अनिल अग्रवाल की आंखों-देखी : भोपाल गैस त्रासदी की वह भयानक रात

3 दिसंबर, 1984 को सुबह तीन बजे भोपाल में यूनियन कार्बाइड से निकलने वाली जहरीली गैस ने पूरे शहर को तबाह कर दिया था
Photo : CSE
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आशय चित्रे, एक फिल्म निर्माता जो कि भारत के केंद्रीय शहर में कलाकारों को आकर्षित करने के लिए राज्य सरकार के जरिए बनवाए गए भोपाल के प्रतिष्ठित भारत भवन में रहते हैं, उन्होंने सुबह कोई तीन बजे अपनी खिड़की के बाहर शोर-गुल सुना। वह एक कंपकंपा देने वाली दिसंबर महीने की अलसुबह थी। चित्रे के घर की सभी खिड़कियां बंद थी। चित्रे और उनकी सात महीने की गर्भवती पत्नी रोहिणी ने जैसे ही खिड़कियों को खोला, गैस का एक झोंका उनसे टकराया। फौरन उन्हें सांस लेने में तकलीफ हुई और उनकी आंख व नाक से पीला तरल बहने लगा।

खतरे को भांपकर, दंपत्ति ने एक बेडशीट खींची और घर के बाहर भागे। वे अनजान थे। सभी पड़ोसी बंगले, जहां टेलीफोन थे, खाली हो गए थे। उनके बगल पड़ोस में रहने वाले राज्य श्रम मंत्री शामसुंदर पटीदार भी चंपत थे। मुख्यंत्री जो कि चित्रे के घर से महज 300 मीटर दूर रहते थे शायद उनको भी समय से सूचित कर दिया गया था।

चित्रे ने अपने घर के बाहर एक उथल-पुथल पाया। वहां गैस थी और लोग अपनी जिंदगियों के लिए हर दिशा में भाग रहे थे। उनके साथ कोई नहीं था जो भागने का एक सुरक्षित रास्ता बताए। कुछ को उल्टियां हुई और वे वहीं मर गए। इतनी घबराहट थी कि लोगों ने अपने बच्चों को पीछे ही छोड़ दिया, या फिर थकावट और गैस के प्रकोप से उबरने के बावजूद भी उन्हें लेने के लिए नहीं रुके। एक स्थान पर तो दंपत्ति ने देखा कि एक परिवार रुका और बैठ गया और उन्होंने कहा कि “हम एक-दूसरे के साथ ही मरेंगे”। एक आदमी ने छिपने की चाह में 15 किलोमीटर की दौड़ लगाई। नजदीक से गुजर रही पुलिस वैन को भी सुरक्षित दिशा का अंदाजा नहीं था। शवों को लांघते-फांदते चित्रे दंपत्ति ने स्थानीय पॉलिटेक्निक की तरफ आधी किलोमीटर की दौड़ लगाई फिर रुक गए और तय कि अब आगे नहीं दौड़ेंगे।

दो घंटे बाद करीब 5 बजे एक पुलिस वैन वहां पहुंची और उसने घोषणा किया कि अब घर लौटना सुरक्षित होगा। लेकिन किसी ने भी पुलिस वालों की बात पर यकीन नहीं किया। पॉलिटेक्निक से ही चित्रे ने दूसरी छोर पर कस्बे में अपने मित्र को मदद के लिए फोन किया। वे तीन दिन बाद वापस अपने घर लौटे। वहां अनार के पेड़ पीले पड़ गए थे और पीपल के पेड़ काले। प्राणहरने वाली उस रात के तीन दिन बाद रोहिणी ने कसरत के दौरान दर्द और आश्रय अपने पैरों में दर्द महसूस करने लगे। वे तुंरत अपने अजन्मे बच्चे और मुकद्दर के लिए न्यूरोलॉजिस्ट के पास बॉम्बे (अब मुंबई) के लिए निकल गए।

उस रात को भोपाल में दूसरे हजार लोग भी थे, जो कि इस भंयकर नाटक में शामिल थे और जो चित्रे दंपत्ति की तरह कम भाग्यशाली रहे। इनमें ज्यादातर शहर के गरीब थे जो यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के पीछे रहते थे। उनमें से ही शहरी निगम का एक ड्राइवर रामनारायण जादव भी था जिसने कहा…  

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