पर्यावरण और आर्थिक लिहाज से इस्तेमाल किए जा चुके उत्पादों के पुनर्चक्रण और फिर दोबारा उनका उपयोग महत्वपूर्ण है। लेकिन, जब अमेरिका जैसी महाशक्तियां इस्तेमाल किए गए कपड़ों पर प्रतिबंध लगाने वाले रवांडा को व्यापार प्रतिबंधों के जरिए धमका रही हैं, तब क्या ऐसे हालात में चक्रीय अर्थव्यवस्था यानी सर्कुलर इकोनॉमी से दुनिया को फायदा होगा? भारत पर भी अमीर देशों के डंपयार्ड बनने का खतरा मंडरा रहा है।
किसी समय गुलजार रहने वाली रवांडा की राजधानी किगाली में स्थित किमिरोनको मार्केट में एक अजीब-सा सन्नाटा पसरा है। एक कोने में बैठे इमैनुएल हैरिंडिंट्वारी सीमा पर हुई एक घटना के बारे में चर्चा कर रहे दूसरे दुकानदारों की बातें सुन रहे हैं, जो पूर्वी अफ्रीका की राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता के लिए खतरा बन गई है। 24 मई को रवांडा के सुरक्षा बल ने इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों की तस्करी में युगांडा की एक महिला सहित दो लोगों को गोली मार दी। ये पुराने कपड़े उन लोगों के थे, जो उत्तरी अटलांटिक महासागर या फिर उससे आगे भूमध्य सागर से दसियों हजार किमी दूर रह रहे हैं। ये महाद्वीप में कपड़ों के सस्ते व प्राथमिक स्रोत भी हैं।
रवांडा की सरकार नहीं चाहती है कि उसके नागरिकों को धनी देशों के द्वारा फेंक दिए गए कपड़ों के ढेर का सामना करना पड़े। तीसरी दुनिया के लेबल को हटाने और लोगों की गरिमा को बहाल करने के लिए आक्रामक रुख अपनाते हुए सरकार देश में इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों व जूतों के प्रवेश को विनियमित कर रही है।
2016-17 से लगातार इन सामानों पर टैक्स में भी बढ़ोतरी की जा रही है, पहले इन पर टैक्स की दर 0.20 डॉलर प्रति किलो से बढ़ाकर 2.50 डॉलर प्रति किलो कर दी गई और फिर अगले ही वित्तीय वर्ष में इसे 4 डॉलर प्रति किलो तक बढ़ा दिया गया। इस्तेमाल किए जा चुके फुटवियर पर भी ये दरें 0.20 डॉलर से बढ़कर 5 डॉलर तक पहुंच गई हैं। इसके साथ ही रवांडा सरकार ने युगांडा और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो के साथ लगती देश की सीमाओं पर निगरानी भी बढ़ा दी है। अफ्रीका के ये देश इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों के शीर्ष आयातकों में से एक हैं। सरकार के इन कदमों से व्यापार कर रहे करीब 22,000 रवांडावासी हतोत्साहित हुए हैं।
धंधे के बारे में पूछने पर हैरिंडिंट्वारी एक छोटे से स्टॉल की तरफ इशारा करते हैं, जिसकी चौड़ाई एक मीटर से भी कम है। उस स्टॉल पर इस्तेमाल की जा चुकीं पतलून, शर्ट और रंगीन चादरों का ढेर बड़े करीने से तह लगाकर रखा हुआ है। वह कहते हैं, “ये सारा सामान वैध तरीके से आयात करके लाया गया है। लेकिन, टैक्स की बढ़ी दरों की वजह से ये इतना महंगा हो गया है कि इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों की जो गठरी दो साल पहले 56 डॉलर की आती थी, उसके लिए अब 422 डॉलर चुकाने पड़ते हैं। अब अगर हम यह बढ़ी कीमत ग्राहकों से वसूलते हैं, तो बिक्री घटने का खतरा उठाना पड़ता है। अगर ऐसा नहीं करते हैं, तो हमें भारी नुकसान होता है।” वह याद करते हैं कि इससे पहले किमिरोनको मार्केट के ये संकरे गलियारे त्याग दिए गए कपड़ों से भरे रहते थे। ग्राहक बड़े उत्साह के साथ लोकप्रिय लोगो वाली टी-शर्ट और पश्चिमी फैशन वाले कपड़े छांटने में जुटे रहते थे। वह कहते हैं, “मुझे 20 वर्षों तक लोगों को ये कपड़े बेचने का सौभाग्य मिला, लेकिन आज मुझे अपने बच्चे की स्कूल फीस भरने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।”
