देश में जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है, उसके साथ पानी की मांग भी दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। पानी की यह बढ़ती खपत बड़ी मात्रा में दूषित जल पैदा कर रही है, जिसे बड़े पैमाने पर ऐसे ही नदियों में छोड़ा जा रहा है। यदि भारत में पैदा हो रहे सीवेज और उसकी शोधन क्षमता के आधार पर देखें तो 2050 तक देश में शोधित पानी की कुल मात्रा 3,517 करोड़ क्यूबिक मीटर से ज्यादा रहने का अनुमान है। ऐसे में यदि इसका पुनः उपयोग किया जाए तो यह जो कृषि के लिए वरदान साबित हो सकती है।
हालांकि जहां एक तरफ यह बढ़ता गन्दा पानी अपने आप में एक बड़ी समस्या है, लेकिन साथ ही इसके पुन: उपयोग की भी अपार संभावनाएं मौजूद हैं। देखा जाए तो इसके पुनः उपयोग से न केवल कृषि को जबरदस्त फायदा होगा। साथ ही यह पर्यावरण और जलवायु के दृष्टिकोण से भी फायदेमंद होगा।
यह जानकारी मंगलवार को काउंसिल आन एनर्जी, इनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा जारी नई रिपोर्ट ‘रियूज आफ ट्रीटेड वेस्टवाटर इन इंडिया’ में सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक इस सीवेज के उपचार से जितना पानी मिलेगा, उससे दिल्ली से भी 26 गुना बड़े क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती है। यह न केवल सिंचाई के लिए भूजल पर बढ़ते दबाव को कम करेगी साथ ही इससे कृषि पैदावार में भी वृद्धि होगी।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रल बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा 2021 में जारी आंकड़ों को देखें तो देश में शहरी क्षेत्रों से हर दिन करीब 7,236.8 करोड़ लीटर सीवेज पैदा हो रहा है। उसमें से केवल 2,023.6 करोड़ लीटर को ही ट्रीट किया जा रहा है।
देश में सीवेज ट्रीटमेंट की कुल क्षमता 44 फीसदी है, लेकिन विडंबना देखिए की देश में कुल सीवेज का केवल 28 फीसदी ही ट्रीट हो रहा है, जबकि बाकी गंदे पानी को ऐसे ही नदियों, झीलों और जल स्रोतों में डाला जा रहा है, जो उनके भी प्रदूषण का कारण बन रहा है। यदि देश के अधिकांश राज्यों को देखें तो उनकी सीवेज उपचार क्षमता, पैदा हो रहे सीवेज के 50 फीसदी से भी कम है।
उत्सर्जन में की जा सकती थी 13 लाख टन की कमी
रिपोर्ट के मुताबिक यदि इस दूषित जल का दोबारा उपयोग किया जाए तो इससे 13.8 लाख हेक्टेयर यानी दिल्ली से नौ गुना बड़े क्षेत्र में सिंचाई की जा सकती है। इसकी वजह से करीब 2.8 करोड़ मीट्रिक टन पैदावार होती, जिससे करीब 96,600 करोड़ रुपए का फायदा होता। इतना ही नहीं रिपोर्ट के अनुसार 2021 में उपलब्ध दूषित जल से करीब 6,280 मीट्रिक टन पोषक तत्व प्राप्त किए जा सकते थे, जिनसे पांच करोड़ रुपए की बचत होती।
इससे सिंचाई के लिए उपयोग किए जा रहे भूजल में 3.5 फीसदी की बचत की जा सकती थी। जो भूजल पर बढ़ते दबाव को कम करने में मददगार होती। इतना ही नहीं आंकड़े दर्शाते हैं कि इस दूषित पानी के उपयोग से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 10 लाख टन की कमी की जा सकती थी, जो जलवायु के दृष्टिकोण से भी फायदेमंद होती। साथ ही इसकी वजह से उर्वरकों के उपयोग में कमी आ जाती, जिससे भी उत्सर्जन में तीन लाख टन की कमी आती।
रिपोर्ट के अनुसार भारत में अगर चुनिंदा क्षेत्रों में इस उपचारित दूषित जल को बिकने की व्यवस्था हो तो इससे 63 करोड़ रुपए का फायदा होगा जो 2050 तक बढ़कर 190 करोड़ रुपए पर पहुंच जाएगा।
सीईईडब्ल्यू द्वारा किए विश्लेषण से पता चला है कि भारत के केवल दस राज्यों में ही दूषित जल के शोधन और उसके पुन: उपयोग की नीतियां मौजूद हैं। इनमें से अधिकांश नीतियों में इस अपशिष्ट जल के उपयोगकर्ताओं को प्रोत्साहन नहीं दिया गया है। साथ ही इसके दोबारा उपयोग के लिए गुणवत्ता मानकों को परिभाषित किया गया है। ऐसे में इस पर गंभीरता से ध्यान देना जरूरी है।
भारत में बढ़ते जल संकट के बारे में सीईईडब्ल्यू के प्रोग्राम लीड नितिन बस्सी का कहना है कि, “भारत में हर वर्ष प्रति व्यक्ति 1,486 क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध है, जो दर्शाता है कि भारत में पानी की कमी है। ऐसे में इस गंदे पानी का शोधन के बाद दोबारा उपयोग बढ़ाने से साफ पानी के स्रोतों पर बढ़ते दबाव को कम करने में मदद मिलेगी। साथ ही इसके अन्य लाभ व सकारात्मक परिणाम भी सामने आएंगे।" उनके अनुसार ट्रीटेड वेस्ट वाटर की सिंचाई के लिए उपयोग करने की अपार संभावनाएं मौजूद हैं।
गंभीर समस्या बन चुका है बढ़ता जलसंकट
रिपोर्ट के मुताबिक 2025 तक देश में 15 प्रमुख नदी घाटियों में से 11 को जल संकट का सामना करना होगा। ऐसे में पानी की मांग और पूर्ति में मौजूद अंतर को भरने के लिए वैकल्पिक जल स्रोतों को खोजना जरूरी है। आंकड़े दर्शाते हैं कि देश में सीवेज की बड़ी मात्रा को ऐसे ही जल स्रोतों में डाला जा रहा है जो गंभीर समस्याएं पैदा कर रहा है।
ऐसे में सीईईडब्ल्यू द्वारा जारी इस रिपोर्ट का सुझाव है कि अपशिष्ट जल को भारत के जल संसाधनों का अभिन्न हिस्सा बनाना चाहिए। साथ ही रिपोर्ट में इस उपचारित अपशिष्ट जल को जल प्रबंधन से जुड़ी सभी नीतियों, योजनाओं और नियमों में शामिल करने की सिफारिश की गई है। इतना ही नहीं दूषित जल के सुरक्षित निर्वहन और पुनः उपयोग दोनों के लिए जल गुणवत्ता मानकों को बेहतर तरीके से परिभाषित करने की भी आवश्यकता है। इसके अलावा शोधित दूषित जल के पुनः उपयोग के लिए शहरी स्थानीय निकायों की भूमिका और जिम्मेदारी भी तय करने की जरूरत है।