आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में एलजी पॉलिमर्स से हुई गैस लीक ने भोपाल गैस त्रासदी के जख्मों को ताजा कर दिया है। यह बात भी फिर होने लगी है कि हम हादसों से सबक नहीं लेते हैं और न ही सामान्य स्थितियों में कुछ भी सोचते हैं। कानून और नियमों की अधिकता के बावजूद हमारे देश में रसायनिक हादसे न थम रहे हैं और न ही इन्हें रोकने का कोई कारगर उपाय हो रहा है। विशाखापट्टनम में यह पहली बार नहीं है, हर वर्ष यहां फैक्ट्रियों में हादसे होते हैं और लोगों की जाने जाती हैं। हालांकि इस बार रिहायश भी चपेट में है। 03 दिसंबर, 2019 को हमने रसायनिक हादसों को लेकर अपनी विशेष रिपोर्ट में 329 ऐसी जगहों के बारे में बताया था जहां रासायनिक हादसों का जोखिम बहुत ज्यादा है।
भोपाल के बाद विशाखापट्टनम जैसा बड़ा हादसा हमने नहीं देखा है। रासायनिक हादसे हर वर्ष होते हैं, हम इसे स्वीकार करके आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे हादसों से दुनिया में भारत की बड़ी जगहंसाई होती है। यह बहुत दुखद है कि कोविड-19 के दौरान जारी लॉकडाउन में आखिर किस तरह से रसायन को हैंडल किया गया और जांच की गई? जब हम प्लास्टिक के खतरनाक रसायन की बात करते हैं तो प्लास्टिक उद्योग इसकी उपेक्षा करता है। आज यह सबके सामने है कि इसके रसायन कितना खतरनाक है। प्लास्टिक के केमिकल का लोगों के स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा प्रकोप है लेकिन इंडस्ट्री इसे हमेशा नकारती है। कोई नहीं समझ रहा है कि प्लास्टिक में कितने खतरनाक रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है। सबसे बड़ा मुद्दा है कि कानून और नियमों का पालन सख्ती से न होना है। यह बात टॉक्सिक लिंक के सतीश सिन्हा ने डाउन टू अर्थ से कही।
दुनिया में एक भी रसायन ऐसा नहीं है जिसे मासूम कहा जाए। इस सच को हम अच्छे से जानते हैं और इसके भुक्तभोगी भी हैं। दुनिया के सबसे बड़े रासायनिक हादसों में शामिल भोपाल गैस त्रासदी को 35 वर्ष हो चुके हैंऔर जानलेवा मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) गैस का प्रयोग अभी तक देश में प्रतिबंधित नहीं है। 2 से 3 दिसंबर, 1984 की मध्य रात्रि को बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन (यूसीसी-अब डाउ केमिकल्स का स्वामित्व) के भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड प्लांट (यूसीआईएल) में मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ था और कुछ ही देर में पांच हजार से ज्यादा लोगों की जीवनलीला समाप्त हो गई। एमआईसी जैसे बेहद खतरनाक रसायनों का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को अनिवार्य लाइसेंस देने वाले उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग (डीआईपीपी) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने डाउन टू अर्थ को बताया है कि इसके विनियमन (रेग्युलेशन) को लेकर रसायन एवं पेट्रो रसायन विभाग काम कर रहा है। मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का इस्तेमाल कार्बारिल कीटनाशक और पॉलियूरेथेन्स (एक प्रकार का प्लास्टिक) बनाने के लिए किया जा सकता है। यूसीसी की औद्योगिक इकाई भोपाल में एमआईसी गैस का इस्तेमाल कर कार्बारिल सेविन नाम से कीटनाशक तैयार करती थी। इस कीटनाशक को 8 अगस्त, 2018 से प्रतिबंधित किया गया है।