बाजार से दूर किगाली के बाहरी इलाके में एक फुटपाथ विक्रेता क्लैडिट नायरानेजा बताते हैं कि कैसे बढ़ी टैक्स दरों की वजह से अच्छे कपड़े रवांडा के आम लोगों से दूर हो गए हैं। वह कहते हैं, “पहले कोई भी 100 रवांडन फ्रैंक (0.11 डॉलर) में पुराने कपड़े खरीद सकता था, लेकिन अब एक कपड़े के लिए कम से कम 4,000 रवांडन फ्रैंक (5 डॉलर) खर्च करने पड़ते हैं। यह कीमत खेतिहर श्रमिक के करीब एक सप्ताह और घरेलू सहायक के 10 दिनों के वेतन के बराबर है। विश्व बैंक के अनुसार छोटे से क्षेत्रफल वाले इस देश के 55.5 फीसदी लोग 1.90 डॉलर प्रतिदिन की अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं।”
देश से बाहर, इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों पर बढ़ी टैक्स दरों ने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यानी अमेरिका को परेशान कर दिया है। 2017 में डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर शपथ लेने के कुछ हफ्तों बाद, जब “अमेरिका फर्स्ट” नीति लाई गई, तब एक अनाम-से व्यापारिक संगठन सेकंडरी मैटेरियल्स एंड रिसाइकल्ड टेक्सटाइल्स असोसिएशन (स्मार्ट) ने सरकार से पूर्वी अफ्रीका में इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों के निर्यात पर रोक लगाने की कोशिशों के खिलाफ अपील की। दावा है कि इस क्षेत्र में इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों के कुल निर्यात में अमेरिका का पांचवां हिस्सा है। प्रतिबंध की वजह से 40,000 नौकरियों और 147 मिलियन डॉलर के वार्षिक निर्यात पर असर पड़ेगा।
इसकी प्रतिक्रिया में ट्रंप ने पहले रवांडा को धमकियां दीं और फिर अफ्रीकी विकास और अवसर अधिनियम (एजीओए) के तहत घरेलू स्तर पर निर्मित परिधानों पर दिया जाने वाला शुल्क मुक्त विशेषाधिकार निलंबित कर दिया। अमेरिका और 44 अफ्रीकी देशों के बीच विशेष व्यापारिक समझौते में 6,400 तरह के सामानों को बिना आयात शुल्क चुकाए अमेरिकी बाजारों में बेचने की अनुमति है, जबकि दूसरे देशों को यह शुल्क चुकाना पड़ता है। ट्रंप सरकार के आदेशों के बाद अब रवांडा सरकार को निर्यात से होने वाली आय में 1.5 मिलियन डॉलर प्रतिवर्ष का नुकसान होने का अनुमान लगाया जा रहा है।
सीमित प्राकृतिक संसाधनों और प्रमुख तौर पर व्यापार पर निर्भर एक छोटे से देश के लिए यह एक बहुत बड़ी राशि है। लेकिन, राष्ट्रपति पॉल कागामे ने न सिर्फ व्यापारिक युद्ध से हो रहे नुकसान को अल्पकालिक करार दिया है, बल्कि उनकी सरकार अपने फैसले पर भी अड़ी हुई है। 1994 में हुए नरसंहार, जिसमें 100 दिनों के भीतर 50 हजार से 10 लाख लोगों की मौत होने का दावा किया जाता है, के साए को पीछे छोड़ते हुए बीते दो दशकों के दौरान देश की जीडीपी लगातार 7 फीसदी की दर से बढ़ती रही है।
