भारत समेत दुनियाभर के शहर तेजी से गैस चैंबरों में तब्दील हो रहे हैं। जब भी शहरों में ऐसी स्थिति बनती है तो सबका ध्यान वायु प्रदूषण के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 और पीएम10 पर ठहर जाता है। इसके बाद इन कणों पर रोक लगाने की मांग उठती है। सरकारें आननफानन में हस्तक्षेप करती है लेकिन इस संबंध में उठाए गए तमाम कदम शायद ही वायु प्रदूषण पर रोक लगाने में सफल होते हैं। वायु प्रदूषण की गंभीरता को देखते हुए ही संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान लोकसभा में इस पर विस्तृत चर्चा हुई।
वायु प्रदूषण पर होने वाली तमाम बहसें पीएम10 और पीएम 2.5 तक की सिमटकर रह जाती हैं। इन बहसों में एक महत्वपूर्ण और बेहद खतरनाक कण को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिसे पीएम1 कहा जाता है। कई अध्ययन यह बता चुके हैं कि हवा में 2.5 माइक्रोन व्यास वाले बेहद सूक्ष्म व महीन प्रदूषक कण और 10 माइक्रोन व्यास वाले प्रदूषक कण पीएम10 का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके ठोस सबूत भी मौजूद हैं। लेकिन पीएम2.5 से भी काफी सूक्ष्म पीएम1 के बारे में अभी जानकारी काफी सीमित है।
यह बात भी स्पष्ट है कि दिल और सांस संबंधी रोगों के लिए पीएम10 की अपेक्षा पीएम2.5 का ज्यादा दुष्प्रभाव होता है। पीएम 2.5 प्रदूषक पर यह लेबल लग चुका है कि वह स्वास्थ्य का सबसे बड़ा दुश्मन है। पीएम2.5 के कारण 2013 में दुनिया भर में 29 लाख मौतें और 6.97 करोड़ लोग इस तरह से बीमार या विकलांग हुए, जिससे उनके जीवन के कुछ वर्ष कम हो गए। कई अध्ययनों ने पीएम 2.5 और हृदय, श्वसन संबंधी बीमारियों, नवजात शिशुओं की खराब हेल्थ और अस्पताल आने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोतरी के बीच संबंध की स्पष्ट पुष्टि की है। पीएम 2.5 से ज्यादा खतरनाक समझे जाने वाले पीएम 1 पर अब तक ऐसा विस्तृत अध्ययन नहीं हुआ है। पीएम2.5 इंसान के बाल की मोटाई की तुलना में लगभग 30 गुना महीन है जबकि पीएम 1 इंसान की बाल की तुलना में 70 गुना अधिक महीन है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पीएम 1 की िनगरानी रोजाना नहीं की जाती। वहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी इन अति सूक्ष्म कणों के लिए स्वीकार्य मानक परिभाषित नहीं किया है। संयुक्त राज्य अमेरिका पर्यावरण संरक्षण एजेंसी और भारत का केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी इनके मानकों को निर्धारित करने में सक्षम नहीं हो सका है।
स्वास्थ्य पर प्रभाव
वैज्ञानिक मानते हैं कि कण जितना महीने होगा, नुकसान उतना ही अधिक होगा। पीएम2.5 आपके फेफड़ों तक पहुंच सकता है जबकि पीएम 1 आपके रक्त के जरिए शरीर में प्रवेश कर सकता है। पीएम 1 के प्राथमिक स्रोत वाहन और औद्योगिक उत्सर्जन हैं। स्वास्थ्य और इसका प्रभाव और इसकी विषाक्तता पर दुनिया भर के वैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किया जा रहा है। वर्ष 2017 में लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ जर्नल में पीएम 1 के स्वास्थ्य प्रभाव पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया गया है। यह अध्ययन चीन के 26 शहरों में प्रदूषण और 28 बड़े अस्पतालों में मरीजों के जुटाए गए आंकड़ों व विश्लेषण पर आधारित था। अध्ययन में यह देखा गया था कि कैसे पीएम1 ने देश के 26 शहरों में अस्पताल में आपात भर्ती में वृद्धि की। पीएम1 और पीएम2.5 के एक्सपोजर में वृद्धि और अस्पताल में इमरजेंसी भर्ती के बीच अहम संबंध था। पीएम2.5 के अधिकांश स्वास्थ्य प्रभाव पीएम 1 से आए थे। पीएम 1 और पीएम 2.5 का हानिकारक प्रभाव पुरुषों और वयस्कों की तुलना में महिलाओं और बच्चों में अधिक पाया गया। अस्पताल में इमरजेंसी भर्ती में पीएम1 और पीएम2.5 का योगदान क्रमश: 4. 47 और 5.05 प्रतिशत था।
मौजूदा शोध बताते हैं कि कण का आकार प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है। छोटे कण, विशेष रूप से पीएम 1 और बहुत ही बारीक (अल्ट्राफाइन) कण, जो सांस नली तक आसानी से पहुंच सकते हैं, फेफड़ों के पैरेन्काइमा (बाहरी सतह पर पाया जाने वाला एक पदार्थ) में जमा होने की अधिक संभावना रखते हैं। इन कणों का पृष्ठीय क्षेत्रफल और आयतन अनुपात अधिक होता है, जिससे तनाव और सूजन को बढ़ावा मिलता है। पीएम 1 में मानव गतिविधियों से होने वाले उत्सर्जन के कारण अधिक विषाक्त पदार्थ भी शामिल हो सकते हैं, जिनमें धातुएं भी शामिल हैं। ये फेफड़ों की चोट का कारण बन सकते हैं और यहां तक कि जीन की क्षति और कैंसर का कारण बन सकते हैं।