भोपाल गैस त्रासदी के बाद से सक्रिय कार्यकर्ता सतीनाथ सारंगी ने डाउन टू अर्थ को बताया कि “मिथाइल आइसोसाइनेट को कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया। यहां तक कि उसके उत्पादन में वसूली जाने वाली लेवी को भी घटा दिया गया। उन्होंने बताया कि यूनियन कार्बाइड का स्वामित्व हासिल करने वाली डाउ केमिकल्स अभी पॉलीयूरेथेन को भारत में ला रही है। यह जलने के बाद मिथाइल आइसोसाइनेट पैदा करती है। इतने बड़े औद्योगिक हादसे के बाद भी सरकारें जाग नहीं पाई हैं।”
मिथाइल आइसोसाइनेट या अन्य समकक्ष खतरनाक रसायनों को लेकर तीन से अधिक केंद्रीय मंत्रालय की अलग-अलग भूमिकाएं हैं। इनमें केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय, केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय और कृषि मंत्रालय शामिल हैं। रसायन एवं पेट्रो विभाग में निदेशक धर्मेंद्र कुमार मदान ने डाउन टू अर्थ से कहा कि खतरनाक रसायनों के रेग्युलेशन को लेकर जरूरी कदम उठाए जा रहे हैं हालांकि जानकार अधिकारी के कथन से इत्तेफाक नहीं रखते।
टॉक्सिक लिंक के पीयूष मोहपात्रा इस बिंदु पर कहते हैं “रसायनों के प्रबंधन को लेकर मंत्रालयों की अलग-अलग भूमिका तर्कपूर्ण नहीं है बल्कि यह चिंताजनक है। यूरोपियन यूनियन में रसायनों के नियंत्रण के लिए पंजीकरण, आकलन, वैधता और प्रतिबंध (आरईएसीएच) जैसा विनियमन है लेकिन भारत में रसायन एक व्यवसाय है और उस पर कोई विनियमन नहीं किया गया है।”
स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन इंटरनेशनल हेल्थ रेग्युलेशन एट प्वाइंट ऑफ इंट्रीज इंडिया के मुताबिक देश में 25 राज्यों और 3 संघ शासित प्रदेशों के 301 जिलों में 1,861 प्रमुख दुर्घटना वाली खतरनाक औद्योगिक इकाइयां हैं। साथ ही असंगठित क्षेत्र में तीन हजार से ज्यादा खतरनाक फैक्ट्री मौजूद हैं। इनका कोई विनियमन नहीं है।
उद्योगों को खुश करने पर जोर
इन चिंताओं से हटकर सुस्त अर्थव्यवस्था में भी भारतीय रसायन उद्योग काफी उत्साहित है। केंद्र सरकार मेक इन इंडिया के जाम पहिए में रसायन उद्योग से ही ग्रीस डलवाना चाहती है। दरअसल, भारत दुनिया में रसायन उत्पादन के मामले में छठवे स्थान पर और कृषि रसायनों के मामले में चौथे स्थान पर है। 2017-18 के दौरान देश में कुल 4.90 करोड़ टन रसायन और पेट्रोरसायन का उत्पादन किया गया है। एसोचैम इंडिया की रिपोर्ट रीसर्जेंट 2015 के मुताबिक भारत में कुल 70 हजार रसायन बनाने वाली छोटी-बड़ी औद्योगिक ईकाइयां हैं और 70 हजार से भी ज्यादा रसायन उत्पाद यहां बनाए जा रहे हैं। देश में सबसे ज्यादा 69 फीसदी क्षारीय रसायन निर्मित किए जा रहे हैं जबकि पेट्रो रसायनों में 59 फीसदी बहुलक (पॉलीमर) का उत्पादन होता है।
अब रसायन निर्माण हब के लिए निवेश की चाह में सरकार और भारतीय रसायन उद्योग की ओर से 12 नवंबर, 2019 को महाराष्ट्र के मुंबई में एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में पेट्रोलियम, केमिकल्स, पेट्रोकेमिकल्स इन्वेस्टमेंट क्षेत्र (पीसीपीआईआर) के पुनरुद्धार की अध्ययन रिपोर्ट भी जारी की गई। रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात में दहेज, आंध्र प्रदेश में विशाखापट्टनम, ओडिशा में पारादीप, तमिलनाडु में कुड्डलोर को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाया जाना है। रिपोर्ट में बताया गया कि यह चारों स्थान इसलिए हब नहीं बन पाए क्योंकि निवेश नहीं था, सरंचना की कमी थी, भूमि अधिग्रहण का मुद्दा था और बहुत सीमित योजना थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में रसायन उद्योग का आकार 2025 तक मौजूदा 163 अरब डॉलर से बढ़कर 304 अरब डॉलर हो जाएगा। वहीं, सम्मेलन में सरकार की ओर से कहा गया कि दुनिया में अगला पेट्रोकेमिकल हब बनाने के लिए जल्द ही नीति भी लाई जा सकती है।