आज यह अफ्रीका की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। सरकार का लक्ष्य अब 2035 तक रवांडा को उच्च मध्य आय वाले देश में बदलने का है। सरकार मानती है कि स्थानीय कपड़ा और चमड़ा उत्पादकों को अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए घरेलू बाजार से इस्तेमाल किए जा चुके सस्ते कपड़ों को हटाना ही एकमात्र तरीका बचा है और इसी तरह देश की अर्थव्यवस्था को संभाला जा सकता है।
यही नजरिया रवांडा के पड़ोसी देशों केन्या, युगांडा, तंजानिया, बुरुंडी और दक्षिण सूडान का भी है, जिन्होंने हाल के वर्षों में ईस्ट अफ्रीकन कम्यूनिटी (ईएसी) का गठन किया है और एकल बाजार के रूप में उभर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था यूएसएआईडी की 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ईएसी ने 2015 में 274 मिलियन डॉलर के इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों का आयात किया, जो वैश्विक आयात का 12.5 प्रतिशत था। 2016 में कागामे के नेतृत्व में, जो ईएसी के अध्यक्ष भी हैं, इन देशों ने एक दीर्घकालीन विकास नीति, विजन-2050 तैयार की, जिसके चलते इन्हें घरेलू विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत करने की जरूरत पड़ी। रवांडा के साथ ही ईएसी के अन्य देशों ने भी 2019 तक पुराने कपड़ों पर रोक लगाने का वादा किया, जिसे वे अपने यहां की कपड़ा व चमड़ा उद्योगों के लिए खतरा मानते रहे हैं।
केन्या ने 1960 से लेकर 1980 के दशक की शुरुआत के बीच देश में इस्तेमाल किए गए कपड़ों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। सरकार ने स्थानीय मांग को पूरा करने और अपने यहां के सूती वस्त्र उद्योग को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए घरेलू वस्त्र एवं परिधान उत्पादन को बढ़ावा दिया। 1980 के दशक में केन्या ने पड़ोसी देशों के शरणार्थियों के लिए दान के तौर पर पुराने कपड़ों के लिए अनुमति दे दी। 2017 में गैर-लाभकारी संस्था सीयूटीएस इंटरनैशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार इससे धीरे-धीरे व्यापार को बढ़ावा मिला।
1990 के दशक की शुरुआत में सरकार ने उदारीकरण और निर्यात के प्रोत्साहन की तरफ ध्यान देते हुए इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों से प्रतिबंध हटा लिया। साल 2000 आते-आते केन्या की अधिकतर घरेलू कपड़ा कंपनियों ने दम तोड़ दिया। इसके पीछे दूसरे कारणों के साथ ही इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों के चलते बढ़ी प्रतिस्पर्धा भी थी। नैरोबी स्थित केन्या एसोसिएशन ऑफ मैन्युफैक्चरर्स के अनुसार, 1990 से पहले देश में 52 टेक्सटाइल मिलें और सैकड़ों की संख्या में कपड़ा कंपनियां थीं, जिनके बूते सार्वजनिक सेवा के बाद कपड़ा उद्योग देश का सबसे दूसरा बड़ा नियोक्ता था। मौजूदा समय में देश में कताई, बुनाई और वस्त्र परिष्करण में केवल 17 खिलाड़ी बचे हैं। इनमें से केवल 4 ही पूरी तरह से एकीकृत कपड़ा मिल हैं। इसी तरह 1960 के दशक के आखिर में उप-सहारा अफ्रीका में युगांडा कपास की फसल का सबसे बड़ा उत्पादक था। इस उपज के अधिकतर हिस्से की वहां की गर्म जलवायु के लिए उपयुक्त कपड़े बनाने के लिए स्थानीय स्तर पर ही खपत हो जाती थी। लेकिन, 1970 और 1980 के दशक में घरेलू उथल-पुथल और फिर 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के कारण बाजार ढह गया।
