केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2023-24 के अपने बजट भाषण में इस बात की घोषणा की कि सरकार का उद्देश्य “हरित विकास” का है, जिसे हरित ऊर्जा, जैविक कृषि, गतिशीलता, निर्माण और ऊर्जा उपलब्धता के विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि इससे अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता में कमी आएगी और रोजगार के अवसरों में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी होगी। इस वर्ष ऊर्जा-संक्रमण की अनिवार्यता के प्रति सरकार की ओर से किसी तरह का कोई संकोच नहीं दिखाया गया है। ऐसा पहली बार हुआ है।
आप यह तर्क दे सकते हैं कि यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि ऊर्जा-संक्रमण के लिए 35,000 हजार करोड़ रुपए के बजटीय आवंटन को किस प्रकार खर्च किया जाएगा। लेकिन मेरा यह मानना है कि यह बजट हमें प्रत्यक्षतः कुछ जोखिम से भरा और साहसिक कार्यक्रम उपलब्ध करा रहा है, जिनको साथ-साथ आजमाने से पूरे परिदृश्य में बड़ा बदलाव आ सकता है।
पहला, यह बायोगैस (मवेशियों के खाद के उपयोग से निर्मित और ग्रामीण भारत में पारंपरिक रूप से प्रयुक्त) और इसके उन्नत संस्करण संपीड़ित बायोगैस (जिसे सामान्यतः जैव-संपीड़ित प्राकृतिक गैस या बायो-सीएनजी के नाम से भी जाना जाता है) को एक गति प्रदान करता है।
वित्त मंत्री ने 10,000 करोड़ रुपए के निवेश से समुदाय या समूह-आधारित 300 बायोगैस संयंत्रों और 200 बायो-सीएनजी संयंत्रों को स्थापित करने की आवश्यकता पर जोर दिया है। इनमें 75 बायो-सीएनजी संयंत्र शहरों में बनाए जाएंगे।
उन्होंने यह भी माना है कि स्वच्छ ऊर्जा पर थोपे गए व्यापक करों को युक्तिसंगत बनाने की जरूरत है और इस संभावना के संकेत दिए हैं कि सरकार बायो-सीएनजी के क्रय और विपणन को सुनिश्चित करने के लिए सभी प्राकृतिक और बायोगैस कंपनियों के निर्णयों में आवश्यकतानुसार हस्तक्षेप कर सकती है।
दूसरा, उन्होंने वाहन परिमार्जन नीति (वाहन स्क्रैपिंग पाॅलिसी) के अधीन केंद्र सरकार के पुराने और प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को स्थानांतरित करने के लिए राशि का प्रावधान किया है। और तीसरा, सेप्टिक टैंकों की यान्त्रिक सफाई और सूखे तथा गीले कूड़ों के प्रबंधन पर बजट का विशेष फोकस है।
यदि इन सभी को एक श्रृंखला में जोड़ कर देखें तो यह समझ सकते हैं कि सरकार किस प्रकार चक्रीय अर्थव्यवस्था को क्रियान्वित करने पर विचार कर रही है। बायो-सीएनजी के मुद्दे को ही ले लें।
सरकार के कार्यक्रम “सस्टेनेबल अल्टरनेटिव्स टुवर्ड्स ऑटोमोबाइल ट्रांसपोर्टेशन (एसएटीएटी)” के अधीन ऐसी क्रियाशील योजनाएं हैं,जहां कंपनियां कृषि-अवशिष्टों-मुख्य रूप से चावल के सूखे पुआलों का उपयोग कर रही हैं।
इन्हें पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा शहर के कचरों के साथ बायो-सीएनजी के उत्पादन के लिए जलाया जाता है। उसके बाद इस गैस का उपयोग वाहनों और सिटी बसों के परिचालन के लिए किया जाता है।
ऐसे शहरों में जो ठोस कचरा प्रबंधन में पिछड़ रहे हैं, बायो-सीएनजी कचरा प्रबंधन को एक नया रास्ता दिखाने में सक्षम हैं। हमारे शहरों में कूड़ा फेंकने की जगहें कम होने लगी हैं। ऐसे में एकमात्र विकल्प यही है कि कचरे को कमाई का माध्यम बनाया जाए।