जबकि देश में 2012 से लंबित राष्ट्रीय रसायन नीति पर अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है। टॉक्सिक लिंक के पीयूष मोहपात्रा बताते हैं कि यह नीति भी उद्योग के ही बारे में है। रसायनों के प्रबंधन और उनके खतरे की सूची व श्रेणी को लेकर इसमें कुछ भी नहीं है। भारत में 1992 के निजीकरण से पहले और भोपाल गैस त्रासदी के बाद काफी सख्ती थी। लेकिन निवेश के लिए उद्योगों को ढ़ील देने की शुरुआत हुई। अंतरराष्ट्रीय कानूनों में साझेदारी के बाद भी अमल नहीं हो रहा। अब महत्वपूर्ण बात यह है कि रसायन प्रंबधन और उनके विनियमन की बात 2020 के बाद की जा रही है, जिसकी सख्त जरूरत अभी है।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने हाल ही में एक बार फिर से उद्योगों के स्व-विनियमन (सेल्फ रेग्यूलेशन) की बात दोहराई है। टॉक्सिक वॉच एलाइंस (टीडब्ल्यूए) के गोपाल कृष्ण इसे पूरी तरह सही नहीं मानते। उनका कहना है कि निरीक्षण व्यवस्था को उद्योगों के रास्ते का रोड़ा नहीं समझा जाना चाहिए। ऑनलाइन मॉनिटरिंग के साथ अधिकारियों को औद्योगिक परिसर के भीतर-बाहर खुद जाकर जांच रिकॉर्ड को भी देखना चाहिए। जानलेवा रसायनों की जांच-परख करते रहना बेहद जरूरी है।
रासायनिक दुर्घटना कम, घायल बढ़े
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण विभाग के मुताबिक बीते तीन वर्ष (2015 से 2017) के दौरान रासायनिक दुर्घटनाओं के कारण घायल होने वालों की संख्या में 279 फीसदी की वृद्धि हुई है। 2015-16 में 64 रासायनिक दुर्घटनाओं में 192 लोग घायल हुए थे। वहीं, 66 लोगों की मृत्यु हुई थी, जबकि 2017-18 में महज 31 दुर्घटनाओं में 728 लोग घायल हुए हैं और 39 लोगों की जान गई है। भोपाल त्रासदी के बाद भी छोटी और बड़ी दोनों तरह की रासायनिक दुर्घटनाएं इस देश में जारी हैं।
2019, जून में आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में बालाजी केमिकल्स फैक्ट्री में सुरक्षा मानकों का पालन न किए जाने से जबरदस्त दुर्घटना हुई। यह फार्मा केमिकल्स यूनिट है। एक निश्चित अंतराल पर यहां दुर्घटनाएं होती रहती हैं। वहीं, विभिन्न राज्यों के दुर्घटनाओं पर नजर रखने वाले चीफ इंस्पेक्टर ऑफ फैक्ट्रीज के आंकड़े भी अपडेट नहीं किए जाते। यह पाया गया कि विभिन्न राज्यों में होने वाली प्रमुख रासायनिक दुर्घटनाएं काफी कम रिपोर्ट होती हैं।
2001 से 2019 तक के आंकड़ों की पड़ताल करने पर कुल 28 प्रमुख दुर्घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज मिलीं। इन घटनाओं में 47 लोग परिसर में मरे और 12 लापता हैं। दुर्घटना वाले राज्यों में तेलंगाना, गुजरात और उत्तर प्रदेश शामिल हैं। 2015 में एसिटिक एनहिड्राइड रसायन के रिसाव से गल्फ ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड में परिसर के भीतर 6 लोगों की जान गई। एसिटिक एन्हिड्राइड कई देशों में प्रतिबंधित है, इस रसायन को नशे में इस्तेमाल होने वाली हिरोइन तैयार करने में भी होता है। ऐसे ही ऑक्सीजन लिक्विड के रिसाव, अमोनिया, टॉल्यून आदि खतरनाक रसायनों के कारण होने वाली सैकड़ों दुर्घटनाएं दर्ज हैं। फैक्ट्री परिसर के भीतर की घटना फैक्ट्री के इंस्पेक्टर देखते हैं जबकि बाहर की घटना के लिए राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) जिम्मेदार होती है। ऐसे में कार्रवाई का भी विरोधाभास बना रहता है।
