भारत के कई राज्यों और शहरों में जल संकट की समस्या कितनी विकट है यह बात किसी से छुपी नहीं है। चेन्नई जैसे शहर पहले ही डे जीरो जैसे हालात देखने को मजबूर हैं। ऐसे में अपशिष्ट जल को दोबारा इस्तेमाल लायक बनाना साफ पानी पर बढ़ते दबाव और वेस्ट वाटर की समस्या को काफी हद तक हल कर सकता है। इसी को देखते हुए हाल ही में भारतीय वैज्ञानिकों ने ऑक्सीकरण पर आधारित एक नई और उन्नत तकनीक का ईजाद किया है जो अपशिष्ट जल को दोबारा इस्तेमाल लायक बना सकती है। यह तकनीक बेहतर होने के साथ-साथ किफायती भी है।
यह तकनीक यूवी-फोटोकैटलिसिस का उपयोग करती है जोकि घरेलु सीवेज के साथ-साथ अत्यधिक प्रदूषणकारी औद्योगिक अपशिष्ट जल को भी साफ कर सकती है और पुनः उपयोग के लायक बना सकती है।
यदि भारत में वेस्ट वाटर और उसके ट्रीटमेंट सम्बन्धी आंकड़ों को देखें तो उनमें अभी भी काफी बड़ा अंतर है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा मार्च 2021 में जारी एक रिपोर्ट से पता चला है कि देश में हर दिन करीब 72,368 एमएलडी वेस्ट वाटर पैदा होता है लेकिन भारत की कुल वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट क्षमता केवल 31,841 एमएलडी है। हालांकि देश में हर रोज केवल 20,236 एमएलडी वेस्टवाटर को साफ किया जाता है। इसका मतलब है कि हर दिन करीब 72 फीसदी (52,132 एमएलडी) वेस्ट वाटर ऐसे ही खुले में छोड़ दिया जाता है, जो पर्यावरण को दूषित कर रहा है।
बढ़ते जल संकट को देखते हुए यह जरुरी हो जाता है कि उद्योग अपने वेस्ट वाटर का दोबारा इस्तेमाल करें, जिससे साफ पानी पर बढ़ते दबाव को कम किया जा सके। हालांकि इस काम के लिए वर्तमान में जिन बायोलॉजिकल ट्रीटमेंट सिस्टमस का उपयोग किया जा रहा है, वो बढ़ते दबाव को झेल पाने में असमर्थ हैं।
इसके साथ-साथ इस काम के लिए जिन आरओ और मल्टी इफेक्ट इवेपोरेटर्स (एमईई) का उपयोग किया जा रहा है। जिनके रखरखाव की लागत और कार्बन फुटप्रिंट काफी ज्यादा है, जो उन्हें पैसे और पर्यावरण के नजरिए से काफी महंगा बना देता है। ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट के लिए नए दृष्टिकोण और उन्नत तकनीकों को अपनाया जाए।
इस नई और उन्नत तकनीक का ईजाद नई दिल्ली के द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट ने भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के सहयोग से किया है जिसे द एडवांस्ड ऑक्सीडेशन टेक्नोलॉजी या टेडॉक्स नाम दिया गया है।
यह तकनीक खर्च को 25 से 40 फीसदी तक कर सकती है कम
इस तकनीक की मदद से बायोलॉजिकल ट्रीटमेंट सिस्टमस, आरओ और एमईई पर बढ़ती निर्भरता और बोझ को कम किया जा सकता है। यह तकनीक जीरो लिक्विड डिस्चार्ज के लक्ष्य को प्राप्त करने में मददगार हो सकती है। देखा जाए तो यह तकनीक औद्योगिक अपशिष्ट जल को साफ करने के परिचालन सम्बन्धी खर्चों को 30 से 40 फीसदी और जीरो लिक्विड डिस्चार्ज पर होने वाले पूंजीगत खर्चों को 25 से 30 फीसदी तक कम कर सकती है।
सेकेंडरी ट्रीटमेंट स्टेज में यूवी-फोटोकैटलिसिस को एक उन्नत ऑक्सीकरण प्रक्रिया (एओपी) के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जो लक्षित प्रदूषकों के ऑक्सीडेटिव क्षरण और खनिजकरण में मदद करती है। यह जैव प्रदूषकों को रोक सकती है। इसके कारण आरओ सिस्टम के जीवन काल और दक्षता में सुधार आ जाता है। यही नहीं यह तकनीक केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (सीओडी), बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी), घुले जीवों, रोगजनकों, कार्बनिक प्रदूषकों (पीओपी) और प्रदूषण के बहुत छोटे कणों को भी दूर कर सकती है।
इस टेडॉक्स तकनीक को इस तरह बनाया गया है कि इसे मौजूदा ट्रीटमेंट प्लांट के साथ जोड़ा और उसमें इस्तेमाल किया जा सकता है। गौरतलब है कि इस तकनीक को भारत सरकार की 'नमामि गंगे' परियोजना के तहत पहचाने औद्योगिक क्षेत्रों में भी पायलट परीक्षण और विकास योजना के लिए चुना गया है। इस प्रौद्योगिकियों की परिपक्वता का आकलन करने के लिए बनाए प्रौद्योगिकी तत्परता स्तर (टीआरएल) 7 पर रखा गया है। 1 अप्रैल 2021 को इसे ट्रेडमार्क दिया जा चुका है। यह तकनीक वर्तमान में व्यावसायिक उपयोग के लिए तैयार है।