व्यापार एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र की 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, युगांडा आज 1970 के दशक का एक चौथाई भर ही उत्पादन कर पा रहा है। घटती क्षमता और बंद होती मिलों की वजह से इन देशों में सस्ते इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों पर निर्भरता बढ़ती गई और अब यह दुष्चक्र चलता ही जा रहा है। सस्ते कपड़ों के लिए आज केन्या की आधी से अधिक आबादी आयातित पुराने कपड़ों पर निर्भर है। 2013 में सरकार ने 0.1 मिलियन टन आयातित कपड़ों पर टैक्स से 54 मिलियन डॉलर का राजस्व कमाया और इस इंडस्ट्री से 65,000 लोगों को रोजगार भी मिला। केन्या एसोसिएशन ऑफ मैन्युफैक्चरर्स के प्रमुख अबेल कमाउ बताते हैं कि उनका देश एजीओए का प्रमुख लाभार्थी है। ईएसी राष्ट्रों में से यह अमेरिका का सबसे बड़ा वस्त्र निर्यातक है।
2017 में इसने रवांडा के 43 मिलियन डॉलर की तुलना में 410 मिलियन डॉलर कीमत का सामान अमेरिका को निर्यात किया। आश्चर्यजनक बात यह है कि एजीओए के लाभों को निलंबित करने की ट्रंप की धमकी के बाद, ईएसी राष्ट्रों में केन्या सबसे पहला देश था, जिसने इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों पर से टैक्स हटा लिया। तंजानिया और युगांडा इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों के दुनिया के टॉप-15 आयातक देशों में से एक हैं और बुरुंडी का नंबर इनके बाद आता है।
इससे बुरा और क्या हो सकता है कि ये देश टेक्सटाइल इंडस्ट्री के लिए कच्चे माल के उत्पादन में सबसे आगे रहे हैं। उदाहरण के तौर पर रवांडा को उसके महीन रेशम के उत्पादन के लिए जाना जाता रहा है। तंजानिया आज भी अफ्रीका के सबसे बड़े कपास उत्पादकों में से एक है। हालांकि, उद्योग के विशेषज्ञों के मुताबिक ईएसी राष्ट्रों में उत्पादित कपास का अधिकतर हिस्सा एशिया चला जाता है, जहां कताई के बाद यह परिधानों में परिवर्तित करके यूएस और यूरोपीय संघ को भेज दिया जाता है, वहां दो से तीन साल पहने जाने के बाद ये कपड़े ईएसी राष्ट्रों को वापस भेज दिए जाते हैं। ईएसी क्षेत्र फुटवियर के कच्चे माल के लिहाज से भी समृद्ध हैं।
तंजानिया में कुल 22.8 मिलियन, केन्या में 17.5 मिलियन, युगांडा में 12.8 मिलियन, रवांडा में 0.99 मिलियन और बुरुंडी में 0.74 मिलियन मवेशी हैं। सीयूटीएस इंटरनैशनल के शोधपत्र के मुताबिक ये देश चमड़े को सिर्फ प्रारंभिक गीले-नीले स्तर तक ही प्रोसेस कर सकते हैं। करीब 80 से 90 फीसदी तक गीला नीला चमड़ा निर्यात कर दिया जाता है और सिर्फ 10 फीसदी चमड़ा प्रसंस्करण के लिए बचता है, जिसे जूते बनाने वाले छोटे कारीगर इस्तेमाल करते हैं। इस क्षेत्र में फुटवियर की भारी मांग है, लेकिन इस मांग का 80 फीसदी आयात के जरिए पूरा किया जाता है, जिसमें से 60 फीसदी जूते पुराने होते हैं।
