मनुष्य हर साल वैश्विक स्तर पर करीब 1,800 मेगाग्राम पारा (मर्करी) उत्सर्जित कर रहे हैं। जो उनके खुद के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है। गौरतलब है कि मर्करी एक न्यूरोटॉक्सिन है, जिसकी बहुत थोड़ी मात्रा भी मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती है। इसके साथ ही यह पर्यावरण के लिए भी बड़ा खतरा है।
इस जहरीली धातु के वैश्विक प्रवाह के विश्लेषण से पता चला है कि पारे का करीब आधा जोखिम (47 फीसदी) इसके वैश्विक व्यापार से जुड़ा है। इस विश्लेषण के नतीजे जर्नल पनास नेक्सस में प्रकाशित हुए हैं।
इस रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है कि दुनिया में हर वर्ष करीब 1,833.3 मेगाग्राम पारे का उत्सर्जन हो रहा है। इसमें से अधिकांश उत्सर्जन गैर-लौह धातुओं को गलाने और पिघलाने से जुड़ा है। देखा जाए तो विशेष रूप से यह छोटे पैमाने पर किए जा रहे सोने के खनन और उससे जुड़ी गतिविधियों के कारण भी वातावरण में फैल रहा है।
आंकड़ों के मुताबिक पारे के कुल वैश्विक उत्सर्जन का करीब 47.1 फीसदी हिस्सा यानी 864.2 मेगाग्राम इसके अंतराष्ट्रीय व्यापार से जुड़ा है। दूसरे शब्दों में, यह कह सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर पारे का करीब आधा उत्सर्जन अन्य देशों को किए जा रहे निर्यात से जुड़ा है। मतलब की एक तरफ जो देश इसे प्राप्त कर रहे हैं वो इसके खामियाजा भुगतने को मजबूर हैं वहीं दूसरी तरफ जो देश इसे अपने यहां से आउटसोर्स कर रहे हैं वो इसके उत्सर्जन और प्रदूषण से बच रहे हैं। इस पारे का उपयोग उन देशों में अधिक होता है जो छोटे स्तर पर सोने के खनन से जुड़ी गतिविधियों में संलग्न हैं।
यदि दुनिया में इसके सबसे बड़े प्राप्तकर्ताओं की बात करें तो उनमें से ज्यादातर कमजोर देश हैं, जो पहले ही गरीबी, जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं से त्रस्त हैं। आंकड़ों के मुताबिक इसकी सबसे बड़ी मात्रा उप-सहारा अफ्रीका में पहुंच रही है। जो करीब 199.4 मेगाग्राम है। इसके बाद लैटिन अमेरिका 166.3 मेगाग्राम और चीन 80.9 मेगाग्राम पारे को प्राप्त करता है। इतना ही नहीं यह देश पारे के सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक हैं।
चीन कर रहा है हर साल करीब 546.1 मेगाग्राम मर्करी उत्सर्जित
यदि इन देशों द्वारा उत्सर्जित हो रहे पारे की मात्रा को देखें तो चीन हर साल करीब 546.1 मेगाग्राम पारा उत्सर्जित कर रहा है। इसके बाद उप-सहारा अफ्रीका 291.8 मेगाग्राम और दक्षिण अमेरिका 291.3 मेगाग्राम पारे के उत्सर्जन से जुड़ा है।
यह अध्ययन नानजिंग यूनिवर्सिटी से जुड़े शोधकर्ता झेनचेंग जिंग और रुइरोंग चांग द्वारा उनके सहयोगियों के साथ मिलकर किया गया है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मार्गों के माध्यम से पारे के प्रवाह को समझने का प्रयास किया है। साथ ही प्रदूषण स्थलों से लेकर पर्यावरण में उसकी मौजूदगी पर नजर रखी है। इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने इंसानी स्वास्थ्य पर पारे के पड़ने वाले प्रभावों पर भी विचार किया है।
वैश्विक स्तर पर मर्करी के जैव-भू-रासायनिक चक्र का अध्ययन करने के लिए अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विभिन्न मॉडलों और तकनीकों की मदद ली है। इसमें मर्करी उत्सर्जन से जुड़ी इनवेंटरी, बहु-क्षेत्रीय इनपुट-आउटपुट मॉडल, वातावरण-भूमि-महासागर-पारिस्थितिकी तंत्र मॉडल और इसके जोखिम-मूल्यांकन मॉडल शामिल है। यही वजह है इस एकीकृत दृष्टिकोण ने उन्हें वैश्विक स्तर पर पारे के प्रवाह और पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभावों की जांच करने में मदद की है।
वहीं पारे के सबसे बड़े आउटसोर्सर की बात करें तो उसमें विकसित देश सबसे आगे हैं। पता चला है कि अमेरिका हर साल 145.2 मेगाग्राम पारे को आउटसोर्स कर रहा है। वहीं पश्चिमी यूरोप 140.9 मेगाग्राम, जबकि जापान 36.9 मेगाग्राम पारे को हर साल आउटसोर्स कर रहा है।