खतरनाक रसायनों को चरणबद्ध हटाने और विनियमन के सवाल पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक 350 से भी अधिक रासायनिक यौगिक भारतीय फैक्ट्रियों की इंवेटरी में हर वर्ष जुड़ जाती हैं, जबकि वैश्विक जांच सुविधाएं वर्ष भर में 500 से अधिक रसायनों की स्कैनिंग नहीं कर पाती हैं। वहीं, पश्चिम में खतरनाक पदार्थों के लिए कानून कड़े हो रहे हैं जबकि विकासशील देशों में आर्थिक वृद्धि के लिए कानून बेहद ढीले हैं।
टीडब्लूए के गोपाल कृष्ण बताते हैं कि रसायनों की जानकारी और उनके खतरे व श्रेणियों के आधार पर ऐसी सूची और इन्वेंटरी भारत में आज तक नहीं बनी है जिससे रसायनों के प्रतिबंध या विनियमन के बारे में कोई वैज्ञानिक निर्णय लिया जा सके। हम इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों के बारे में सही से जान रहे होते हैं। इसकी वजह यह है कि हमें रसायनों की स्थिति के बारे में ठीक से बताया नहीं जा रहा है। खतरनाक रसायनों को सूची में शामिल करने और हटाने का कोई स्पष्ट वैज्ञानिक आधार नहीं है। कभी खतरनाक रसायनों की सूची में शामिल होने वाला और कभी खतरनाक सूची से बाहर होने वाला एस्बस्टस ऐसा ही खतरनाक पदार्थ है। इसी कारण कई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित रसायन हमारे यहां इस्तेमाल हो रहे हैं।
देश में पहली बार रसायनों के प्रबंधन को लेकर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने वाले केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व वैज्ञानिक डीडी बासु ने डाउन टू अर्थ को बताया “सिर्फ मिथाइल आइसोसाइनेट ही नहीं बल्कि क्लोरीन प्लांट भी काफी घातक है। इसका इस्तेमाल काफी ज्यादा है। ऐसा कोई रसायन नहीं है जिसके दुष्परिणाम न हों। अब बात सुरक्षित उत्पादन और इस्तेमाल व निस्तारण की है। आज छोटे उद्योगों के बजाए बड़े रासायनिक उद्योगों से ही खतरा है। इनमें रिफाइनरीज प्रमुख हैं। देश में रासायनिक दुर्घटनाओं की निगरानी और उनके रिकॉर्ड को दुरुस्त करने की कोई ठोस व्यवस्था अभी तक नहीं बन पाई है जबकि भोपाल गैस त्रासदी के बाद से 35 वर्षों में पर्यावरण और लोगों की सुरक्षा के लिए करीब 35 अधिनियम, नियम और गाइडलाइन तैयार किए गए लेकिन कोई कारगर साबित नहीं हो सका है। भोपाल त्रासदी से पहले रसायनों के आयात, निर्यात, वितरण और इस्तेमाल व नियंत्रण को लेकर कानून थे।”
कानून पर अमल नहीं
भोपाल गैस त्रासदी से काफी पहले दवाओं के निर्माण, आयात-निर्यात और वितरण पर नियंत्रण के लिए द ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940 में बना था। फिर फैक्ट्री कानून 1948 में आया जिसे 1987 में संशोधित किया गया। 1955 में खाने में मिलावट रोकने के लिए द प्रिवेंशन ऑफ फूड एडल्ट्रेशन एक्ट बना। 1962 में कस्टम एक्ट बना जो खतरनाक वस्तुओं के आयात–निर्यात के लिए था। 1968 में कीटनाशकों के नियंत्रित इस्तेमाल के लिए कानून आया। 1971 में कीटनाशक नियम बना। 1974 में जल प्रदूषण से बचाव व नियंत्रण कानून बना जबकि 1981 में वायु प्रदूषण से बचाव व नियंत्रण कानून आया। इतना कुछ होने के बाद भी 1984 में बड़ी भोपाल गैस त्रासदी हुई थी।
