जैसे-जैसे भारत में साक्षरता और राजनैतिक जागरुकता बढ़ रही है, ज्यादातर शहरों में प्रशासन को जहां-तहां कचरा डालने के खिलाफ जनता के प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। पिछले तीन माह में उत्तर प्रदेश के नोएडा के बाद अब प्रदेश का नया दरवाजा बनने की कगार पर खड़ा गाजियाबाद में स्थानीय नगर निगम द्वारा जहां-तहां कचरा डालने के खिलाफ स्थानीय लोगों को विरोध तेजी से बढ़ रहा है। विरोध का आलम ये है कि निगम की कचरा गाड़ी रात के अंधेरे में वो भी रात के तीसरे पहर चुपचाप निकलती हैं तब पूरा शहर गहरी नींद में सो रहा होता है तो वे जहां चाहे कचरा डाल कर भाग लेते हैं। और इसका नतीजा होता है कि सुबह होते ही नगरवासी इसके खिलाफ धरना-प्रदर्शन से लेकर सड़क जाम तक करने पर मजबूर हो जाते हैं। अब तक इसका हल नहीं निकल पाया है। यह स्थिति अकेले गाजियाबाद शहर की ही नहीं बल्कि देश के लगभग हर शहर की कमोबेश यही हालात हैं। इसका नतीजा है कि निगम कचरा प्रबंधन बुरी तरह से असफल हो रहा है और लोगों का विरोध लगातार बढ़ता जा रहा है।
मिसाल के तौर पर, केरल के विल्लिपिसाला गांव ने अपने आसपास के क्षेत्र में, तिरुवनंतपुरम से आने वाले कचरे के डंपिग पर प्रतिबंध लगा दिया है, इसकी मुख्य वजह बताई जा रही है कि कचरा जमीन और पानी के प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण है। इसी तरह के एक आंदोलन ने एलेप्पी के पड़ोसी शहर को एलेप्पी के अपने कचरा भराव क्षेत्र में, कचऱे के डंपिंग करने से रोक दिया। पूणे में, उराली-देवची गांव ने बार बार चेतावनी दे कर कहा है कि इसके पास शहर का काफी कूड़ा पहले ही जमा है। दिल्ली की एक मध्यवर्गीय काॅलोनी सरिता विहार के निवासियों ने कचरा से उर्जा उत्पादन करने वाले संयंत्र के खिलाफ मोर्चाबंदी कर ली है, उनका कहना है कि यह प्रदूषण का स्त्रोत है और स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। हाल ही में, गाजीपुर कचराभराव क्षेत्र के खिसकने की दुर्घटना के बाद दिल्ली सरकार द्वारा नए कचराक्षेत्र के रूप में हरियाणा के रानीखेरा को प्रस्तावित किया गया है, जिसका रानीखेरा के ग्रामीणों ने कड़ा विरोध किया हैं।
कचरा विरोध की यह श्रृंखला लगातार बढती जा रही है। लेकिन सभी विरोधों का परिणाम एक जैसा नहीं आ रहा है। जहां विरोध करने वाले मघ्यवर्ग के हैं, इस समस्या को किसी दूसरे के पिछवाड़े बस खिसका देते हैं। लेकिन जहां विरोध खुद पिछवाड़े से आ रहा होता है समस्या प्रबल हो जाती है क्योंकि तब, कचरे का प्रबंधन अलग तरीके से करना पड़ता है नही ंतो आगे के अच्छे हिस्से भी खत्म हो जायेंगे। ऐसे मामले में, कचरे को आसानी से कहीं और नहीं छिपाया जा सकता है या कहीं और इसका निपटारा नहीं किया जा सकता है। इसलिए, निम्बी-(एन आई एम बी वाई) के पास कचरा क्रांति लाने की क्षमता है-जहां कचरा कोई बेकार की चीज नहीं बल्कि संसाधन है। ऐसा ही कुछ स्वच्छ भारत अभियान की पहली पंक्ति में खड़े शहरों में हो रहा है। इन शहरों ने ठोस कचरा प्रबंधन को फिर से बनाया है क्योंकि उनके पास और कोई दूसरा रास्ता था भी नहीं।
मसलन केरल, इसके कई शहरों को लंबे समय तक इस विरोध से जूझना पड़ा जिसकेे बाद यहां विकेंद्रीकृत कचरा प्रबंधन में बदलाव लाया गया।
केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से 14 किमी दूर स्थित एक छोटे से गांव विलपिल में ज्यादातर सीमांत किसान व वेतन मजदूर रहते हैं। वर्ष 1993में, नगर निगम ने इस गांव में 18.6 हेक्टेयर ज़मीन खरीदी थी। उस समय ग्रामीणों को विश्वास दिलाया गया कि इस ज़मीन पर एक हर्बल उद्यान लगाया जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, जब वर्ष 2000 में यहां खाद संयंत्र स्थापित किया गया तो ग्रामीणों ने इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। तब निगम ने उन्हें आश्वासन दिया कि यह संयंत्र वैज्ञानिकों की देखरेख में काम करेगा, जो बदबू रहित और शून्य प्रदूषण सुनिश्चित करेेगे। लेकिन यह क्षेत्र एक खुला कूड़ादान बन गया। लोगों ने इसका विरोध किया तो उनमें से 24 के खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज हुए थे।