भारत को करनी चाहिए निगरानी
भारत को पीएम1 की निगरानी के लिए कमर कसनी चाहिए। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 2009 में पीएम1 के स्रोत का पता लगाने के लिए एक अध्ययन का संचालन किया था। उसी वक्त दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरमेंटल साइंस द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन से पता चला कि वाहन उत्सर्जन की वजह से उत्तम नगर, निजामुद्दीन, कनॉट प्लेस और आईटीओ जैसे राजधानी के सबसे व्यस्त स्थानों पर 61 से 69 प्रतिशत सूक्ष्म कणों का उत्सर्जन हुआ। इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि लगभग 40 प्रतिशत पार्टिकुलेट कण पीएम0.7 जितना छोटा है, जो पीएम1 से भी अधिक खतरनाक है।
2010 में, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटारोलॉजी, पुणे ने भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और नेशनल सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्टिंग के सहयोग से सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च (एसएएफएआर) नाम से एक प्रोग्राम की शुरुआत की। यह कार्यक्रम दिल्ली, पुणे, मुंबई और अहमदाबाद में चलता है। इसे अब बेंगलुरु, कोलकाता और चेन्नई तक विस्तार देने की योजना है। नेटवर्क के पास रीयलटाइम में इन शहरों की वायु गुणवत्ता के लिए 10 निगरानी स्टेशन हैं, जो पीएम 1, पीएम 2.5 और पीएम 10 सहित कई अन्य प्रदूषकों को निरंतर मॉनिटर करते हैं। एसएएफएआर ने 2016 में, मध्य दिल्ली में पीएम 1 की मात्रा का विश्लेषण किया था। इसके तहत, गर्मी, सर्दी और मॉनसून के दौरान पीएम 1 की औसत मात्रा लगभग 46, 49 और 20 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज की गई थी। साथ ही, ठंड के मौसम में 47 फीसदी पीएम 2.5 रहा, जो ग्रीष्मकाल के दौरान 44 फीसदी और मॉनसून में 61 प्रतिशत था।
आईआईटी दिल्ली में काम करने वाली एक टीम ने ऐसे सेंसर स्थापित किए हैं जो नाइट्रोजन ऑक्साइड, ओजोन, कार्बन मोनो-ऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड की निगरानी करते हैं। ये सब वायु प्रदूषण के सबसे हानिकारक घटकों में से है और साथ ही ये सेन्सर्स तापमान और आर्द्रता जैसे अन्य पर्यावरणीय मापदंडों के साथ-साथ पीएम 1, पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तरों को भी माप सकते हैं। प्रदूषण के स्त्रोत पर हुए अध्ययन बताते हैं कि पीएम 2.5 की तुलना में पीएम 1 की ज्यादातर मात्रा बायोमास से उत्पन्न हुई। पीएम 1 मुख्य रूप से ईंधन के दहन या वायु कणों के निर्माण की प्रक्रिया में बनता है, जबकि मोटे कणों को मुख्य रूप से यांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से बनाया जाता है, जैसे हवा में शामिल धूल या ढीली मिट्टी। पीएम 1 पर वैज्ञानिक सबूतों की कमी के कारण, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे कई अन्य देशों में भी इसे विनियमित नहीं किया गया है। भविष्य में, पीएम 1 उत्सर्जन पैटर्न का पता लगाने और अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्वास्थ्य परिणामों के साथ इसके संबंधों का मूल्यांकन करने के लिए अधिक से अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। ये अध्ययन चीन और अन्य देशों में पीएम 1 प्रदूषण के नियंत्रण के लिए मानकों और दिशानिर्देश बनाते समय नीति निर्माताओं के लिए बहुमूल्य जानकारी और सबूत प्रदान करेंगे।
विकसित और विकासशील दोनों देशों में इस वक्त अति सूक्ष्म प्रदूषण पीएम 1 कणों पर अधिक से अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। प्राथमिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि अन्य प्रदूषकों और खासकर पीएम 2.5 की तुलना में सिर्फ पीएम 1 से स्वास्थ्य को जोखिम बहुत अधिक होने की संभावना रहती है। पीएम 1 और स्वास्थ्य से उसके संबंध पर विस्तृत अध्ययन जरूरी हैं। इसके अलावा, पीएम 1 और हृदय व सांस रोग के बीच एक संबंध पर भी अध्ययन की आवश्यकता है। इसमें देरी की कोई वजह नहीं दिखाई देती।
यह स्टोरी डाउन टू अर्थ हिंदी पत्रिका के दिसंबर अंक में प्रकाशित हुई है। पत्रिका को सबस्क्राइब करने के लिए क्लिक करें