समुद्रों में बढ़ता कचरा एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है। हालांकि इसके बावजूद इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा। समुद्र से जुड़े 192 देशों से निकला करीब 80 लाख टन प्लास्टिक कचरा हर साल समुद्रों में समा रहा है।
यह समस्या किसी एक की नहीं बल्कि सभी देशों की है। भारत जिसकी तटरेखा 7000 किलोमीटर से भी ज्यादा लम्बी है, वो इस खतरे को नियंत्रित करने में एक अहम भूमिका निभा सकता है। यह बातें सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कल संपन्न हुई दो दिवसीय राष्ट्रीय परामर्श कार्यशाला में अपने भाषण के दौरान कही हैं। इस राष्ट्रीय परामर्श कार्यशाला का आयोजन सीएसई द्वारा किया गया था।
गौरतलब है कि सीएसई ने इस कार्यशाला के दौरान भारत में तटीय शहरों के बीच एक राष्ट्रीय गठबंधन की भी शुरुआत की है, जो देश भर में बढ़ते समुद्री कचरे पर ध्यान केंद्रित करेगा।
अंतराष्ट्रीय शोधों से पता चला है कि समुद्रों में पहुंचने वाला करीब 80 फीसदी कचरा जमीन पर ठोस कचरे के कुप्रबंधन से जुड़ा है जो भूमि से जुड़े समुद्री मार्गों के जरिए समुद्र तल तक पहुंच रहा है। वहीं बाकी 20 फीसदी कचरा तटीय बस्तियों से समुद्रों में जा रहा है।
शोधकर्ताओं की मानें तो समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में मिलने वाले इस कचरे का करीब 90 फीसदी हिस्सा प्लास्टिक होता है। इस बारे में सुनीता नारायण का कहना है कि वैश्विक स्तर पर हर वर्ष करीब 46 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है, इसमें से करीब 35.3 करोड़ टन प्लास्टिक कचरे के रूप वापस आ रहा है, जबकि करीब 80 लाख टन (2.26 फीसदी) कचरा समुद्र को दूषित कर रहा है।
इस बारे में आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट “ग्लोबल प्लास्टिक आउटलुक: पालिसी सिनेरियोज टू 2060” से पता चला है कि 2060 तक हर साल पैदा होने वाला यह प्लास्टिक कचरा अब से करीब तीन गुना बढ़ जाएगा। जो अगले 37 वर्षों में बढ़कर 101.4 करोड़ टन से ज्यादा होगा।
भारतीय समुद्री तट रेखा के हर किलोमीटर में पसरा है 0.98 मीट्रिक टन कचरा
इस बारे में सीएसई की सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट यूनिट के कार्यक्रम निदेशक अतीन बिस्वास का कहना है कि, ''दक्षिण एशियाई समुद्रों में कचरे की मात्रा विशेष रूप से चिंता का विषय है। अनुमान बताते हैं कि करीब 15,434 टन प्लास्टिक कचरा हर रोज दक्षिण एशियाई समुद्रों में जा रहा है। यदि एक साल में इसका हिसाब लगाएं तो वो 56.3 लाख टन से भी ज्यादा बैठता है।"
सीएसई से जुड़े शोधकर्ता सिद्धार्थ घनश्याम सिंह ने इस बारे में डाउन टू अर्थ को बताया कि भारत की समुद्र तट रेखा के हर किलोमीटर भाग में 0.98 मीट्रिक टन कचरा पसरा है, जो प्रति वर्ग मीटर करीब 0.012 किलोग्राम है।
सीएसई से जुड़े शोधकर्ता सिद्धार्थ घनश्याम सिंह ने इस बारे में डाउन टू अर्थ को बताया कि भारत की समुद्र तट रेखा के हर किलोमीटर भाग में 0.98 मीट्रिक टन कचरा पसरा है, जो प्रति वर्ग मीटर करीब 0.012 किलोग्राम है। उनका कहना है कि भारत में सहायक नदियां ऐसे मार्ग है जो 15 से 20 फीसदी प्लास्टिक कचरे को समुद्रों में डाल रही हैं।
वहीं यदि भारत की कुल समुद्री तट रेखा को देखें तो वो 7,517 किलोमीटर लम्बी है जो देश के नौ राज्यों के 66 तटीय जिलों से जुड़ी है। यह क्षेत्र करीब 25 करोड़ लोगों का घर है। इस तटरेखा के किनारे 486 शहर हैं जिनमें से 36 क्लास-I शहर है जिनकी आबादी एक लाख से ज्यादा है।