वह संयंत्र, जिसे राज्य के लिए भविष्य के माडल के रूप में पेश किया जा रहा था, वह केवल थोड़ी मात्रा में ही जैविक कूड़े को संसाधित कर सकता था क्योंकि इसमें कूड़े की छंटाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। खुले में एकत्रित कचरा जल्द ही सड़ने लगा। लोगों ने इसमें से तीन किलोमीटर की दूरी से भी बदबू आने की शिकायत की। इस कचरे की ढेर ने न केवल लोगों के रोजमर्रा के जीवन पर असर डालना शुरू कर दिया बल्कि इसकी वजह से उस गांव में शादी के लिए रिश्ते आने बंद हो गए। संयंत्र के करीब रहने वाले लोगों में सांस और त्वचा संबंधी रोग, दृष्टि का धंुधलापन, जोड़ों में सूजन जैसी बीमारियों की घटनाएं बढ़ गई हैं।
21 दिसंबर 2011 को विलापिल ने इस कचरे को लेने से इंकार कर दिया। शहर में कचरा एकत्र करने का काम भी बंद हो गया। सड़क के किनारे कचरे का ढ़ेर लगना शुरू हो गया और अचानक शुरू हुई चक्रवाती बारिश ने स्थिति को और ज्यादा भयावह कर दिया। डेंगू, चिकनगुनिया, और रैट फीवर के मामलों की शिकायतें आने लगी। नगर निगम ने उच्च न्यायालय से इस मामले में हस्तक्षेप की मांग की जिसने नागरिक निकाय के पक्ष में फैसला सुनाया। उच्च न्यायालय के फैसले से नाखुश, ग्राम पंचायत ने सर्वोच्च न्यायालय में इस मामलें पर विचार के लिए अपील की। 19 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश दिया जिसमें शहर के कचरे को कुछ शर्तों के साथ विलपिल ले जाने की इजाजत दे दी । यह शर्ते थीं कि निगम एक दिन में 90 टन कचरा संय़त्र ले जा सकता है लेकिन इसके लिए उसके पास पंचायत का अनिवार्य लाइसेंस व केरल राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का अनापत्ति प्रमाण पत्र होना जरूरी है। और यह दोनो ही संयंत्र के पास नहीं थे। संयंत्र तक कचरा नही पहुंचाया जा सका और लगभग 30,000 टन कचरा शहर में विभिन्न स्थानों पर दबाना पड़ा। अब, विलापिल के संयंत्र के स्थापित होने के बारह साल बाद, इसमें काम शुरू हो गया। नगर निगम इस संयंत्र को खोने के कगार पर है हालांकि उसने इसमें कुछ संशोधन भी किया है। उसने कचरे के पहाड़ों को प्लास्टिक के चादरों से ढ़ंक दिया है। इस संयंत्र की एक दिन में 0.6 मिलियन लीटर लीचाट के उपचार की क्षमता भी बन गई है। लेकिन वहां के निवासी कूड़े के निष्पादन के उपरांत बची मिट्टी को भी वहां से हटाने नहीं दे रहे थे । वह संयंत्र को पूरी तरह से बंद करवा देने की मांग पर अड़े हुए हैं।
राज्य सरकार ने इस मामले में, विकल्प की तलाश के लिए छह महीने के समय की मांग की, लेकिन निवासियों ने इसे सिर्फ तीन महीनें का ही समय दिया। समय सीमा ख़त्म होने के बाद, ग्राम पंचायत ने नगर में कचरे के प्रवेश को प्रतिबंधित करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया और संयंत्र के द्वार को बंद कर दिया।
केरल पंचायती राज अधिनियम और 1994 के केरल नगर पालिका अधिनियम के तहत, यह मामला गांव के स्वास्थ्य व स्वच्छता समस्याओं से संबंधित पंचायत के विशेष अधिकार से जुड़ा हुआ है।
फरवरी 2016 में, तिरुवनंतपुरम के करीब 10 एकड़ जमीन की पहचान के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। हालांकि, अब नगर निगम ने कचरे के विकेन्द्रीकृत प्रबंधन को अपना लिया है। नागरिकों को भी अपने घर के पिछले आंगन में कचरा और खाद को अलग अलग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ‘क्लीन केरल’ कंपनी द्वारा प्रत्येक महीने सूखा कचरा भी एकत्र किया जाता है।