भारत में इस औद्योगिक हादसे के बाद पर्यावरण को ध्यान में रखकर बड़ा कानून बना। इसे हम पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तौर पर जानते हैं। इसके बाद केंद्रीय मोटर कानून, 1988 और 1989 में हजार्ड्स वेस्ट मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग रूल्स बना। 1994 में औद्योगिक विस्तार पर नियंत्रण के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) कानून बना। 2000 में ओजोन डिपलेटिंग सब्सटेंसेज (रेग्यूलेशन एंड कंट्रोल) रूल बना। 2001 में बैटरी (मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग रूल्स) बना। 2007 में नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी औद्योगिक दुर्घटनाओं के लिए एक विस्तृत गाइडलाइन लेकर आई। 2016 में हजार्ड्स वेस्ट मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग रूल्स को संशोधित किया गया। इसके अलावा भारत कीटनाशक, मर्करी और खतरनाक कचरे के चार प्रमुख अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का हस्ताक्षरकर्ता है। इनमें बेसल कन्वेंशन, रॉटर्डम कन्वेंशन, स्टॉकहोम कन्वेंशन, मिनिमाता कन्वेंशन शामिल हैं। अंतरराष्ट्रीय कानून बहुत है। भारत इसका हिस्सा है। कुछ काम हुए हैं लेकिन वह काफी नहीं है। मिसाल के तौर पर चिरस्थायी कार्बनिक प्रदूषक (पीओपी) के लिए स्टॉकहोम सम्मेलन है। बहुत से पीओपी रसायन चरणबद्ध तरीके से हटाए गए हैं। हालांकि प्रतिबंध के बाद भी कुछ प्रतिबंधित पीओपी रसायनों की पुष्टि यहां-वहां होती रहती है। वहीं, रॉटर्डम सम्मेलन में यह तय हुआ था कि आयात-निर्यात के लिए देश एक-दूसरे को रसायनों के जोखिम और खतरे के बारे में पूर्व सूचना देकर अनुमति लेंगे, लेकिन यह भी पूरी तरह अमल में नहीं है। ऐसे प्रमुख कानून, नियम और गाइडलाइन बनते रहे लेकिन समस्या का निदान नहीं किया गया। उल्टे भारत खतरनाक कचरे का डंपिंग यार्ड बन गया है, जिसके कारण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष खतरनाक रसायन यहां की हवा, मिट्टी,पानी को बर्बाद कर रहे हैं।
खतरनाक कचरे का जानलेवा रसायन
देश में खतरनाक कचरे वाली साइटों पर जहरीले रसायनों का बसेरा बढ़ता चला गया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने हाल ही में खतरनाक कचरे से संबंधित रिपोर्ट जारी की है। इसमें कहा गया है कि देश के 22 राज्यों में कुल 329 औद्योगिक साइट ऐसी हैं जिनमें खतरनाक और जानलेवा रसायन घुल-मिल गया है। इनमें सबसे पहले 134 साइट को चयनित किया गया है जिनमें करीब 124 साइट ऐसी हैं जहां क्रोमियम, लेड, मर्करी, आर्सेनिक, हाइड्रोकॉर्बन टॉल्यूयीन, भारी धातु, नाइट्रेट, फ्लोराइड, साइनाइड इनऑर्गेनिक सॉल्ट, डीडीटी, इंडोसल्फॉन जैसे खतरनाक रसायन की मौजूदगी है। इन जहरीली हो चुकी साइटों का अध्ययन केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने किया है। रिपोर्ट के मुताबिक अतिरिक्त 195 खतरनाक कचरे की साइट हैं जहां रसायनों की मौजूदगी संभावित है। इनमें भोपाल के यूनियन कार्बाइड के इर्द-गिर्द मौजूद सात साइट भी शामिल हैं। इनमें खतरनाक कीटनाशक ऑर्गेनोक्लोरीन, कार्बामेट, क्लोरीनेटेड बेंजीन, मर्करी, क्लोरोफॉर्म जैसे जहरीले रसायनों की उपस्थिति संभव है।
