प्रयागराज के कूड़े ने दर्जन भर गांवों को नर्क बनाया

प्लांट से उठती असहनीय दुर्गंध, मच्छरों, मक्खियों, अपरिचित कीड़ों, त्वचा और सांस से संबंधित बीमारियों ने ग्रामीणों का जीना दूभर कर दिया है
इलाहाबाद (प्रयागराज) से निकलने वाले कूड़े को शहर से लगभग दस किलोमीटर दूर बसवार गांव के पास बने प्लांट में इकट्ठा किया जाता है। फोटो: गौरव गुलमोहर
इलाहाबाद (प्रयागराज) से निकलने वाले कूड़े को शहर से लगभग दस किलोमीटर दूर बसवार गांव के पास बने प्लांट में इकट्ठा किया जाता है। फोटो: गौरव गुलमोहर
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गौरव गुलमोहर
इलाहाबाद (प्रयागराज) शहर से प्रतिदिन लगभग 600 टन कूड़ा निकलता है। इसका निस्तारण शहर से दस किलोमीटर दक्षिण की ओर, यमुना नदी के किनारे मेसर्स हरीभरी द्वारा स्थापित कूड़ा निस्तारण प्लांट में होता है। इसके ठीक बगल में घनी बस्ती वाला बसवार गांव है जिसमें मुख्यत: निषाद, नाई, यादव, गड़ेरिया और अनुसूचित जातियों के लोग रहते हैं। इसमें कुल सात हजार मतदाता हैं। प्लांट से उठती असहनीय दुर्गंध, मच्छरों, मक्खियों, अपरिचित कीड़ों, त्वचा और सांस से संबंधित बीमारियों के प्रकोप ने ग्रामीणों का जीना दूभर कर दिया है। लगभग तीन किलोमीटर दूर तक बसे अन्य गांव भी बीमारियों की जद में आते नजर आ रहे हैं।
इलाहाबाद एक प्राचीन पारम्परिक, धार्मिक शहर है जहां हर वर्ष माघ मेला में लाखों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं। वहीं छह वर्ष के अंतराल पर अर्ध कुम्भ और बारह वर्ष में महाकुम्भ का आयोजन होता है। देश के कोने-कोने से करोड़ों श्रद्धालु, दुकानदार, फेरीवाले गंगा-यमुना किनारे संगम में इकट्ठा होते हैं। इस समय शहर से निकलने वाले कचड़े की मात्रा में बेतहाशा वृद्धि हो जाती है। 2019 के अर्द्ध कुंभ से अनुमानित 20,000 टन कचड़ा बसवार में लाया गया था। 
डाउन टू अर्थ कल बसवार के हरी भरी प्रोसेसिंग प्लांट की स्थिति देखने पहुंचा तो प्लांट के गेट पर ही अनुमति न होने का हवाला देकर रोक दिया गया। शहर की ओर से हर पांच मिनट में कचड़े से लदे ट्रक प्लांट में आ रहे थे, सामने लगा कम्प्यूटर कांटा खराब पड़ा था। ट्रक बिना तौल के ही प्लांट में कचड़ा डंप कर रहे थे। प्लांट में कुछ जेसीबी मशीनें कूड़ा पलटते नजर आ रही थीं। हालांकि गेट पर दुर्गंध के बीच बिना किसी सुरक्षा कवच के मौजूद दो सुरक्षा गार्डों ने बताया कि अंदर कचरा निस्तारण का काम चल रहा है।
प्लांट के पीछे से जाकर जब हमने देखने की कोशिश की तो दूर तक फैला कूड़े के ढेर का शुरुआती हिस्सा तो दिख रहा है लेकिन अंत नजर नहीं आता। ग्रामीण बताते हैं कि लगभग पचीस से तीस बीघे में कचड़े का पहाड़ फैला है। प्लांट की गंध से तीन किलोमीटर तक बसवार, मड़उका, मोहब्बतगंज, अमिलिया, बकसी, करहन्दा, मोहद्दीनपुर, मुरलीपुर, बंधवा, सेमरा जैसे कई गांव प्रभावित हैं।
हमारी मुलाकात बसवार के गुलज़ार निषाद (51) से हुई। गुलज़ार के हाथों में मच्छरों के काटने से बड़े-बड़े फफोले पड़ गए हैं और अब उनमें मवाद भर गया है। वह बताते हैं कि "जबसे कम्पनी के मच्छर आये हैं, उनके काटने पर खुजलाने के बाद फफोले निकल आते हैं। देखते ही देखते यह पक जाता है। बाजार से सौ-पचास रुपए की दवा लेने के बाद ही ठीक होता है। गांव में नई मक्खियां आ गई हैं। उनके काटने पर खून निकल आता है। जहां काटती हैं वहां बुड्डा (फफोला) बन जाता है।"
बसवार में इस विषय पर आम सहमति देखने को मिली कि कचड़ा प्लांट बसवार से हटना चाहिए। लेकिन इसी बीच कई गांवों में बसवार से कचरा प्लांट बंद होकर शंकरगढ़ में जाने की चर्चा भी तेज हो गई है। भैरव प्रसाद निषाद (60) बताते हैं कि रात में लाइट कटने पर बाहर सोना सम्भव नहीं। बच्चे पहले से ज्यादा बीमार हो रहे हैं। दिनभर में सैकड़ों गाड़ी कचरा आता है। सड़क दुर्घटना में कई लोगों की जान जा चुकी है। सुनने में आ रहा है कि कचरा प्लांट बंद होने वाला है लेकिन इतना कचरा बसवार में इकट्ठा हो चुका है कि यदि हटेगा तो कई साल लग जाएंगे।
हाल ही में इलाहाबाद की महापौर अभिलाषा गुप्ता ने बसवार में कचड़े से डीजल बनाने वाले प्लांट का उद्घाटन किया है। ख़बरों की मानें तो हरी भरी एजेंसी प्लास्टिक के कचरे से डीजल, गैस और रद्दी कपड़े से कोयले का पाउडर बनाने के लिए दो टन क्षमता का प्लांट लगा चुकी है। इन चीजों के उत्पादन के लिए पायरोलाइसिस तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। इसके तहत प्लास्टिक कचरे को 700 डिग्री सेंटीग्रेट पर गलाया जाएगा। इससे करीब 70 फीसद डीजल निकलेगा और बाकी की गैस बनेगी। प्लांट में प्रतिदिन लगभग 1,400 लीटर डीजल तैयार होने का अनुमान है।
बसवार कूड़ा प्लांट का कई सालों से विरोध कर रहे भाजपा कार्यकर्ता संदीप निषाद (32) बताते हैं कि 2018 में कई गांवों के लगभग दो हजार लोगों ने प्लांट का विरोध किया था। गांव में अजीब-अजीब तरह के कीड़े आ गए हैं। गर्मी, बरसात में दीवारें मक्खियों से काली पड़ जाती हैं। मैं यह गांव छोड़ देना चाहता हू लेकिन गांव वाले कहां जाएंगे?
