विशाखापट्टनम गैस लीक: प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की भूमिका सवालों में

प्लांट से अत्यधिक प्रदूषण को देखते हुए एपीपीसीबी को इसके विस्तार और संचालन की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी : ईएएस सरमा
फोटो: ट्विटर से साभार
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विशाखापट्टनम की गैस त्रासदी ने आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एपीपीसीबी) पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। भारत सरकार के पूर्व सचिव ईएएस सरमा ने मुख्यमंत्री वाईएस जगनमोहन रेड्डी को लिखे पत्र में कहा है कि एलजी पॉलिमर्स कंपनी सरकारी जमीन पर स्थापित है। यह जमीन सैकड़ों करोड़ की है। सरकार ने जब यह जमीन वापस लेने का प्रयास किया तो कंपनी ने मुकदमा दायर कर दिया। इसके बावजूद एपीपीसीबी ने कंपनी को अपनी इकाई का विस्तार करने के लिए सीएफई (कॉन्सेंट फॉर स्टेब्लिशमेंट) और सीएफओ (कॉन्सेंट फॉर ऑपरेशन) की मंजूरी दे दी। इसके लिए एपीपीसीबी ने राज्य सरकार और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से क्लियरेंस भी नहीं लिया।

सरमा का कहना है कि प्लांट से होने वाले उच्च प्रदूषण को देखते हुए एपीपीसीबी को इसके विस्तार और संचालन की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी। वह सवाल उठाते हैं कि आखिर किस आधार पर यह अनुमति दी गई?  

विशाखापट्टनम के पास हुआ यह पहली औद्योगिक हादसा नहीं है। अतीत में 30 से 40 हादसे हो चुके हैं जिनमें बहुत से मजदूर और नागरिक मारे गए हैं। इन हादसों के लिए जिम्मेदार किसी भी कंपनी के अधिकारी पर मुकदमा नहीं चला और न ही राज्य सरकार में कोई अधिकारी दंडित किया गया है। ये हादसे प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों और अधिकारियों के गठजोड़ के नतीजा रहे हैं।

सरमा ने अपने पत्र में कहा है कि जब लॉकडाउन का पहला चरण समाप्त हुआ, तब आवश्यक उद्योग मानते हुए एलजी पॉलिमर्स को नो ऑब्जेशन सर्टिफिकेट (एनओसी) प्रदान कर दिया गया। उन्होंने आश्चर्य जताते हुए कहा कि एक प्लास्टिक बनाने वाली कंपनी को आश्वयक उद्योग की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है? 

सरमा कहते हैं कि प्रदूषण इम्युनिटी कमजोर करता है, यह जगजाहिर है। यह इम्युनिटी कोरोना महामारी से लड़न के लिए जरूरी है। लेकिन कैसी विडंबना है कि केंद्र और राज्य सरकारें इम्युनिटी कमजोर करने वाली शराब और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को प्रोत्साहन दे रही हैं।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में वैज्ञानिक रहे डीडी बासु बताते हैं कि स्टाइरीन गैस से सांस लेने में परेशानी और स्किन रैशेस की समस्या होती है। स्टाइरीन अपने रासायनिक गुणों के कारण आसानी से वाष्पीकृत हो जाती है। अगर तापमान 25 डिग्री सेल्सियस से अधिक है तो इस गैस को अलग और ठंडे स्थानों पर रखा जाता है। विशाखापट्टनम की भोगौलिक स्थिति ऐसी है कि यहां दिन में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है। इससे वाष्प का दबाव बनता है और ढक्कन खुल जाता है। नतीजतन गैस बाहर निकल जाती है। बासु बताते हैं कि लॉकडाउन के कारण फैक्ट्री की पर्याप्त मॉनिटरिंग नहीं हो पाई। आसानी से वाष्पीकृत होने वाले रसायनों से ऐसे हादसे कहीं भी हो सकते हैं।

विशाखापट्टनम में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता रवि प्रगाडा इस गैस त्रासदी की तुलना भोपाल गैस कांड से करते हैं। उन्होंने बताया कि कंपनी का प्लांट जिस जगह है, वह शहरी रिहायशी इलाके के बेहद नजदीक है। ऐसे में सवाल है कि प्लांट को क्लियरेंस देने का क्या आधार था। उनका कहना है कि कोरोना महामारी के दौर में कंपनी को आवश्यक उद्योग मानना दुर्भाग्यपूर्ण है। महामारी में जिला प्रशासन बेहद दबाव में है। ऐसे समय में हुई यह त्रासदी प्रशासन पर और दबाव बनाएगी। वह बताते हैं कि गैर रिसाव से मरने वालों का आंकड़ा बढ़ सकता है और यह कोरोनावायरस से हुई मौतों को पीछे छोड़ सकता है। 

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