रवांडा आज आयात प्रतिबंधों को लागू करने और अमेरिका के खिलाफ लड़ाई में अकेले खड़ा है। कपड़ों के मामले में आत्मनिर्भर होने के लिए सरकार ने स्थानीय उद्यमियों व कुटीर कारीगरों के लिए समर्थन जुटाने और कपड़ों के उत्पादन की गुणवत्ता सुधारने के लिए कंपनियों को प्रोत्साहित करने के लिए 2016 में मेड इन रवांडा अभियान शुरू किया। इसके तहत व्यापरियों से इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों की जगह मेड इन रवांडा कपड़ों का व्यापार शुरू करने का भी आग्रह किया जा रहा है। वर्तमान में रवांडा की टेक्सटाइल इंडस्ट्री पॉलिएस्टर, कपास आदि कच्चे माल के लिए आयात पर निर्भर है, जिससे स्थानीय स्तर पर वस्त्र उत्पादन महंगा हो जाता है।
1985 से किगाली में टेक्सटाइल इंडस्ट्री चला रहे यूटेक्सरवा के मैनेजिंग डायरेक्टर रितेश पटेल ने बताया कि कपड़ा उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल में से 40 फीसदी पॉलिएस्टर और कपास है। वह कहते हैं, “यूटेक्सरवा की बनाई शर्ट मार्केट में 5 डॉलर की बिकती है, जो पुरानी शर्ट की तुलना में काफी महंगी है।”
व्यवसायी समुदाय के हितों को बढ़ावा देने के लिए समर्पित रवांडा का प्राइवेट सेक्टर फेडरेशन (पीएसएफ) उत्पादन लागत कम करने के लिए टेक्सटाइल इंडस्ट्री में सामूहिक निवेश को प्रोत्साहित कर रहा है। पीएसफ के संचार एवं मार्केटिंग प्रमुख एरिक काबेरा कहते हैं, “कच्चे माल के आयात को लेकर हम उत्पादकों को एक साथ ले आए हैं। निजी तौर पर आयात करने की तुलना में सामूहिक रूप से ऑर्डर करना सस्ता पड़ता है।” दुनिया भर में उपलब्ध उन्नत तकनीक का लाभ उठाने की तैयारी भी की जा रही है। रवांडा की सरकार ने मई में चीनी फर्म पिंग मैंगो सीएंडडी के साथ किगाली स्पेशल इकोनॉमिक जोन में अत्याधुनिक कपड़ा फैक्ट्री लगाने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
रवांडा डेवलपमेंट बोर्ड के डिप्टी चीफ एग्जिक्यूटिव ऑफिसर इमैनुएल, जिन पर विजन-2035 को लागू करने की जिम्मेदारी है, कहते हैं कि इस कदम से देश की मिलों को फिर से शुरू करने पर 7,500 नौकरियां पैदा करने और इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों के आयात पर निर्भरता को घटाने में मदद मिलेगी। सरकार रवांडा के सरकारी कर्मचारियों को हर महीने के आखिरी शुक्रवार को रवांडा में डिजाइन किए गए कपड़े पहनने के लिए भी प्रोत्साहित कर रही है। लेकिन, सरकार को अपने सुरक्षा उपाय नहीं छोड़ने चाहिए और एहतियातन जरूरी बातों पर ध्यान देना चाहिए। रवांडा का बाजार पहले ही चीन में बने सस्ते कपड़ों से भरा पड़ा है। अगर रवांडा के लोगों को आयातित पुराने कपड़ों के विकल्प के तौर पर ये कपड़े भा गए, तो एक उच्च मध्य आय वाला देश बनाने की सारी कोशिशें बेकार साबित हो जाएंगी। यह समय जोखिम भरा है।
देश अपनी कंपनियों को बचाने के लिए कोशिश कर रहे हैं। शुरुआत में निम्न आय वाले देशों को विकास के लिए सहायता प्रदान करने वाले एजीओए ने ट्रंप प्रशासन के दबाव में दिशा बदल दी है। कनाडा स्थित टोरंटो यूनिवर्सिटी में आर्थिक विश्लेषण एवं सार्वजनिक नीतियों के प्रोफेसर और इंटरनैशनल ग्रोथ सेंटर ट्रेड रिसर्च ग्रुप के सदस्य गार्थ फ्रेजर लिखते हैं, “यह गंभीर चिंता का विषय है कि जब ईएसी के सदस्यों ने इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों के आयात पर प्रतिबंध बढ़ाने का फैसला किया, तो वर्तमान यूएस प्रशासन ने उन्हें एजीओए के लाभ से वंचित करने की धमकी देकर जवाब दिया।”