वहीं, देश में खतरनाक कचरे के आयात नियमों का भी पालन नहीं हो रहा। सीपीसीबी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि आयातक कस्टम एक्ट, 1962 के सेक्शन 23 का नाजायज लाभ उठा रहे हैं। कॉर्गो को बिना खाली किए रोजाना छोड़ा जा रहा है। ऐसे में सख्त गाइडलाइन की जरूरत है। आयातक खुद के सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हैं और डिपार्टमेंट को गलत सूचना देते हैं। कस्टम विभाग और पर्यावरण मंत्रालय के बीच अवैध गतिविधियों पर रोकथाम के लिए कोई समन्वय नहीं है। जबकि खतरनाक कचरा प्रबंधन (प्रबंधन और सीमा परिवहन) नियम, 2016 की अनुसूची सात के मुताबिक पोर्ट और कस्टम प्राधिकरण का यह काम है कि वो पर्यावरण मंत्रालय को खतरनाक और अन्य कचरे की अवैध ट्रैफिकिंग के बारे में सूचित करे। यह भी हैरानी भरा है कि इस नियम के अधिसूचित होने के बाद से पोर्ट और कस्टम प्राधिकरणों के जरिए आजतक खतरनाक कचरे के अवैध ट्रैफिकिंग की एक भी सूचना मंत्रालय को नहीं दी गई है।
सीपीसीबी के वैज्ञानिक अभय सिंह सोनी ने बताया कि 2015-2016 की हजार्डस वेस्ट इन्वेंटरी रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब 56,350 खतरनाक औद्योगिक कचरा पैदा करने वाली औद्योगिक इकाइयां हैं। इनसे 7,170,000 टन खतरनाक कचरा निकलता है। करीब 100,000 टन कचरे का निष्पादन नहीं हो पाता। देश के भीतर और बाहर से आने वाले कचरों का निस्तारण न होने के कारण न सिर्फ खतरनाक कचरा साइटों में बढ़ोत्तरी हो रही है बल्कि जहरीले रसायनों का रिसाव और फैलाव भी हो रहा है।
अब कीटनाशकों का जेनरिक नाम
कीटनाशकों के मामले में आइसीएआर की रजिस्ट्रेशन समिति ने 6 नवंबर, 2019 को मेक इन इंडिया को ध्यान में रखते हुए कीटनाशक पंजीकरण कानून को निवेशकों के अनुरूप बनाने के लिए कहा है। साथ ही सभी राज्यों को लाइसेंस जारी करने और लेबलिंग के प्रावधानों में संशोधन कर कीटनाशक उत्पादों पर व्यापारिक नाम के बजाए साधारण और जेनरिक नाम बड़े-बड़े अक्षरों में डालने का आदेश दिया है।
19 जुलाई, 2019 को राज्यसभा में रसायन व उर्वरक मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने अपने जवाब में कहा कि जरूरी नहीं है कि जो कीटनाशक किसी दूसरे देश में प्रतिबंधित हैं उन्हें भारत में भी प्रतिबंधित किया जाए। खतरनाक कीटनाशकों के प्रतिबंध और उन्हें चरणबद्ध तरीके से हटाने को लेकर उठ रही मांग करने वालों के िलए यह जवाब झटका साबित हो सकता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) के पूर्व प्रोफेसर अनुपम वर्मा की अध्यक्षता वाली समिति ने एक या एक से अधिक देशों में प्रतिबंधित 66 कीटनाशकों की समीक्षा की थी। इनमें भारत में अब तक 40 कीटनाशकों और 4 सूत्रीकरणों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। साथ ही दो कीटनाशकों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया है लेकिन निर्यात के लिए उन्हें छूट दी गई है। 8 कीटनाशक पूरी तरह हटा लिए गए हैं और 9 कीटनाशकों को देश में प्रयोग के लिए पूरी तरह रोक लगाया गया है। सबसे बड़ी मुसीबत नए कम जोखिम वाले रसायनों की जगह पुराने घातक और सस्ते रसायनों का इस्तेमाल है।
देश में अब भी खतरनाक एसीफैट, ग्लाइफोसेट, फोरेट जैसे रसायनों का उत्पादन जारी है। यदि इन्हें सीमित करने और चरणबद्ध तरीके से हटाने पर निर्णय न लिया गया तो कई स्थान भोपाल जैसे विस्फोटक बन गए हैं और हम सब उसी बारुद की ढेर पर बैठे हैं।