संदीप आगे कहते हैं कि जहां तक रही बात कूड़ा प्लांट बंद होने की तो यह सूचना फर्जी है। अगर प्लांट बंद होना होता तो अभिलाषा जी बीस दिन पहले डीजल प्लांट का उद्घाटन न करतीं और न ही मरे हुए जानवरों को जलाने के लिए चिमनी बनाई जाती। आने वाले कल में बसवार की और बुरी दशा होने वाली है।
शाम होते ही गांवों में गंध फैल जाती है। पुरुष बाजार की ओर चले जाते हैं। महिलाएं घरों के अंदर हो जाती हैं। जो बाहर दिखते भी हैं, वे हाथ से नाक बंद कर बाहर निकलते हैं। गांव वालों का कहना है कि बच्चों में बुखार, कालरा, मलेरिया और उल्टी-दस्त की बीमारी बढ़ गई है। गांव में अभी तक कई लोग कैंसर से जान गंवा चुके हैं।
बसवार गांव की सावित्री देवी (50) बताती हैं कि इतनी जोर की गंध होती है कि खाना नहीं खा पाती। शाम को जब कूड़ा खोदने (पलटने) लगते हैं तो गंध बढ़ जाती है। पूरे गांव का पानी खराब हो रहा है। जमुना जी (यमुना नदी) में यहां का कचरा जा रहा है और उसका पानी भी खराब हो रहा है। वही गंदा पानी जानवर पी रहे हैं। यह सब गांव में नहीं होना चाहिए। कहीं दूर कूड़ा रखना चाहिए। लेकिन विरोध के बाद भी बंद नहीं हो रहा है।
पर्यावरण अभियंता उत्तम वर्मा प्लांट के बंद होने या शंकरगढ़ जाने की बात से इनकार करते हैं। वह कहते हैं कि प्लांट में प्रोसेसिंग जारी है। कम्पोस्ट तैयारा हो रहा है और सेल हो रहा है। डीजल बनाने का काम शुरू हो चुका है। दो-तीन दिन में ही जानवरों को जलाने वाले प्लांट का उद्घाटन होना है। हमारा सीएनजी प्लांट भी वहीं बनने वाला है।
गांवों में गंध, मक्खी, मच्छर की वृद्धि के सवाल पर वर्मा कहते हैं कि "क्या जहां कूड़ा प्लांट नहीं वहां मच्छर और मक्खी नहीं है? हम इससे इनकार नहीं कर रहे हैं कि वहां गंध या दिक्कत नहीं। थोड़ी-बहुत दिक्कत तो होती ही है लेकिन हम हर्बल स्प्रे करवा रहे हैं।"
वास्तव में बसवार के ग्रामीणों का जीवन और शहर की आबोहवा एक दूसरे के विरोध में आ गए हैं। बसवार सड़क के किनारे है और शहर से ज्यादा दूर नहीं है। शहर को स्वच्छ रखने के लिए कचरे का निस्तारण तो होगा ही। अब उस कचड़े की जद में बसवार गांव आ गया है।
गंगा-यमुना के किनारे बसे गांवों और नदियों पर शोध कर रहे डॉ. रमाशंकर सिंह कहते हैं, "सरकार को कचरा निस्तारण का कोई सुसंगत समाधान निकालना चाहिए न कि उन क्षेत्रों को फिर प्रदूषित कर देना चाहिए जो पहले से स्वच्छ इलाके माने जाते थे। ग्रामीणों की आय का एक बड़ा हिस्सा यदि इस प्रदूषण से उत्पन्न असाध्य रोगों की दवाई में चला गया तो गरीबी और बढ़ेगी। नदियों में बढ़ते प्रदूषण के कारण उसमें मछलियां पहले से ही कम होती जा रही हैं, यह नई समस्या उनके जीवन को और कठिन बना देगी। नदी और मानव बस्ती के बीच ऐसे प्लांट बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहे जा सकते हैं। इन्हें किन्हीं निर्जन स्थानों पर लगाया जाना चाहिए और उससे पहले पर्यावरणीय मानकों पर ठीक से सोच विचार करना चाहिए।" 
फिलहाल बसवार का कूड़ा प्लांट कहीं नहीं जा रहा है और वहाँ के निवासियों को इसके साथ जीना होगा। 

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