पुराने कपड़ों का बड़ा बाजार है भारतपुरानी चीजों को दोबारा इस्तेमाल करने की अवधारणा भारत के लिए नई नहीं है। बड़े भाई-बहनों के कपड़े उनसे छोटों को पहनाने और नवजात शिशुओं के लिए पुराने कपड़े इस्तेमाल करने का चलन यहां की अधिकतर संस्कृतियों में आम है। घर-घर जाकर सामान बेचने वाले विक्रेताओं से इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों के बदले स्टील के बर्तन खरीदने की परंपरा भी काफी प्रचलित है। ये विक्रेता आखिर इकट्ठा किए गए इन पुराने कपड़ों का करते क्या हैं?दिल्ली के रघुबीर नगर में एक बाजार है, जहां इस तरह के कपड़े बेचे जाते हैं। इसे एशिया में इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों का सबसे बड़ा बाजार माना जाता है, जहां फुटपाथ विक्रेता करमदास प्रकाश और उनकी पत्नी रेखा के लिए दिन की शुरुआत तड़के 3 बजे हो जाती है। यह दंपती रोजाना 30 से 100 कपड़े तक बेच लेता है। बाजार में करीब 5,000 विक्रेता इस पुश्तैनी काम में लगे हुए हैं। सुबह 11 बजे तक यहां सन्नाटा पसर जाता है और मार्केट बंद हो जाती है। 11 बजे के बाद प्रकाश और दूसरे विक्रेता दिल्ली-एनसीआर के विभिन्न हिस्सों में घर-घर जाकर पुराने कपड़ों के बदले स्टील के बर्तन बेचने का काम करते हैं। प्रकाश कहते हैं, “बड़ी संख्या में लोग नए कपड़े नहीं खरीद सकते हैं, उन्हें यहां 50 रुपए से भी कम कीमत में एक अच्छी जींस मिल जाती है। यह अच्छा है कि इस तरह कपड़ों की उम्र बढ़ जाती है।” बीते 20 वर्षों के दौरान भारत में इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों का आयात भी बढ़ा है। केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के मुताबिक 1996-97 में यह 3.3 करोड़ रुपए का था, जो 2018-19 में बढ़कर 615.8 करोड़ रुपए तक पहुंच गया। 2017 में भारत को इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों का निर्यात करने वाले तीन शीर्ष देशों में से अमेरिका (47 प्रतिशत), दक्षिण कोरिया (18 प्रतिशत) और कनाडा (12 प्रतिशत) थे। अधिकतर पुराने कपड़ों का इस्तेमाल नई चीजें बनाने के लिए कच्चे माल के तौर पर किया जाता है। हरियाणा के पानीपत में ऐसी बहुत सी इंडस्ट्रीज हैं, जहां कंबल, शॉल, पर्दे और बेडशीट बनाने के लिए लिए ऊनी कपड़ों और होजरी से निकाले गए धागे का इस्तेमाल किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी संस्थाएं थोक में यह सामान खरीद कर अफ्रीका और दूसरे देशों में भेज देती हैं। नॉर्दर्न इंडिया इंडिया रोल स्पिनर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रीतम सिंह सचदेव बताते हैं कि पानीपत की रिसाइकलिंग इंडस्ट्री सालाना 7,000 से 8,000 करोड़ रुपए का निर्यात करती है, जिसका 80 फीसदी कारोबार रिसाइकल किए गए धागों पर आधारित है। दिल्ली और पानीपत के अलावा गुजरात स्थित कांदला भी इस्तेमाल किए जा चुके कपड़ों का एक और प्रमुख केंद्र है। कांदला स्पेशल इकोनॉमिक जोन भारत में टेक्सटाइल वेस्ट की छंटाई और ग्रेडिंग का सबसे बड़ा केंद्र है। |