वहीं यदि भारत की कुल समुद्री तट रेखा को देखें तो वो 7,517 किलोमीटर लम्बी है जो देश के नौ राज्यों के 66 तटीय जिलों से जुड़ी है। यह क्षेत्र करीब 25 करोड़ लोगों का घर है। इस तटरेखा के किनारे 486 शहर हैं जिनमें से 36 क्लास शहर है जिनकी आबादी एक लाख से ज्यादा है। इतना ही नहीं यह 12 प्रमुख और 185 छोटे बंदरगाहों की भी मेजबानी करते हैं।
आंकड़ों की मानें तो भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश है जहां मछली पकड़ने की करीब 2.5 लाख नौकाएं हैं। इतना ही नहीं देश में मछुआरों के 3,600 गांव हैं जहां 40 लाख मछुआरे बसते हैं। देश की यह लम्बी समुद्री तट रेखा जैवविविधता से भी समृद्ध है जहां करीब 4,120 किलोमीटर में मैंग्रोव के जंगल हैं।
दुनिया भर में समुद्री कचरे से जुड़ी एक और बड़ी समस्या समुद्री जाल, फिशिंग लाइन और हुक हैं। जो या तो मछली पकड़ने के दौरान समुद्र में खो जाते हैं या खराब होने पर ऐसे ही फेंक दिए जाते हैं।
यदि भारत की बात करें तो देश में मछली पकड़ने के इस सामान की करीब 1.74 लाख इकाइयां चालू हालत में हैं इनमें से 154,008 इकाइयां गिलनेट/ड्रिफ्टनेट से जुड़ी हैं जबकि 7,285 इकाइयां जाल बनाती हैं। बाकी फिशिंग नेट के निर्माण में लगी हैं। यदि खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के आंकड़ों की मानें तो देश में हर साल 15,276 टन गिलनेट खप जाता है।
समस्या से निपटने के लिए ठोस कार्रवाई की है दरकार
इस बारे में अतीन ने बताया कि, “2021 में समुद्र तटों और समुद्र तल से 58,000 किलोग्राम घोस्ट नेट बरामद किया गया था। यह खतरा कितना बड़ा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक मादा कछुए द्वारा दिए एक हजार अंडों में से केवल 10 ही वयस्क हो पाते हैं, जिसके लिए यह बढ़ता समुद्री कचरा और घोस्ट नेट जिम्मेवार है।
समुद्री कचरे के सबसे आम स्रोतों में से एक पर्यटक भी हैं जो तटों पर कचरा डाल रहे हैं। इनमें से अधिकांश कचरा प्लास्टिक, पॉलिस्ट्रीन, कटलरी, कैरी बैग, सिगरेट बट्स जैसे प्लास्टिक से बने उत्पाद होते हैं। यह वो कचरा है जिसे या तो एकत्र नहीं किया जाता या फिर उनका उचित प्रबंधन नहीं होता और आखिरकार वो नहरों, नदियों, नालियों के जरिए महासागरों में समां जाते हैं।
हैरानी की बात है कि भारत में समुद्री कचरे में बड़ी मात्रा में जूते-चप्पल से जुड़ा कचरा भी मिल रहा है। देखा जाए तो इस कचरे में बड़ी मात्रा में मछली पकड़ने का सामान, बाढ़ का पानी, सीवेज, ऑटोमोबाइल और तटों पर पैदा हो रहे औद्योगिक अपशिष्ट के साथ जहाजों को तोड़ने वाले यार्ड से निकला कचरा शामिल है।
ऐसे में अतीन बिस्वास का कहना है कि, "समस्या की जटिलता और पैमाने को देखते हुए स्थानीय सरकारों को अपनी योजनाओं में समुद्री कचरे पर प्राथमिकता से ध्यान देने की जरूरत है। इस राष्ट्रीय कार्यशाला में जिन प्रमुख मुद्दों की पहचान की है, उनमें पर्याप्त वैज्ञानिक आंकड़ों का आभाव है। दूसरा इस कचरे के कारणों से जुड़ी संस्थाओं के बीच नीति और व्यवहार में तालमेल की कमी है। साथ ही एक व्यापक संचार रणनीति में निवेश की आवश्यकता है जो नागरिकों, मछुआरा समुदायों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों को एक साथ प्रभावी ढंग से जोड़ सके।“
वहीं सिद्धार्थ का कहना है कि चूंकि यह समस्या जमीन पर पैदा हुए प्लास्टिक कचरे और उसके प्रबंधन से जुड़ी है। ऐसे में सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध करने के साथ इसके निर्माण में लगे उत्पादकों की जिम्मेवारी तय करने के लिए ईपीआर जैसी नीतियों को सख्ती लागू और अमल करने की जरूरत है।