11 मार्च को जापान में आए भूकंप, सुनामी और फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र हादसे को 10 साल हो जाएंगे। जापान ऐसा देश है, जो परमाणु बम का पहला और अंतिम भुक्तभोगी रहा है। चर्नोबिल के बाद फुकुशिमा में दूसरे सबसे बड़े परमाणु हादसे का शिकार होने के बाद जापान में परमाणु ऊर्जा के प्रति फैला असंतोष पूरी दुनिया में फैल गया।
दुर्भाग्य से दुनिया को परमाणु ऊर्जा की जानकारी तब मिली थी, जब अगस्त 1945 में जापान के ही हिरोशिमा और नागाशाकी शहरों में परमाणु बम गिराए गए। परमाणु बम ने दोनों शहरों को ध्वस्त कर दिया। जापान इस परमाणु हमले के दुष्परिणामों से अब भी नहीं उबर पाया है। हैरानी की बात यह है कि जापान ने अपनी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए परमाणु ऊर्जा का ही सहारा लिया। 2011 में आए सुनामी से पहले जापान में 30 प्रतिशत बिजली का उत्पादन परमाणु संयंत्रों से होता था।
फुकुशिमा हादसे के बाद परमाणु ऊर्जा के प्रति दुनिया का नजरिया बदल गया। इसके बाद बहुत से देशों ने अपने महत्वपूर्ण परमाणु ऊर्जा कार्यक्रमों की समीक्षा की। जर्मनी और स्विट्जरलैंड जैसे देशों ने तो परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की घोषणा की। हादसे के वक्त जापान में 54 परमाणु रिएक्टर थे। इनमें से 12 रिएक्टर स्थायी रूप से बंद कर दिए गए और 24 को बंद किया जा रहा है। यह ऐसे समय में हो रहा है, जब परमाणु ऊर्जा सेक्टर चर्नोबिल के हादसे से उबर रहा है और भारत सहित अधिक से अधिक देश ऊर्जा के इस वाहियात स्रोत को अपना रहे हैं।
जापान अब भी तय नहीं कर पाया है कि वह अपने बंद पड़े परमाणु संयंत्रों को फिर से खोले या नहीं। हाल ही में ब्लूमबर्ग को दिए साक्षात्कार में फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के संचालक व जापान की सबसे बड़ी यूटीलिटी कंपनी टेपको के अध्यक्ष टोमोआकी कोबायाकावा ने कहा कि परमाणु ऊर्जा के बिना देश 2030 तक कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन आधा करने का लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता। हालांकि दुनिया के लिए यह मानना मुश्किल है कि ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को फिर से शुरू करना आवश्यक है। इसे ऊर्जा का निर्णायक स्रोत भी नहीं माना जा सकता।
परमाणु ऊर्जा हमेशा से ऊंची लागत, लंबी अवधि में परिणाम देने और सुरक्षा को लेकर अनिश्चितता के कारण संशय में रही है। एक के बाद एक आई आपदाओं ने इन आशंकाओं को प्रबल किया है। सौर और पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोतों से भी महंगी परमाणु ऊर्जा की तुलना की जा रही है। 2018 में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने कार्बन उत्सर्जन कम करने व वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने में परमाणु ऊर्जा के योगदान को खारिज कर दिया था।
आईपीसीसी ने चेताया था कि “जन स्वीकार्यता” एक ऐसी शर्त है जो इसके विस्तार में रोड़े अटका रही है। वर्तमान में परमाणु ऊर्जा क्षेत्र वैश्विक बिजली उत्पादन में अपने योगदान के लिए संघर्ष कर रहा है। उसके योगदान में वृद्धि नहीं हो रही है। 32 देशों के 414 परमाणु ऊर्जा संयंत्र कुल बिजली उत्पादन में केवल 10 प्रतिशत योगदान दे रहे हैं।
जापान में लोग अब भी परमाणु ऊर्जा के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। सुरक्षा की चिंताओं को लगातार दूर करने का प्रयास किया जा रहा है लेकिन इससे तकनीक भी महंगी हो रही है। गौर करने वाली बात है कि ऐसे प्रयास मुख्य रूप से उद्योग स्तर पर होते हैं। उन जनसामान्य की चिंताएं दूर नहीं की जातीं जो ऐसी आपदाओं के शिकार होते हैं। कोई भी देश सार्वजनिक रूप से परमाणु ऊर्जा की रणनीतियों पर बात नहीं करता, चाहे वे सैन्य हों अथवा नागरिक।
इसके अलावा परमाणु संयंत्रों और इसमें इस्तेमाल होने वाले ईंधन यूरेनियम के खनन का स्थानीय समुदायों द्वारा विरोध किया जाता है। यही वजह है कि अधिकांश देश स्वच्छ ऊर्जा के स्रोतों पर निर्भर हो रहे हैं जो न केवल सस्ते हैं बल्कि बड़ी आबादी तक उनकी पहुंच भी है। परमाणु ऊर्जा ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जहां से उसे उबारा नहीं जा सकता।