरीले धुएं और प्लास्टिक प्रदूषण से हिमालयी वातावरण को सीधा नुकसान होता।
ऊंची पहाड़ियों से लेकर, घाटियों और मैदानी इलाकों तक एक समांतर नजारा दिखा कि -“हर कदम पर चिप्स, शैम्पू, तंबाकू, सॉस और विभिन्न प्रकार के खाली सैशे और प्लास्टिक के रैपर बिखरे पड़े हैं । ये छोटे-छोटे पैकेट रोजमर्रा का हिस्सा तो हैं, लेकिन यह पर्यावरण पर गहरा दुष्प्रभाव डाल रहे हैं और इसे एक लोकप्रिय वाक्य से समझा जा सकता है- ‘छोटा पैकेट, बड़ा (धमाका) नुकसान’।
क्या होते हैं सैशे (पाउच)?
इनकी कोई तय या सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, लेकिन इनका रूप और असर बिल्कुल साफ नजर आता है। ये आमतौर पर छोटे, बेहद हल्के,सीलबंद, लचीले पैकेट और कम लागत के होते हैं, जिन्हें उपयोग के तुरंत बाद फेंक दिया जाता है। हल्के होने के कारण ये आसानी से हवा में उड़ जाते हैं अतः चारों ओर बिखर जाते हैं।
ये पैकेट एक परत वाले/सिंगल-लेयर्ड प्लास्टिक (एस.एल.पी/SLP) उदाहरण के लिए- ब्रेड बैग, प्लास्टिक कैर्री बैग इत्यादि या बहु-स्तरीय/मल्टी-लेयर्ड प्लास्टिक (एम. एल. पी/MLP) से बनते हैं, जिसमें दो या दो से अधिक प्रकार की प्लास्टिक की परतें एक साथ जोड़ी जाती हैं। उदाहरण के लिए- कॉफी पाउच और चिप्स के पैकेट।
इनकी लोकप्रियता की वजह से ये फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी) उद्योग के लिए बेहद फायदेमंद हैं लेकिन इसका खामियाजा पर्यावरण को भुगतना पड़ता है।
“ एक ही बार उपयोग करके भूलने तक”: कुप्रबंधित पाउच की कहानी
सैशे यानी छोटे प्लास्टिक पाउच की शुरुआत, कम आय वाले लोगों तक रोज़मर्रा की ज़रूरतों के उत्पाद, सुलभ और किफ़ायती हों, इसी उद्देश्य से हुई थी। लेकिन जो कभी सहूलियत और समावेशन का प्रतीक था, वही अब एक स्थायी और उपेक्षित प्रदूषण समस्या बन गया है।
खासकर ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों में, जहां औपचारिक कचरा संग्रहण की कोई व्यवस्था नहीं है, वहां सैशे को खुले में फेंक दिया जाता है या जला दिया जाता है—जिससे मिट्टी, हवा और पानी सभी प्रभावित होते हैं।
समस्या इतनी गंभीर क्यों है?
