नाभिकीय ऊर्जा के चैंपियन फिनलैंड का दावा है कि उसने इससे जुड़े एक बड़े मुद्दे यानी रेडियोधर्मी नाभिकीय कचरे के सुरक्षित प्रबंधन का रास्ता निकाल लिया है। वह इसे कचरे को जमीन के अंदर ओंकेलो नाम की प्रणाली में संग्रहित करेगा।
फिनिश भाषा में ओंकेलो का मतलब एक गड्ढा है, जिसे पांच सौ मीटर गहराई में भूमिगत निपटान प्रणाली के तौर पर स्थायी रूप से इस्तेमाल किए गए परमाणु ईंधन को संग्रहीत करने के लिए डिजाइन किया गया है। यह एक गहरा भूवैज्ञानिक भंडार है, जो आमतौर पर एक स्थिर चट्टान वाली जगहों में सतह के नीचे कई सौ मीटर या उससे अधिक की गहराई पर बनाया जाता है।
देश के स्वामित्व वाली कंपनी और परियोजना में योगदानकर्ताओं में से एक फिनलैंड लिमिटेड के वीटीटी तकनीकी अनुसंधान केंद्र, के मुताबिक, ओंकेलो की पूरी प्रणाली की निगरानी करने के लिए इसमें अधिकतम पांच सौ सेंसर लगाए गए हैं।
वीटीटी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ आर्टो लाइकारी के मुताबिक, ‘इसकी निगरानी यह सुनिश्चित करती है कि ओंकेलो भंडार, बाहरी दुनिया को नाभिकीय ईंधन के कचरे से सुरक्षित रखेगा।’ देश के स्वामित्व वाली कंपनी की सहयोगी व एक फिनिश परमाणु कचरा प्रबंधन संगठन पोसिवा ने ओंकेलो के लिए परिचालन लाइसेंस जमा कर दिया है और उसके स्वीकृत होने की प्रतीक्षा कर रहा है।
वीटीटी की परियोजना निदेशक एरिका हॉल्ट ने डाउन टू अर्थ को बताया कि पोसिवा अगले साल इस पूरी निपटान प्रक्रिया का अंतिम परीक्षण करेगा, हालांकि इसमें रेडियोधर्मी तत्व शामिल नहीं होंगे। माना जा रहा है कि 2024 से यह काम करना शुरू कर देगा।
नाभिकीय कचरे की समस्या
पिछले कई सालों से नाभिकीय उद्योग, कचरे की समस्या का समाधान खोजने की कोशिश कर रहा है। ये कचरा नाभिकीय जीवन-चक्र के दौरान विभिन्न चरणों में पैदा होता है, जैसे- यूरेनियम अयस्क के खनन से, यूरेनियम ईंधन के उत्पादन से और रिएक्टर में बिजली पैदा करने से।
यह कचरा कई घंटों, कई महीनों और यहां तक कि सैकड़ों -हजारों साल तक रेडियोधर्मी बना रह सकता है।
रेडियोधर्मिता की सीमा के आधार पर, नाभिकीय कचरे को निम्न और मध्यवर्ती स्तर के कचरे और उच्च स्तर के कचरे के रूप में बांटा जाता है।
लगभग 97 प्रतिशत कचरा या तो निम्न या फिर मध्यवर्ती स्तर का कचरा है। बाकी उच्च-स्तर का कचरा है जैसे कि इस्तेमाल किए गए यूरेनियम ईंधन। अन्तरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण के मुताबिक, एक हजार मिलियन वाट का एक प्लांट हर साल उच्च-स्तर का लगभग तीस टन नाभिकीय कचरा निकालता है।
भौतिक विज्ञानी एमवी रमना ने कहा, ‘ यहां तक कि निम्न स्तर का कचरा भी लोगों और दूसरे सजीवों के लिए हानिकारक होगा, जब तक कि वह रेडियोधर्मी बना रहता है।’
समस्या से निपटने के लिए क्या कर रहे देश ?
