भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर (आईआईटी कानपुर) के शोधकर्ताओं ने उत्तर भारत में हानिकारक वायु प्रदूषकों के प्रमुख स्रोतों और इसका लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल की है।
प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, इस शोध की अगुवाई आईआईटी के सिविल इंजीनियरिंग और सस्टेनेबल एनर्जी इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर सच्चिदा नंद त्रिपाठी ने की है। शोध में कहा गया है कि स्थानीय उत्सर्जन, विशेष रूप से विभिन्न ईंधनों के अधूरे तरीके से जलने से, क्षेत्र में वायु गुणवत्ता खराब होती है जो स्वास्थ्य को होने वाले खतरों के लिए जिम्मेदार है।
इस बात को लगभग सभी जानते हैं कि भारत में लोग गंदी हवा में सांस ले रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, उपमहाद्वीप में हर साल 13 लाख मौतें प्रदूषित हवा के कारण होती हैं।
पिछले अध्ययनों ने भारत में वायु प्रदूषण की गंभीरता को उजागर किया है, लेकिन इनके सटीक स्रोतों और उनकी पहचान करना एक चुनौती बनी हुई है। प्रो. त्रिपाठी की टीम ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं के साथ मिलकर इस मुद्दे पर जानकारी हासिल करने के लिए दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों सहित सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों के पांच जगहों से वायु गुणवत्ता के आंकड़ों का विश्लेषण किया।
प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से प्रो. त्रिपाठी ने कहा, उत्तर भारत में वायु प्रदूषण के स्रोतों और स्वास्थ्य पर उनके प्रभाव के बारे में हमारे शोध से मिली अहम जानकारी हमें वायु गुणवत्ता में सुधार और सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए अधिक प्रभावी रणनीति विकसित करने में मदद करेगी। शोध से स्थानीय उत्सर्जन और सही से न जलने के कारण होने वाले प्रदूषण का पता लगाने में मदद मिली।
नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित शोध में पाया गया कि स्थानीय स्रोत और गतिविधियां पूरे क्षेत्र में भारी वायु प्रदूषण के लिए जिम्मेवार हैं। प्रदूषण के लिए दिल्ली के अंदर, यातायात, घरों को गर्म करने और औद्योगिक गतिविधियों से निकलने वाले अमोनियम क्लोराइड और कार्बनिक एरोसोल मुख्य हैं।
दिल्ली के बाहर, कृषि संबंधी अवशेषों को जलाने से होने वाले उत्सर्जन और इन उत्सर्जनों से बनने वाले द्वितीयक कार्बनिक एरोसोल अधिक प्रचलित हैं। समस्या को बढ़ाने वाले ईंधन जैसे लकड़ी, गोबर, कोयला और पेट्रोल का अधूरा जलना है। इससे हानिकारक कण बनते हैं जो हमारे फेफड़ों को नुकसान पहुंचा सकते हैं और स्वास्थ्य सबंधी विभिन्न समस्याओं को जन्म दे सकते हैं।
शोध ने बायोमास और जीवाश्म ईंधन के अधूरे तरीके से जलने के कारण कार्बनिक एरोसोल की पहचान वायु प्रदूषण की ऑक्सीडेटिव क्षमता को बढ़ाने वाले प्रमुख कारक के रूप में की, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक प्रभाव पैदा करते हैं।
प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से प्रो. त्रिपाठी ने आगे बताया, ऑक्सीडेटिव क्षमता मुक्त कणों से संबंधित है जो तब उत्पन्न होते हैं जब प्रदूषक पर्यावरण या हमारे शरीर में कुछ पदार्थों के साथ परस्पर क्रिया करते हैं। ये मुक्त कण कोशिकाओं, प्रोटीन और डीएनए के साथ प्रतिक्रिया करके नुकसान पहुंचा सकते हैं।
ऑक्सीडेटिव क्षमता मापती है कि वायु प्रदूषण से यह प्रतिक्रिया होने की कितने आसार हैं, जो बदले में श्वसन संबंधी बीमारियों, हृदय रोग और समय से पहले बुढ़ापे जैसी स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दे सकती है।
इस मुद्दे से निपटने के लिए और विभिन्न क्षेत्रों में जलने की दक्षता में सुधार के लिए इससे संबंधित कार्यों के माध्यम से उत्सर्जन को कम करने की तत्काल जरूरत है।
प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से आईआईटी कानपुर के निदेशक प्रो. मनिंद्र अग्रवाल ने कहा, यह शोध भारत के सामने आने वाली बड़ी चुनौतियों का समाधान खोजने के लिए अहम है। उन्होंने कहा प्रोफेसर त्रिपाठी का शोध अहम जानकारी प्रदान करता है जो नीति निर्माताओं और हितधारकों को वायु प्रदूषण और हमारे स्वास्थ्य पर इसके हानिकारक प्रभावों को कम करने के उनके प्रयासों में मार्गदर्शन कर सकता है।
प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि शोध में व्यापक रणनीतियों की आवश्यकता पर जोर दिया गया है जो स्थानीय उत्सर्जन स्रोतों को उजागर करती हैं और विशेष रूप से यातायात, आवासीय और औद्योगिक क्षेत्रों में स्वच्छ तकनीकों को बढ़ावा देती हैं।
सख्त उत्सर्जन मानकों को लागू करना, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना और वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाना न केवल उत्तर भारत, बल्कि देश के बाकी हिस्सों के लिए भी स्वच्छ हवा और स्वस्थ भविष्य हासिल करने में मदद करेगा।