ये बायोडिग्रेडेबल/जैव विघटनशील नहीं होते। इन प्लास्टिक को वास्तव में खतरनाक बनाने वाली दो बातें है: उनकी दृढ़ता और गतिशीलता। खुले में पड़े हुए, सैशे (पाउच) छोटे और अक्सर गंदे होते हैं , जिससे इन्हें उठाना या रीसायकल करना मुश्किल होता है।
पीईटी बोतलें या एचडीपीई कंटेनर अधिक मूल्य श्रेणी का हिस्सा हैं, और तुलनात्मक सैशे (पाउच) 'कम मूल्य वाले प्लास्टिक' (लो वैल्यू प्लास्टिक- एलवीपी) की श्रेणी में आते हैं और अपशिष्ट प्रबंधन तंत्र में अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
इनका पुनर्विक्रय मूल्य न्यूनतम (₹1-₹2 /किलोग्राम) होने के कारण सफाई साथी (कचरा बीनने वाले) सैशे (पाउच) को इकट्ठा करने की प्राथमिकता नहीं देते हैं ।
अधिकांश पाउच बहु-स्तरीय प्लास्टिक यानि मल्टी-लेयर्ड प्लास्टिक/ (एमएलपी) को पुनर्चक्रण इकाइयां अलग नहीं कर सकती हैं।
बिखरे हुए सैशे (पाउच), जलधारा के साथ मिलकर नालियों को जाम करते हैं और नदियों, नालों और समुद्री तटीय क्षेत्रों में मलबे का महत्वपूर्ण हिस्सा बनते हैं।
सैकड़ों वर्षों तक, अपनी मूल अवस्था में रहने के बाद, धीरे-धीरे समय के साथ, विखंडन के माध्यम से, प्लास्टिक, छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाता है जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। जो अब विभिन्न जीव-जन्तुओं, पदार्थों और यहां तक कि मानव रक्त में भी पाए जा रहे हैं।
अगर जानवर उन्हें निगल लें, तो उनकी जान पर संकट हो सकता है और अगर यह मिट्टी में मिल जाये तो उसकी सतह को ढक कर भूजल रिसाव, गुणवत्ता और पौधों की वृद्धि को प्रभावित करते हैं।
अगर उन्हें जलाया जाता है, तो जहरीले रसायन जैसे डाइऑक्सिन और फ्यूरान निकलते हैं और इससे निकलने वाला जहरीला धुआं, वायु प्रदूषण का कारक बनता है, जो दीर्घकालिक संपर्क में आने से कैंसर, साँस की बीमारियाँ और हार्मोन प्रणाली में गड़बड़ी से जोखिम पैदा करते हैं।
कौन ले जिम्मेदारी?
यद्यपि कुछ दिशा निर्देश और नियम मौजूद हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनका गंभीरता से और सक्रियता से पालन नहीं किया जा रहा है। कुछ पर्वतीय और छोटे ग्रामीण क्षेत्रों में जलाने के लिए सामग्री और स्वच्छ ईंधन जैसे एलपीजी या बायोगैस की सीमित उपलब्धता के कारण लोग ठंड से बचने और खाना पकाने के लिए सैशे को जलाते हैं या खुले में फेंक देते हैं। शहरी क्षेत्र की तुलना में, यहाँ पर अपशिष्ट संग्रहण और निष्पादन जैसी मूलभूत सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। स्थानीय निकायों के पास इन्हें अलग करने या प्रोसेस करने की कोई प्रणालीगत व्यवस्था नहीं है।
पहल : शोध और समाधान की ओर
हम (वेस्ट वॉरियर्स संस्था) कचरे से जुड़ी बाह्य लागतों के आर्थिक मूल्यांकन पर शोध कर रहे हैं। इसका उद्देश्य है कि जो प्लास्टिक पाउच या लचीले पैकेजिंग उत्पाद खुले में फ़ेंके जाते हैं, वे स्थानीय पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य और समाज पर वास्तव में कितना प्रभाव तथा लागत डालते हैं।
जो सैशे कभी 'सहूलियत' के प्रतीक थे, वे अब हमारी हवा, ज़मीन और पानी को धीरे-धीरे प्रदूषित कर रहे हैं। यद्यपि सिंगल और मल्टी-लेयर प्लास्टिक (एस एल पी/एम एल पी) के लिए ई पी आर जैसी नीतियां मौजूद हैं जिसमें उत्पादकों, पुनर्चक्रणकर्ताओं व संग्रहकर्ताओं की जवाबदेही तय की गई है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इन सैशों का संग्रहण और पुनर्प्राप्ति अब भी बेहद चुनौतीपूर्ण है। इन इलाकों में न तो पर्याप्त बुनियादी ढांचा है, और न ही सैशों को इकट्ठा करने या बाहर ले जाने की सुविधा, जिससे ईपीआर जैसी नीति का प्रभाव सीमित ही रह जाता है।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो वर्ग इनका सबसे ज्यादा उपभोग करता है, वही सबसे ज्यादा नुकसान भी झेलता है।
“आओ मिलकर, शुरुआत हम खुद से करें- स्वच्छ भविष्य की ओर एक छोटा क़दम लें। सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल कम करें। सैशे प्रदूषण की जड़ें हमारे उपभोग के तरीकों में छिपी हैं, अतः रोजमर्रा की आदतों में बदलाव करें और नियमों को सही ढंग से लागू करने में सहयोग दें।”