वित्तमंत्री ने अपने भाषण में भी इसी बिंदु पर जोर दिया है। लेकिन बायो-सीएनजी परियोजनाएं ठीक से काम करें, इसके लिए शहरों को कचरों के स्रोतों पर ही पृथक्करण की कला सीखने की आवश्यकता है। बायो-सीएनजी संयंत्रों को उच्चस्तरीय जैविक (या गीले) कचरे की आवश्यकता होती है।
हम जानते हैं कि किसी शहर में पाया जाना वाला 40 से 80 प्रतिशत कचरा गीला होता है, लेकिन यह प्लास्टिक और दूसरे सूखे कचरे से मिश्रित हो जाता है। इसका कारण यह है कि हम उसी स्तर पर इसका पृथक्करण नहीं करते हैं, जहां इसकी आवश्यकता होती है।
इसलिए बायो-सीएनजी संयंत्र या किसी अन्य योजना के लिए जो इन “कचरे” से ऊर्जा-उत्पादन की प्रक्रिया आरंभ कर उनका मूल्य संवर्धित करेगा, शहरों के लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि कचरे का पृथक्करण हरेक परिवार के स्तर पर हो और शहर की सफाई-योजना इस उद्देश्य से बनाई गई हो कि पृथक्करण के बाद गीले कचरे को प्रसंस्करण के लिए उपयुक्त परिवहन की व्यवस्था हो।
यह कार्य असंभव भी नहीं है। इंदौर (जहां भारत का पहला स्वनिर्भर बायो-सीएनजी संयंत्र स्थापित है) ने इस बात को सफलतापूर्वक साबित किया कि सिटी बसों को ईंधन बेचना सफाई प्रबंधन के लिए आर्थिक रूप से खासा लाभकारी है।
बायो-सीएनजी संयंत्रों के उत्पाद खमीरयुक्त जैविक खाद होते हैं, जिन्हें जैविक उर्वरा के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इन बायो-सीएनजी परियोजनाओं को उन्नत चरण पर ले जाना एक चुनौतीपूर्ण काम है।
इनमें सबसे महत्वपूर्ण कंपोस्ट और खमीरयुक्त जैविक खादों के लिए मानकीकरण सुनिश्चित करना है ताकि इन उप उत्पादों का अधिकतम उपयोग किया जा सके। यह उप उत्पाद रसायनिक खादों को दिए जाने वाले अनुदानों को पूरी तरह समाप्त न भी किया जा सके तो कम करना सुनिश्चित अवश्य कर सकते हैं।
सेप्टिक टैंकों की सफाई को लेकर भी बजट में यही निर्देशात्मक संकेत दिखाई देता है। केवल भूमिगत सीवेज के निर्माण पर खर्च करने के बजाए यहां भी कचरे की चक्रीय अर्थव्यवस्था पर बजट का वित्तीय जोर स्पष्ट दृष्टिगत होता है।
मानव मलमूत्र को भी ट्रीटमेन्ट के लिए ले जाया जाता है और गाद को खाद बनाने में दोबारा इस्तेमाल किया जाता है। बजट 2023-24 के अनुसार आगामी वित्तीय वर्ष में प्राकृतिक कृषि के लिए 10,000 ऐसे जैविक-निविष्ट संसाधन केंद्र (बायो-इनपुट रिसोर्स सेंटर) बनाने का उद्देश्य है।
बजट में वैकल्पिक उर्वरा और “रासायनिक उर्वरा के संतुलित उपयोग” का भी प्रावधान है, लेकिन जहां तक गैर-रासायनिक खादों के समान मात्रा में उपयोग की बात है तो यह बजट इस बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहता है।
इसी प्रकार, वायु प्रदूषण, लोहा और इस्पात क्षेत्र को कार्बन रहित (डीकार्बनाइज) करने की दृष्टि से वाहन स्क्रैपिंग पाॅलिसी के बड़े लाभ हैं। इसे सोचने व समझने के रूप में योजनाबद्ध करने की आवश्यकता है ताकि सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहन जैसे की व्यवसायिक ट्रकों को चरणबद्ध तरीके से हटाया जा सके और उन्हें अधिक स्वच्छ विकल्पों के साथ बदला जा सके।
आज भारत स्टेज (बीएस) lV मानकीकरण के साथ वाहनों का उत्पादन किये जाने के पीछे भी यही उद्देश्य है। इस योजना का एक अतिरिक्त लाभ यह है कि परित्यक्त वाहनों के कबाड़ लोहे के उपयोग से इस्पात-क्षेत्र में कार्बन-उत्सर्जन की मात्रा को कम किया जा सकता है। यह एक बड़ा लाभ है और इसके महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम सामने आने की आशा है।