कुछ देश कचरे के उत्पाद न की जगह पर ही उसका भंडारण कर रहे हैं। हालांकि इससे रेडियोधर्मी रिसाव का खतरा होता है। उदाहरण के लिए - संयुक्त राज्य अमेरिका में, इस्तेमाल किए जा चुके ईंधन को एक कंक्रीट और स्टील के कंटेनर में संग्रहित किया जाता है जिसे सूखा पीपा कहा जाता है।
भारत और कुछ दूसरे देश इस्तेमाल किए गए 97-98 फीसद नाभिकीय ईंधन के कचरे से प्लूटोनियम और यूरेनियम निकालने के लिए इसे पुनःप्रॉसेस करते हैं। ये देेश इससे सीजियम, स्ट्रोंटियम और रूथेनियम जैसे अन्य तत्वों को भी पुनः निकालते हैं, जो कैंसर के उपचार और नेत्र कैंसर चिकित्सा में काम आते हैं।
बचे हुए एक से तीन फीसदी नाभिकीय ईंधन के कचरे को भंडारण में संग्रहीत किया जाता है। भारत कचरे को कांच के साथ मिलाकर स्थिर भी करता है, जिसे भंडारण की सुविधाओं में निगरानी में रखा जाता है।
हालांकि इस दृष्टिकोण के साथ भी दिक्कत है। रमना के मुताबिक, ‘प्लूटोनियम और यूरेनियम के अलावा इस्तेमाल किए गए सारे नाभिकीय ईंधनों में मौजूद रेडियोधर्मी कचरे जल्दी या कुछ समय के बाद पर्यावरण में प्रवेश करते हैं और हमें नुकसान पहुंचाते हैं।’ वह आगे बताते है- ‘प्लूटोनियम और यूरेनियम भी दूसरे रिएक्टरों में पुन- इस्तेमाल किए जाते हें जो बाद में रेडियोधर्मी कचरे में बदलते हैं।
यही वजह है कि फिनलैंड, कनाडा, फ्रांस और स्वीडन जैसे देश इस्तेमाल किए खर्च किए गए नाभिकीय ईंधन के कचरे से निपटने के लिए गहरे भूवैज्ञानिक भंडारों की ओर देख रहे हैं।
फिनलैंड ऐसा पहला देश होगा, जो ओंकालों में नाभिकीय कचरे को स्थायी तौर पर संग्रहीत करेगा। उसकी योजना नाभिकीय ईंधन के कचरे को जंग-प्रतिरोधी तांबे के कनस्तरों में बंद करना है। जो बदले में, पानी को अवशोषित करने वाली मिट्टी की एक और परत में समाहित हो जाता है। इसके बाद भी बचे हुए कचरे को भूमिगत सुरंग में दबा दिया जाता है।
वीटीटी की परियोजना निदेशक एरिका हॉल्ट ने कहा कि फिनलैंड दुनिया भर के देशों और अपने सहयोगियों के साथ इस अनुभव को साझा करेगा। वह कहती हैं- ‘हालांकि हर देश ओर उसके कार्यक्रम को अपने लिए नतीजे खुद ही तलाशने होंगे। हम नाभिकीय ऊर्जा और उसके कचरे के प्रबंधन के लिए पूरी दुनिया के साथ मिलकर काम करेंगे और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन लक्ष्यों को हासिल करेंगे।
क्या सुरक्षित है फिनलैंड का तरीका ?
परियोजना से जुड़े विशेषज्ञों ने कहा कि चालीस सालों के सैद्धांतिक और प्रयोगशाला- आधारित शोधों के बाद यह पाया गया है कि भूगर्भ भंडारण सुरक्षित हैं।
हॉल्ट ने विस्तार से बताया कि मिट्टी के नीचे की चट्टान, रेडियोधर्मी स्रावों से पर्यावरण जैसे जल निकायों और वायु को बचाने के लिए प्राकृतिक अवरोध तैयार करती है।
मिट्टी और तांबे का उपयोग यह सुनिश्चित करने के लिए एक सुरक्षात्मक परत प्रदान करता है कि भूकंप जैसी किसी भी चरम स्थिति के पैदा होने पर भी कोई स्राव न हो।
हालांकि रमना तर्क देते हैं कि सुरक्षा से जुड़े सैद्धांतिक-शोध पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं हैं। उनके मुताबिक, जलवायु-परिवर्तन सहित विभिन्न दीर्घकालिक प्राकृतिक प्रक्रियाओं और लंबी अवधि में मानव-व्यवहार की अप्रत्याशितता से उत्पन्न होने वाली अनिश्चितताएं इसमें बाधा बन सकती हैं।’
वह आगे कहते हैं कि इसके अलावा डिजाइन के नाकाम होने से भी ओंकेलो की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। जैसे कि कुछ वैज्ञानिकों को डर है कि तांबे का कनस्तर टूट सकता है या उसमें दरार आ सकती है।
फिनलैंड में तांबे का चुनाव इसलिए किया गया क्योंकि इसका क्षरण धीमे होता है। हालांकि स्टॉकहोम में केटीएच रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के केमिस्ट, पीटर स्जाकालोस इसे लेकर निश्चिंत नहीं हैं।
2007 के एक अध्ययन में स्जाकालोस और उनकी टीम ने पाया कि शुद्ध, ऑक्सीजन-मुक्त पानी में तांबे का क्षरण हो सकता है। उन्होंने साइंस से कहा,- ‘यह केवल समय की बात है इसमें दशकों लग सकते हैं या फिर सदियां, जिनमें ओंकेलो में अमिश्रित तांबे के कनस्तरों में क्षरण होना शुरू हो सकता है।’
नाभिकीय कचरे के निस्तारण के एक बड़े पायलट प्लांट में हुई एक दुर्घटना, भी चिंता का विषय है। जिसमें 14 फरवरी 2014 को रेडियोधर्मी तत्व जैसे कि एमरिकियम और प्लूटोनियम, भूमिगत भंडारण से रिसाव कर बाहर निकल गए थे।
रमना कहते हैं- ‘उस भूमि भंडारण के बनने के केवल दो दशक बाद ही वह दुर्घटना हुई थी, फिर यह कैसे माना सकता है कि ओंकेलो सदियों तक सुरक्षित तौर पर काम करते रहेंगे ?