वहीं पारे को आउटसोर्स करने वालों में कुछ विकासशील देश भी शामिल हैं। इनमें मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका द्वारा हर साल किए जा रहे पारे के आउटसोर्स की वजह से उत्सर्जन में 112.7 मेगाग्राम की गिरावट आ रही है, जबकि भारत में यह आंकड़ा 20.6 मेगाग्राम और पूर्वी यूरोप में 5.9 मेगाग्राम है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 2015 में पारे का इंसानों द्वारा किया जा रहा उत्सर्जन बढ़कर 2,220 टन पर पहुंच गया था। जो 2010 की तुलना में करीब 20 फीसदी ज्यादा है।
रिसर्च के मुताबिक इन प्रक्रियाओं में उपयोग किया जाने वाला पारा, हवा, पानी और मिट्टी में समा रहा है। जो वहां से नदियों और समुद्रो तक में पहुंच रहा है। कभी-कभी यह पारा अपने स्रोत से हवा, नदियों, समुद्रों के माध्यम से हजारों मील दूर तक पहुंच जाता है।
जब लोग इस पारे से दूषित हो चुकी मछलियों, चावल या समुद्री उत्पादों का सेवन करते हैं तो यही पारा इंसानी शरीर में पहुंचकर उसको भी नुकसान पहुंचा सकता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक वातावरण में मौजूद यह पारा न केवल बच्चों के शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है।
वैश्विक स्तर पर मर्करी के बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए 2013 में इसे रोकने के लिए अंतराष्ट्रीय संधि की गई थी, जिसे मिनामाता कन्वेंशन 2013 के नाम से जाना जाता है। इस कन्वेंशन का उद्देश्य स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पारे और इसके यौगिकों के पड़ते हानिकारक प्रभावों को रोकना है। भारत ने भी इस संधि पर हस्ताक्षर किए हैं इसकी पुष्टि 2018 में की गई थी। अब तक 141 देश इस संधि को अपना चुके हैं। हालांकि इसके बावजूद अभी भी दुनिया भर में पारे का उपयोग जारी है, जो इसके बढ़ते प्रदूषण से जुड़ा है।
स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा है पारा
पारा के बारे में बता दें कि यह प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला एक तत्व है, जो हवा, पानी और मिट्टी में पाया जाता है। हालांकि इसके संपर्क में आने से स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान हो सकता है। यह पाचन, तंत्रिका तंत्र, फेफड़ों, गुर्दे, त्वचा और प्रतिरक्षा प्रणाली पर बुरा असर डाल सकता है। इतना ही नहीं इसका संपर्क गर्भस्थ शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास को भी प्रभावित कर सकता है।
इससे पहले संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एजेंसी ने 2018 में 22 देशों के 300 से ज्यादा उत्पादों में पारे की जांच की थी। इस जांच में कई उत्पादों में सीमा से 10 गुणा तक ज्यादा पारे के इस्तेमाल की बात सामने आई थी। एक अन्य अध्ययन में भारत में भी क्रीमों में इसके पाए जाने की जानकारी सामने आई थी। टॉक्सिक लिंक को भारत से लिए गए नमूनों में मर्करी का स्तर 48 पीपीएम से 113,000 पीपीएम तक मिला था।
अध्ययन के मुताबिक अमेरिका, भारत, जापान सहित कई देश इस पारे को दूसरे देशों को भेज रहे हैं। देखा जाए तो यह देश सोने, बिजली के उपकरण, मशीनरी और अन्य उत्पादों के अंतिम उपभोक्ता हैं, जिनके उत्पादन में पारे का उपयोग होता है और जो प्रदूषण की वजह बनता है। ऐसे में यह उपयोग करने वाले देश तो इसके जोखिम से बचे रहते हैं, लेकिन इसका खामियाजा उन कमजोर देशों को उठाना पड़ता है जहां पारे से जुड़ी गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है।
ऐसे में शोधकर्ताओं का कहना है कि इसके बढ़ते प्रदूषण की रोकथाम के लिए इससे जुड़े दोनों पक्षों पर ध्यान देना जरूरी है। इसमें जो देश पारे से जुड़े उत्पादों के उत्पादन में लगे हैं दूसरे वे जो इन पारे से जुड़ी चीजों का उपयोग करते हैं उनपर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
इन दोनों ही पक्षों के बीच पारे के उपयोग को नियमित और प्रबंधित करना जरूरी है। इसमें वे उद्योग और प्रक्रियाएं शामिल हैं जो पारे के पर्यावरण में होते उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार हैं। उनके साथ-साथ इसकी मांग से जुड़े पक्ष पर भी करों जैसे उपायों को लागू करके उपभोक्ताओं के व्यवहार में बदलाव करना जरूरी है। इन करों का उद्देश्य उपभोक्ताओं की पसंद और व्यवहार को आकार देना है, जिससे पारा की जगह उसके विकल्पों को बढ़ावा दिया जा सके।